Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 10] [ोपपातिकसूत्र १८०-सिद्धों को जो अव्याबाध-सर्वथा विघ्न बाधारहित, शाश्वत सुख प्राप्त है, वह न मनुष्यों को प्राप्त है और न समन देवताओं को ही। १८१-जं वेवाणं सोक्खं, सम्वद्धा पिडियं प्रणतगुणं / ण य पावइ मुतिसुहं, ताहि बग्गवाहिं / / 14 / / १८१-तीन काल गुणित अनन्त देव-सुख, यदि अनन्त वार वर्गवगित किया जाए तो भी वह मोक्ष-सुख के समान नहीं हो सकता / विवेचन–अतीत, वर्तमान तथा भूत-तीनों कालों से गुणित देवों का सुख, कल्पना करें, यदि लोक तथा अलोक के अनन्त प्रदेशों पर स्थापित किया जाए, सारे प्रदेश उससे भर जाएँ तो वह अनन्त देव-सुख से संज्ञित होता है / दो समान संख्याओं का परस्पर गुणत करने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, उसे वर्ग कहा जाता है / उदाहरणार्थ पाँच का पांच से गुणन करने पर गुणनफल पच्चीस आता है। पच्चीस पांच का वर्ग है / वर्ग का वर्ग से गुणन करने पर जो गुणनफल आता है, उसे वर्गवर्गित कहा जाता है। जैसे पच्चीस का पच्चीस से गुणन करने पर छ: सौ पच्चीस गुणनफल पाता है। यह पाँच का वर्गबर्मित है। देवों के उक्त अनन्त सुख को यदि अनन्त वार वर्गवणित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख के समान नहीं हो सकता / १५२-सिद्धस्स सुहो रासी, सब्वद्धा पिडिपो जइ हवेज्जा। सोणंतवग्गभइयो, सध्वागासे ण माएज्जा // 15 // १८२--एक सिद्ध के सुख को तीनों कालों से गुणित करने पर जो सुख-राशि निष्पन्न हो, उसे यदि अन्त वर्ग से विभाजित किया जाए, जो सुख-राशि भागफल के रूप में प्राप्त हो, वह भी इतनी अधिक होती है कि सम्पूर्ण आकाश में समाहित नहीं हो सकती। १८३-जह णाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे बियाणंतो। न चएइ परिकहेडं, उवमाए तहिं असंतीए // 16 // १८३-जैसे कोई म्लेच्छ–असभ्य वनवासी पुरुष नगर के अनेकविध गुणों को जानता हमा भी वन में वैसी कोई उपमा नहीं पाता हुआ उस (नगर) के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता। १८४-इय सिद्धाणं सोक्खं, अशोवमं णस्थि तस्स प्रोवम्म / किचि विसेसेणेत्तो, प्रोधम्ममिणं सुणह वोच्छं // 17 // १८४–उसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी (सामान्य जनों के बोध हेतु) विशेष रूप से उपमा द्वारा उसे समझाया जा रहा है, सुनें / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org