Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चमत्कारी अम्बड परिव्राजक] 145 ___ इसी प्रकार अम्बड परिव्राजक को मूल, (कन्द, फल, हरे तृण,) बीजमय भोजन खाना-पीना नहीं कल्पता। ९७–अम्मडस्स गं परिवायगस्स चउबिहे अगदंडे पच्चक्खाए जावज्जीवाए। तं जहाअवज्झाणायरिए, पमायायरिए, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे / ९७--अम्बड परिव्राजक ने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-बिना प्रयोजन हिंसा तथा तन्मूलक अशुभ कार्यों का परित्याग किया / वे इस प्रकार हैं--१. अपध्यानाचरित, 2. प्रमादाचरित, 3. हिस्रप्रदान, 4, पापकर्मोपदेश / विवेचन--बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती है, उसका समावेश अनर्थदंड में होता है / यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर जो लौकिक दृष्टि से अावश्यकता या प्रयोजनवश की जाती है, उसमें तथा निरर्थक की जाने वाली हिंसा में बड़ा भेद है / आवश्यकता या प्रयोजनवश हिंसा करने को जब व्यक्ति बाध्य होता है तो उसकी विवशता देखते उसे व्यावहारिक दृष्टि से क्षम्य भी माना जा सकता है पर प्रयोजन या मतलब के बिना हिंसा आदि का प्राचरण करना सर्वथा अनुचित है। इसलिए उसे अनर्थदंड कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सूचित चार प्रकार के अनर्थदंड की संक्षिप्त व्याख्या इस पध्यानाचरित-अपध्यानाचरित का अर्थ है दुश्चिन्तन / दुश्चिन्तन भी एक प्रकार से हिंसा ही है। वह प्रात्मगुणों का घात करता है। दुश्चिन्तन दो प्रकार का है---मार्तध्यान तथा रौद्रध्यान / अभीप्सित वस्तु, जैसे धन-संपत्ति, संतत्ति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रुग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितियों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह पार्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने यादि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है। इन दोनों तरह से होने वाला दुश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है। . प्रमादाचरित-अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है / ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों को निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बघारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है / इनसे सम्बद्ध मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं। हिस्र-प्रदान-हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना, जैसे चोर, डाक तथा शिकारी आदि को हथियार देना, प्राश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना। ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साह्न और सहारा मिलता है, अत: यह अनर्थदंड है / पापकर्मोपदेश--औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। कसी शिकारी को यह बतलाना कि प्रमक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति को दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीड़ित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करता---इन सबका पाप-कर्मोपदेश में समावेश है। ९८-अम्भउस्स कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहितए, से वि य बहमाणए, जो चेव णं प्रवहमाणए जाव (से वि य थिमिग्रोदए, जो चेव णं कद्दमोदए, से वि य बहुप्पसण्णे, णो चेव णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org