Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [औपपातिकसूत्र अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी E२–तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूलमासंमि गंगाए महानईए उभगोकूलेणं कंपिल्लपुरायो जयरायो पुरिमतालं जयरं संपट्टिया विहाराए। ८२-उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, एक बार जब ग्रीष्मऋतु का समय था, जेठ का महीना था, अम्बड़ परिवाजक के सात सौ अन्तेवासी-शिष्य गंगा महानदी के दो किनारों से काम्पिल्यपुर नामक नगर से पुरिमताल नामक नगर को रवाना हुए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में काम्पिल्यपुर तथा पुरिमताल नामक दो नगरों का उल्लेख हुअा है / काम्पिल्यपुर भारतवर्ष का एक प्राचीन नगर था। महाभारत आदि पर्व (137.73), उद्योग पर्व (189.13, 192.14), शान्ति पर्व (139.5) में काम्पिल्य का उल्लेख पाया है। आदिपर्व तथा उद्योग पर्व के अनुसार यह उस समय के दक्षिण पांचाल प्रदेश का नगर था / यह राजा द्रुपद की राजधानी था / द्रोपदी का स्वयंवर यहीं हुआ था। ___नायाधम्मकहाअो (16 वें अध्ययन) में भी पांचाल देश के राजा द्र पद के यहाँ काम्पिल्यपुर में द्रौपदी के जन्म आदि का वर्णन है / भगवान् महावीर के समय काम्पिल्यपुर अत्यन्त समृद्ध नगर था। भगवान् के देश प्रमुख उपासकों में से एक कुडकौलिक वहीं का निवासी था, जिसका उपासकदशांग सूत्र के छठे अध्ययन में वर्णन है। इस समय यह बदायू और फर्रुखाबाद के बीच बूढ़ी गंगा के किनारे कम्पिल नामक ग्राम के रूप में विद्यमान है / यह नगर कभी जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था। ८३–तए णं तेसि परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए, छिण्णावायाए, दोहमद्वाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुवगहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजमाणे झीणे / ८३--वे परिव्राजक चलते-चलते एक ऐसे जंगल में पहुँच गये, जहाँ कोई गाँव नहीं था, न जहाँ व्यापारियों के काफिले, गोकुल-गायों के समूह, उनकी निगरानी करने वाले गोपालक आदि का ही आवागमन था, जिसके मार्ग बड़े विकट थे। वे जंगल का कुछ भाग पार कर पाये थे कि चलते समय अपने साथ लिया हुआ पानी पीते-पीते क्रमशः समाप्त हो गया। ८४-तए णं से परिव्वायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दार्वेति, सद्दावित्ता एवं वयासी ८४-तब वे परिव्राजक, जिनके पास का पानी समाप्त हो चुका था, प्यास से व्याकुल हो गये। कोई पानी देने वाला दिखाई नहीं दिया / वे परस्पर एक दूसरे को संबोधित कर कहने लगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org