Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 208
________________ मनारंमी श्रमण] रत रहते हैं। फिर किसी प्राबाध-रोग आदि विघ्न के उत्पन्न होने पर या न होने पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं। बहुत दिनों का अनशन करते हैं। अनशन सम्पन्न कर, जिस लक्ष्य से कष्टपूर्ण संयम-पथ स्वीकार किया, उसे प्राराधित कर-प्राप्त कर पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वासनिःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं / तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, सब दुःखों का अन्त करते हैं। १२९–एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुस्वकम्मायसेसेणं कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सम्वसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसि गई, तेतीसं सागरोवमाई ठिई, श्राराहगा, सेसं तं चेव / १२९---कई एक ही भव करने वाले भविष्य में केवल एक ही बार मनुष्य-देह धारण करने वाले भगवन्त-भक्ता-अनुष्ठानविशेषसेवी अथवा भयत्राता—संयममयो साधना द्वारा संसार. भय से अपना परित्राण करने वाले सांसारिक मोह-माया से अव्याप्त या अप्रभावित साधक जिनके पूर्व-संचित कर्मों में से कुछ क्षय अवशेष है—उनके कारण, मृत्यु-काल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महा विमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं / वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है / उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम-प्रमाण होती है / वे परलोक के पाराधक होते हैं। शेष पूर्ववत् / सर्वकामादिविरत मनुष्यों का उपपात १३०-सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा--सव्यकामविरया, सम्परागविरया, सव्वसंगातीता, सव्व सिणेहाइक्कंता, अक्कोहा, निक्कोहा, खीणवकोहा एवं माणमाय. लोहा, अणुपुब्वेणं अट्ठ कम्मपयडीयो खवेत्ता उपि लोयग्गपइट्ठाणा हवंति / १३०–ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे—सर्वकामविरत - शब्द आदि समस्त काम्य विषयों से निवृत्त--उत्सुकता रहित, सर्व रागविरत-सब प्रकार के राग परिणामों से विरत, सर्व संगातीत-सब प्रकार की आसक्तियों से हटे हुए, सर्वस्नेहातिक्रान्त--सब प्रकार के स्नेह-प्रेमानुराग से रहित, अक्रोध--क्रोध को विफल करने वाले, निष्क्रोध-जिन्हें क्रोध आता ही नहीं-क्रोधोदयरहित, क्षीणक्रोध--जिनका क्रोधमोहनीय कर्म क्षीण हो गया हो, इसी प्रकार जिनके मान, माया, लोभ क्षीण हो गये हों, वे पाठों कर्म-प्रकृतियों का क्षय करते हुए लोकाग्र—लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित होते हैं-मोक्ष प्राप्त करते हैं / केलि-समुद्घात १३१-अणगारे णं मंते ! भावियप्पा केवलिसमुग्घाएणं समोहणित्ता, केवलकथ्य लोयं फुसित्ता णं चिट्ट ? हंता, चिट्ठइ / 131-- भगवन् ! भावितात्मा–अध्यात्मानुगत अनगार केवलि-समुद्धात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाल कर, क्या समग्र लोक का स्पर्श कर स्थित होते हैं ? हाँ, गौतम ! स्थित होते हैं। 1. देखें सूत्र-संख्या 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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