Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 196
________________ प्रत्यनोकों का उपपात [153 गरहणाओ, तालणाप्रो, तज्जणाओ, परिभवणाओ, पव्वहणाओ, उच्चावया गामकटंगा, बाबीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहि उस्सासणिस्सासेहि सिज्झिहिति, बुझिहिति, मुच्चि हिति परिणिन्वाहिति, सव्यदुक्खाणमंतं करेहिति / 116 - तत्पश्चात् दृढप्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलि-पर्याय का पालन करेंगे--केवलिअवस्था में विचरेंगे / यो केवलि-पर्याय का पालन कर, एक मास की संलेखना और साठ भोजन- एक मास का अनशन सम्पन्न कर जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव-शारीरिक संस्कारों के प्रति अनाक्ति, मुण्डभाव-.-सांसारिक सम्बन्ध तथा ममत्व का त्याग कर श्रमण-जीवन की साधना, अस्नान-स्नान न करना, अदत्तवन---मंजन नहीं करना, केशलूचन- बालों को अपने हाथ से उखाड़ना, अब्रह्मचर्यवास-- ब्रह्मचर्य को आराधना- बाह्य तथा आभ्यन्तर रूप में अध्यात्म की साधना, अच्छत्रक-छत्र (छाता) धारण नहीं करना, जूते या पादरक्षिका धारण नहीं करना, भूमि पर सोना, जलक--काष्ठपट्ट पर सोना, सामान्य काठ की पटिया पर सोना, भिक्षा हेतु परगृह में प्रवेश करना, जहाँ अाहार मिला हो या न मिला हो, औरों से जन्म-कर्म की भर्त्सनापूर्ण अवहेलना-अवज्ञा या तिरस्कार, खिसना-मर्मोद्घाटनपूर्वक अपमान, निन्दना-निन्दा, गर्हणा--लोगों के समक्ष अपने सम्बन्ध में प्रकट किये गये कुत्सित भाव, तर्जना-अंगुली प्रादि द्वारा संकेत कर कहे गये कटु वचन, ताडना-थप्पड़ आदि द्वारा परिताड़न, परिभवना–परिभव-अपमान, परिव्यथना-व्यथा, नाना प्रकार को इन्द्रियविरोधी-प्राँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों के लिए कष्टकर स्थितियाँ, बाईस प्रकार के परिषह तथा देवादिकृत उपसर्ग आदि स्वीकार किये, उस लक्ष्य को पूरा कर अपने अन्तिम उच्छवास-नि:श्वास में सिद्ध होंगे, बूद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वृत होंगे, सब दुखों का अन्त करेंगे। प्रत्यनोकों का उपपात ११७..-सेज्जे इमे गामागर जाव' सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा-पायरिय. पडिणीया, उबकायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, आयरियउवझायाणं अयसकारगा, अधष्णकारगा, अकित्तिकारया, बहूहि असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा, वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स प्रणालोइयअप्पडिक्कता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिम्बिसिएसु देवकिम्बिसियत्ताए उधवत्तारो भवंति / तहिं तेसिं गई, तेरस सागरोवमाई ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव / ११७---जो ग्राम, प्राकर, सन्निवेश आदि में प्रवजित श्रमण होते हैं, जैसे-पाचार्यप्रत्यनीक--प्राचार्य के विरोधी, उपाध्याय-प्रत्यनीक-उपाध्याय के विरोधी, कुल-प्रत्यनीक कुल के विरोधी, गण-प्रत्यनीक २.—गण के विरोधी, आचार्य और उपाध्याय के अयशस्कर---अपयश करने वाले, अवर्णकारक--अवर्णवाद बोलने वाले, अकीतिकारक अपकीर्ति या निन्दा करने वाले, असद्भाव. --वस्तुतः जो हैं नहीं, ऐसी बातों या दोषों के उद्भावन-प्रारोपण तथा मिथ्यात्व के 1. देखें मूत्र-संख्या 71 2. प्राचार्य, उपाध्याय, कुल तथा गण का सूत्र-संख्या 30 के विवेचन के अन्तर्गत विवेचन किया जा चुका है, जो द्रष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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