Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अम्बड के उत्तरवर्ती भव] [151 १०९-तए णं से दढपइण्णे दारए बाबत्तरिकलापंडिए, नवंगसुत्तपडिबोहिए, अट्ठारसदेसीभासाविसारए, गीयरई, गंधव्वणट्टकुसले, हयजोहो, गयजोही, रहजोही, बाहुजोही, बाहुप्पमद्दो, वियालचारी, साहसिए, प्रलंभोगसमत्थे यावि भविस्सइ / १०९-बहत्तर कलानों में पंडित-मर्मज्ञ, प्रतिबुद्ध नौ अंगों- दो कान, दो नेत्र, दो प्राण, एक जिह्वा, एक त्वचा तथा एक मन-इन अंगों को चेतना, संवेदना के जागरण से युक्तयौवनावस्था में विद्यमान, अठारह देशी भाषामों-लोकभाषाओं में विशारद–निपुण, गीतप्रिय, गान्धर्व-नाट्य-कुशल-संगीत-विद्या, नृत्य-कला आदि में प्रवीण, अश्वयुद्ध-घोड़े पर सवार होकर युद्ध करना, गजयुद्ध-हाथी पर सवार होकर युद्ध करना, रथयुद्ध-रथ पर सवार होकर युद्ध करना, बाहुयुद्ध-भुजात्रों द्वारा युद्ध करना, इन सब में दक्ष, विकालचारी-निर्भीकता के कारण रात में भी घूमने-फिरने में नि:शंक, साहसिक- प्रत्येक कार्य में साहसी दृढ़प्रतिज्ञ यो सांगोपांग विकसितसद्धित होकर सर्वथा भोग-समर्थ हो जाएगा। ११०-तए णं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावत्तरिकलापंडियं जाव (नवंगसुत्तपडिबोहियं, अट्ठारसदेसीभासाविसारयं, गीयरइं, गंधवणट्टकुसलं, हयजोहि, गयजोहि, रजोहि, बाहुजोहिं, बाहुप्पर्माद्द, वियालचारि, साहसियं) प्रलंभोगसमत्थं वियाणित्ता विउहि अण्णभोगेहि, पाणभोगेहि, लेणभोगेहि, बत्थभोगेहि, सयणभोगेहि, उवणिमंतेहिति / ११०-माता-पिता बहत्तर कलाओं में मर्मज्ञ, (प्रतिबुद्ध नौ अंग युक्त, अठारह देशी भाषाओं में निपूण, गीतप्रिय. गान्धवं-नाट्य-कुशल, अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहयद्ध, एवं बाहप्रमर्द में दक्ष, निर्भय-विकालचारी, साहसिक) अपने पुत्र दृढ़प्रतिज्ञ को सर्वथा भोग-समर्थ जानकर अन्न-उत्तम खाद्य पदार्थ, पान-उत्तम पेय पदार्थ, लयन-सुन्दर गृह आदि में निवास, उत्तम वस्त्र तथा शयनउत्तम शय्या, बिछौने आदि सुखप्रद सामग्री का उपभोग करने का आग्रह करेंगे। १११–तए णं दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहि अण्णभोगेहि जाव (पाणभोगेहि, लेणभोगेहि, वत्यभोगेहि,) सपणभोगेहि णो सज्जिहिति, णो रज्जिहिति, जो गिझिहिति, शो मुज्झिहिति, गो अज्झोवज्जिहिति। १११-तब कुमार दृढ़प्रतिज्ञ अन्न, (पान, गृह, वस्त्र,) शयन आदि भोगों में आसक्त नहीं होगा, अनुरक्त नहीं होगा, गृद्ध-लोलुप नहीं होगा, मूच्छित-मोहित नहीं होगा तथा अध्यवसित नहीं होगा-मन नहीं लगायेगा / ११२–से जहाणामए उम्पले इ वा, पउमे इ बा, कुमुदे इ वा, नलिने इ वा, सुभगे इ वा, सुगंधे इवा, पोंडरीए उवा, महापोंडरीए इवा, सयपत्ते इवा, सहस्सपत्ते इवा, सयसहस्सपत्ते इवा, पंके जाए, जले संवड्ढे णोवलिप्पइ पंकरएणं गोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव दहपइण्णे वि दारए कामेहि जाए भोगेहिं संवुड्ढे गोवलिपिहिति कामरएणं, गोवलिप्पिहिति भोगरएणं, गोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं / / ११२-जैसे उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सुगन्ध, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र आदि विविध प्रकार के कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, जल में बढ़ते हैं पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org