Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 203
________________ 160] [औपपातिकसूत्र - जमालि, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल के अतिरिक्त अन्य सभी निह्नव अपनी अपनी भूलों का प्रायश्चित्त लेकर पुनः संघ में सम्मिलित हो गये। जमालि, रोहगुप्त तथा गोष्ठामाहिल, जो संघ से अन्त तक पृथक ही रहे, उनकी कोई परम्परा नहीं चली / न उनका कोई साहित्य ही उपलब्ध है। अल्पारंभी प्रादि मनुष्यों का उपपात 123 सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा--अप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मप्पलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा, सुसीला, सुवया, सुप्पडियाणंदा साहूहि एमच्चायो पाणाइवायानो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चामो प्रपडिविरया एवं जाव (एगच्चानो मुसावायानो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाप्रो अदिण्णादाणाम्रो पडिविरया जावज्जोवाए एगच्चायो अपडिविरया, एगच्चाओ मेहणायो पडिविरया जावज्जीवाए एगच्चायो अपडिविरया, एगच्चायो परिग्गहाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया) एगच्चाओ कोहामो, माणाम्रो, मायाओ, लोहाग्रो, पेज्जायो, दोसायो, कलहाम्रो, प्रमभक्खाणाम्रो, पेसुग्णाम्रो, परपरिवायानो, प्ररइरइयो, मायामोसाम्रो, मिच्छादसणसल्लायो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चायो अपडिविरया, एगच्चायो प्रारंभसमारंभायो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चामो अपडिविरया, एगच्चाओ करणकारावणाश्रो पडिबिरया जावज्जीवाए एगच्चाप्रो प्रपडिविरया, एगच्चाप्रो पयणपयावणानो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चायो पयणपयावणानो अपडिविरया, एगच्चामो कोट्टणपट्टिणतज्जणतालणवहबंधपरिकिलेसानो पडिविरया जावज्जीवाए, एमच्चायो अपडिविरिया, एगच्चाप्रो हाणमद्दणवष्णगविलेवणसहाफरिसरसरूवगंधमल्लालंकारानो पडिविरया जावज्जीयाए, एगच्चायो अपडिविरया, जेयावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति, तनो वि एगच्चायो पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चायो अपडिविरया। १२३--ग्राम, आकर, सन्निवेश आदि में जो ये मनुष्य होते हैं, जैसे अल्पारंभ-अल्प-थोड़ी हिंसा से जीवन चलानेवाले, अल्पपरिग्रह-सीमित धन, धान्य आदि में सन्तोष रखनेवाले, धामिकश्रुत-चारित्ररूप धर्म का प्राचरण करनेवाले, धर्मानुग-श्रुतधर्म या आगमानुमोदित धर्म का अनुगमन- अनुसरण करनेवाले धर्मिष्ठ-धर्मप्रिय-धर्म में प्रीति रखनेवाले, धर्माख्यायी-धर्म का पाख्यान करनेवाले, भव्य प्राणियों को धर्म बतानेवाले अथवा धर्मख्याति-धर्म द्वारा ख्याति प्राप्त करनेवाले, धर्मप्रलोकी-धर्म को उपादेय रूप में देखनेवाले, धर्मप्ररंजन.-धर्म में विशेष रूप से अनुरक्त रहनेवाले, धर्मसमुदाचार -धर्म का सानन्द, सम्यक् आचरण करनेवाले, धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलानेवाले, सुशील-उत्तम शील--आचारयुक्त, सुव्रत-श्रेष्ठ व्रतयुक्त, सुप्रत्यानन्दप्रात्मप साधनों के पास साधनों के साक्ष्य से अंशतः स्थल रूप में जीवनभर के लिए हिंसा से, (असत्य से, चोरी से, अब्रह्मचर्य से, परिग्रह से) क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, प्रेय से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, रति-अरति से तथा मिथ्यादर्शनशल्य से प्रतिविरत--निवृत्त होते हैं, अंशत:-----सूक्ष्मरूप में अप्रतिविरत-अनिवृत्त होते हैं, अंशत:--- स्थूल रूप में जीवन भर के लिए प्रारम्भ-समारम्भ से विरत होते हैं, अंशत:-सूक्ष्म रूप में अविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए अंशतः किसी क्रिया के करने-कराने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत होते हैं, वे जीवन भर के लिए अंशतः पकाने, पकवाने से प्रतिविरत होते हैं, अंशतः अप्रतिविरत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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