Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 198
________________ आत्मोकर्षक आवि प्रवजित श्रमणों एवं निह्नवों का उपपात] [155 एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई परियायं पाउणिता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तहि तेसि गई, बावोसं सागरोवमाई ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव / - १२०-ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में जो आजीवक होते हैं, जैसे-दो घरों के अन्तर से -दो घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, तीन घर छोड़कर भिक्षा लेनेवाले, सात घर छोड़कर भिक्षा लेनेवाले, नियम-विशेषवश भिक्षा में केवल कमल-डंठल लेनेवाले, प्रत्येक घर से भिक्षा लेनेवाले, जब बिजली चमकती हो तव भिक्षा नहीं लेनेवाले, मिट्टी से बने नांद जैसे बड़े बर्तन में प्रविष्ट होकर तप करनेवाले, वे ऐसे प्राचार द्वारा विहार करते हुए-जीवन-यापन करते हुए बहुत वर्षों तक आजीवक-पर्याय का पालन कर, मृत्यु-काल आने पर मरण प्राप्त कर, उत्कृष्ट अच्युत कल्प में (बारहवें देवलोक में) देवरूप में उत्पन्न ' में उत्पन्न होते हैं। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे आराधक नहीं होते। अवशेष वर्णन पूर्ववत है / आत्मोत्कर्षक आदि प्रवजित श्रमणों का उपपात १२१-सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु पन्वइया समणा भवंति, तं जहा–अत्तुकोसिया, परपरिवाइया, भूइकम्मिया, भुज्जो-भुज्जो कोउयकारगा, ते णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्त प्रणालोइयनपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा उक्फोसेणं अच्चुए कप्पे आभिप्रोगिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहि तेसि इई, बावीसं सागरोक्माई ठिई, परलोगस्स प्रणाराहगा, सेसं तं चेव / ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में जो ये प्रव्रजित श्रमण होते हैं, जैसे--प्रात्मोत्कर्षक-अपना उत्कर्ष दिखानेवाले-अपना बड़प्पन या गरिमा बखाननेवाले, परपरिवादक-दूसरों को निन्दा करने वाले, भूतिकर्मिक-ज्वर आदि बाधा, उपद्रव शान्त करने हेतु अभिमन्त्रित भस्म आदि देनेवाले, कौतुककारक-भाग्योदय आदि के निमित्त चामत्कारिक बातें करनेवाले। वे इस प्रकार की चर्या लिये विहार करते हुए-जीवन चलाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। अपने गहीत पर्याय का पालन कर वे अन्ततः अपने पाप-स्थानों की आलोचना नही प्रतिक्रान्त नहीं होते हुए, मृत्यु-काल आने पर देहत्याग कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में आभियोगिकसेवकवर्ग के देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है। उनकी स्थिति बाईस सागरोपम-प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते / अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। निह्नवों का उपपात १२२-सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति, तं जहा–१ बहुरया, 2 जीवपएसिया, 3 अवत्तिया, 4 सामुच्छेइया, 5 दोकिरिया, 6 तेरासिया, 7 प्रबद्धिया इच्चेते सत्त पक्यणणिण्हगा, केवलचरियालिंगसामण्णा, मिच्छद्दिट्टि बाहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पागं च परं च तदुभयं च बुगाहेमाणा, वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाई 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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