Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ परिव्राजकों का उपपात] [133 द्वारा अवरुद्ध करना, शाखाओं, पत्तों आदि को ऊँचा करना या उन्हें मोड़ना, उखाड़ना कल्प्य नहीं है ऐसा करना उनके लिए निषिद्ध है / उन परिव्राजकों के लिए स्त्री-कथा, भोजन-कथा, देश-कथा, राज-कथा, चोर-कथा, जनपदकथा, जो अपने लिए एवं दूसरों के लिए हानिप्रद तथा निरर्थक है, करना कल्पनीय नहीं है। उन परिव्राजकों के लिए तू बे, काठ तथा मिट्टी के पात्र के सिवाय लोहे, राँगे, तांबे, जसद, शोशे, चाँदी या सोने के पात्र या दूसरे बहुमूल्य धातुओं के पात्र धारण करना कल्प्य नहीं है। उन परिवाजकों को लोहे, (रांगे, तांबे, जसद, शीशे, चाँदी और सोने) के या दूसरे बहुमूल्य बन्ध-इन से बंधे पात्र रखना कल्प्य नहीं है / उन परिव्राजकों को एक धातु से-गेरू से रंगे हुए-गेरुए वस्त्रों के सिवाय तरह-तरह के रंगों से रंगे हुए वस्त्र धारण करना नहीं कल्पता। उन परिवाजकों को तांबे के एक पवित्रक-अंगुलीयक या अंगूठी के अतिरिक्त हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, मुखी-हार विशेष, कण्ठमुखी-कण्ठ का प्राभरण विशेष, प्रालम्ब---लंबी माला, त्रिसरक-तीन लड़ों का हार, कटिसूत्र.-करधनी, दशमुद्रिकाएं, कटक-कड़े, त्रुटित ---तोड़े, अंगद, केयूर—बाजूबन्द कुण्डल–कर्णभूषण, मुकुट तथा चूड़ामणि रत्नमय शिरोभूषण-शीर्षफूल धारण करना नहीं कल्पता। / उन परिवाजिकों को फलों से बने केवल एक कर्णपूर के सिवाय गूधकर बनाई गई माला लपेट कर बनाई गई मालाएं, फूलों को परस्पर संयुक्त कर बनाई मालाएं या संहित कर परस्पर एक दूसरे में उलझा कर बनाई गई मालाएं ये चार प्रकार की मालाएं धारण करना नहीं कल्पता। उन परिव्राजकों को केवल गंगा की मिट्टी के अतिरिक्त अगर, चन्दन या केसर से शरीर को लिप्त करना नहीं कल्पता। 80 तेसि णं परिवायगाणं कप्पइ मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव ण अवहमाणे, से वि य थिमिोदए, जो चेव णं कद्दमोदए, से वि य बहुप्पसण्णे, णो चेव णं अबहप्पसणे से विय परिपूए, णो चेव अपरिपूए, से वि य णं दिग्णे, णो चेव णं अदिण्णे, से विय पिवित्तए, णो चेव णं हत्थ-पाय-चरु चमस-पक्खालणट्टाए सिणाइत्तए बा। तेसिणं परिवायगाणं कप्पइ मागहए आढए जलस्स परिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे, णो घेव अवहमाणे, (से विय थिमिमोदए, जो चेव णं कद्दमोदए, से वि य बहुप्पसणे, जो चेव णं प्रबहुप्पसणे, से वि य परिपूए, जो चेव णं अपरिपूए, से वि य णं दिण्णे, णो चेव) णं अविण्णे, से विय हत्थ-पाय-चरु-चमस-पक्खालणट्टयाए, णो चेव णं पिबित्तए सिणाइत्तए वा। ८०-उन परिव्राजकों के लिये मगध देश के तोल के अनुसार एक प्रस्थ जल लेना कल्पता है / वह भी बहता हुआ हो, एक जगह बंधा हुआ या बन्द नहीं अर्थात् बहता हुआ एक प्रस्थ-परिमाण जल उनके लिये कल्प्य है, तालाब आदि का बन्द जल नहीं। वह भी यदि स्वच्छ हो तभी ग्राह्य है, कीचड़युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है / स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत प्रसन्न-साफ और निर्मल हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org