Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 218
________________ सिद्धों का परिवास] [175 १६१-प्रथि भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स आहे सिद्धा परिवसंति ? णो इणो समझें, एवं सव्वेसि पुच्छा—ईसाणस्स, सणंकुमारस्स जाव (माहिंदस्स, बंभस्स, लंतगस्स, महासुक्कस्स, सहस्सारस्स, प्राणयस्स, पाणयस्स, प्रारणस्स) प्रच्चुयस्स गेवेज्जविमाणाणं प्रणतरविमाणाणं। १६१–भगवन् ! क्या सिद्ध सौधर्म कल्प (देवलोक) के नीचे निवास करते हैं ? नहीं ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है / ईशान, सनत्कुमार, (माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, पारण एवं) अच्युत तक, अवेयक विमानों तथा अनुत्तर विमानों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही समझना चाहिए / अर्थात् इनके नीचे भी सिद्ध निवास नहीं करते / १६२---अस्थि णं भंते ! ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? णो इठे समठे। १६२---भगवन् ! क्या सिद्ध ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है। 163 से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयण पहाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाश्रो भूमिभागाओ उड्ढं चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्तताराभवणानो बहुई जोयणाई, बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साइं, बहूई जोयणसयसहस्साई, बहनो जोयणकोडीनो, बहूझो जोयणकोडाकोडीयो उडतरं उप्पइत्ता सोहम्मोसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंतगमहासुक्कसहस्साराणयपाणयमारणअच्चुए तिण्णि य अट्ठारे गेविज्जविमाणाबाससए बोईवइत्ता विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वदसिद्धस्स य महाविमाणस्स सम्वउवरिल्लायो अभियग्गाश्रो दुवालसजोयणाई अबाहाए एस्थ णं ईसीपभारा णाम पृढवी पण्णता, पणयालीसं जोयणसयसहस्साई पायामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साई दोषिण य प्राउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिरएणं / १६३–भगवन् ! फिर सिद्ध कहाँ निवास करते हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा भूमि के बहुसम रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तथा तारों के भवनों से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन बहुत करोड़ों योजन तथा बहुत क्रोडाफोड़ योजना से ऊर्वतर-बहुत ऊपर जाने पर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत कल्प, तथा तीन सो अठारह ग्रंवेयक विमान-पावास से भी ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध महाविमान के सर्वोच्च शिखर के अग्रभाग से बारह योजन के अन्तर पर ऊपर ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी कही गई है। वह पृथ्वी पंतालीस लाख योजन लम्बी तथा चौड़ी है। उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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