Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 102] औपपातिकसूत्र तदनन्तर वैदूर्य-नीलम की प्रभा से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश प्राभामय, समुच्छ्रित—ऊँचा फैलाया हुआ निर्मल आतपत्र-धूप से बचाने वाला-छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित - जिसमें मणियाँ तथा रत्न जडे थे, जिस पर राजा की पादकाओं की जोडी रखी थी, वह पादपीठ-राजा के पैर रखने का पोढ़ा, चौकी, जो (उक्त वस्तु-समवाय) किङ्करों-प्राज्ञा कीजिए, क्या करें हरदम यों प्राज्ञा-पालन में तत्पर सेवकों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भत्यों तथा पदातियों--पैदल चलने वाले लोगों से घिरे हुए थे, क्रमशः प्रागे रवाना किये गये। तत्पश्चात बहुत से लष्टिग्राह-लद्वीधारी, कुन्तग्राह-भालाधारी, चापग्राह–धनुर्धारी, चमरग्राह-चंवर लिये हुए, पाशग्राह-उद्धत घोड़ों, बैलों को नियन्त्रित करने हेतु चाबुक आदि लिये हुए अथवा पासे प्रादि द्यूत-सामग्री लिये हुए, पुस्तकमाह-पुस्तकधारी-ग्रन्थ लिये हुए अथवा हिसाब-किताब रखने के बहीखाते आदि लिये हुए, फल कग्राह-काष्ठपट्ट लिये हुए, पीठग्राह-आसन लिये हुए, वीणाग्राह-वीणा धारण किये हुए, कृप्यग्राह-पक्व तेलपात्र लिये हुए, हडप्पयग्राह-द्रम्म नामक सिक्कों के पात्र अथवा ताम्बूल-पान के मसाले, सुपारी आदि के पात्र लिये हुए पुरुष यथाक्रम आगे रवाना हुए। उसके बाद बहुत से दण्डी-दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी-सिरमुण्डे, शिखण्डो-शिखाधारी, जटी-जटाधारी, पिच्छी-मयूरपिच्छ-मोरपंख आदि धारण किये हुए, हासकर-हासपरिहास करने वाले-विदूषक, डमरकर-"हल्लेबाज, चाटुकर-खुशामदी-खुशामदयुक्त प्रिय वचन बोलने वाले, बादकर-बाद विवाद करने वाले, कन्दर्पकर-कामुक या शृगारी चेष्टाएँ करने वाले, दवकर-मजाक करने वाले, कोत्कुचिक-भाड ग्रादि, क्रीडाकर-खेल-तमाशे करने वाले, इनमें से कतिपय बजाते हुए-तालियां पीटते हुए अथवा वाद्य बजाते हुए, गाते हुए, हंसते हुए, नाचते हुए बोलते हुए, सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, अवलोकन करते हुए, तथा जय शब्द का प्रयोग करते हुएजय बोलते हुए यथाक्रम आगे बढ़े। तदनन्तर जात्य-उच्च जाति के-ऊँची नसल के एक सौ आठ घोड़े यथाक्रम रवाना किये गये। वे बेग, शक्ति और स्फूर्ति मय वय-यौवन वय में स्थित थे। हरिमेला नामक वृक्ष की कली तथा मल्लिका-चमेली के पुष्प जैसी उनकी आँखें थीं। तोते की चोंच की तरह वक्र-टेढ़े पैर उठाकर वे शान से चल रहे थे अथवा चञ्चुरित-कुटिल ललित गतियुक्त थे / वे चपल, चंचल चाल लिये हुए थे अथवा उनकी गति बिजली के सदृश चंचल-तीन थी। गड्ढे आदि लांघना, ऊँचा कूदना, तेजी से सीधा दौड़ना, चतुराई से दौड़ना, भूमि पर तीन पैर टिकाना, जयिनी संज्ञक सर्वातिशायिनी तेज गति से दौड़ना, चलना इत्यादि विशिष्ट गतिक्रम वे सीखे हुए थे / उनके गले में पहने हुए, श्रेष्ठ आभूषण लटक रहे थे / मुख के आभूषण अवचूलक-मस्तक पर लगाई गई कलंगी, दर्पण की प्राकृतियुक्त विशेष अलंकार, अभिलान-मुखबन्ध या मोरे (मोहरे) बड़े सुन्दर दिखाई देते थे। उनके कटिभाग चामर-दण्ड से सुशोभित थे / सुन्दर, तरुण सेवक उन्हें थामे हुए थे / तत्पश्चात् यथाक्रम एक सौ पाठ हाथी रवाना किये गये। वे कुछ कुछ मत्त--मदमस्त एवं उन्नत थे। उनके दांत (तरुण होने के कारण) कुछ कुछ बाहर निकले हुए थे। दांतों के पिछले भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org