Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 166] [औपपातिकसूत्र १३२-से गूणं भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं निज्जरापोग्गलेहि फुडे ? हंता फुडे / १३२-भगवन् ! क्या उन निर्जरा-प्रधान-अकर्मावस्था प्राप्त पुद्गलों से-खिरे हुए पुद्गलों से समग्र लोक स्पृष्ट--- व्याप्त होता है ? हाँ, गौतम ! होता है। १३३-छउमत्थे णं भंते ! मगुस्से तेसि णिज्जरापोगालाणं किंचि वण्णणं वण्णं, गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं फासं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इण8 सम8। १३३-भगवन् ! छद्मस्थ-कर्मावरणयुक्त, विशिष्टज्ञानरहित मनुष्य क्या उन निर्जरापुद्गलों के वर्णरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रसरूप से रस को तथा स्पर्शरूप से स्पर्श को जानता है ? देखता है ? गौतम ! ऐसा संभव नहीं है। 134 से केणळेणं भंते ! एवं वुच्चइ–'छउमत्थे णं मणुस्से तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णणं वणं जाय (गंधेणं गंध, रसेणं रसं, फासेणं फासं) जाणइ, पासइ / १३४-भगवन् ! यह किस अभिप्राय से कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन खिरे हुए पुद्गलों के वणरूप से वर्ण को, गन्धरूप से गन्ध को, रसरूप से रस को तथा स्पर्शरूप से स्पर्श को जरा भी नहीं जानता, नहीं देखता। १३५–गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे सवदीवसमुद्दाणं सब्दभंतराए, सम्वखुड्डाए, वडे, तेलापूयसंठाणसंठिए वट्ट, रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्ट, पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्ट, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई श्रद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते / १३५--गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सभी द्वीपों तथा समुद्रों के बिलकुल बीच में स्थित है। यह प्राकार में सबसे छोटा है, गोल है / तैल में पके हुए पूए के समान गोल है / रथ के पहिये के प्राकार के सदृश गोल है। कमल-कणिका-कमल के बीज-कोष की तरह गोल है। पूर्ण चन्द्रमा के प्राकार के समान गोलाकार है / एक लाख योजन-प्रमाण लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक बतलाई गई है। 136- देवे णं महिड्ढीए, महजुतीए, महब्बले, महाजसे, महासुक्खे, महाणुभावे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गिण्हइ, गिहित्ता तं अवदालेइ, अवदालिता जाव इणामेव त्ति कट्ट केवलकप्पं जंबुद्दोवं दीवं तिहिं अच्छराणिवाएहि तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टिता णं हव्वमागच्छेज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org