Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रस्थान [105 सब प्रकार के वाद्यों को ध्वनि-प्रतिध्वनि, महाऋद्धि-अपने विशिष्ट वैभव, महाद्युति--विशिष्ट प्राभा, महाबल-विशिष्ट सेना महासमुदय--अपने विशिष्ट पारिवारिक जन-समुदाय से सुशोभित था तथा शंख, पणव-पात्र-विशेष पर मढ़े हुए ढोल, पटह-बड़े ढोल, छोटे ढोल, भेरी, झालर, खरमुही-वाद्य, हुडुक्क-वाद्य विशेष, मुरज ढोलक, मृदंग तथा दुन्दुभि--नगाड़े एक साथ विशेष रूप से बजाए जा रहे थे। ५३--तए णं तस्स कूणियस्स रणो चंपाए गयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स बहवे अत्यस्थिया, कामस्थिया, भोगस्थिया लाभस्थिया किब्धिसिया, करोडिया, कारवाहिया, संखिया, चक्किया, नंगलिया, मुहमंगलिया, बद्धमाणा, पूसमाणया, खंडियगणा ताहि इटाहि कंताहि पियाहिं मणुष्णाहि मणामाहि मणाभिरामाहि हिययगमणिज्जाहिं वहिं जयविजयमंगलसएहि अणवरयं अभिणंदंता य अभित्थुणता य एवं बयासी-जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते अजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमझे वसाहि / इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाइं, बहूई वाससयाई, बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गो, हद्वतुट्ठो परमाउं पालयाहि, इट्ठजणसंपरिवुडो चंपाए पयरीए प्रणेसि च बहूर्ण गामागर-णयर-खेडकब्बड-दोणमुह-मडब-पट्टण-पासम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं पाहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टितं, महत्तरगतं, प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे, पालेमाणे महयाह्यनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुअंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे विहराहित्ति कटु जय जय सई पउजति / 53. -जब राजा कूणिक चंपा नगरी के बीच से गुजर रहा था, बहुत से अभ्यर्थी-धन के अभिलाषी, कामार्थी--सुख या मनोज्ञ शब्द तथा सुन्दर रूप के अभिलाषी, भोगार्थी.. सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि के अभिलाषी, लाभार्थी-मात्र भोजन आदि के अभिलाषी, किल्विषिक-भांड प्रादि, कापालिक--खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, करबाधित-करपीडित--राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्रधारी, लांगलिक--- हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले या खुशामदी, वर्धमान-औरों के कन्धों पर स्थितपुरुष, पूष्यमानव-मागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, खंडिकगण-छात्र-समुदाय, इष्ट-वाञ्छित, कान्त-कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ-मनोनुकल, मनाम-चित्त करने वाली, मनोभिराम-मन को रमणीय लगने वाली तथा हृदयगमनीय हृदय में प्रानन्द उत्पन्न करने वाली वाणो से एवं जय विजय आदि सैकड़ों मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरतलगातार अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए-प्रशस्ति कहते हुए इस प्रकार बोले जन-जन को प्रानन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, आपकी जय हो / जन-जन के लिए कल्याण-स्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें। उनके बीच निवास करें। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह. नागों में धरणेन्द्र की तरह, तारों में चन्द्रमा की तरह, मनुष्यों में चक्रवर्ती भरत की तरह आप अनेक वर्षों तक, अनेक शत वर्षों तक, अनेक सहर वर्षों तक, अनेक लक्ष वर्षों तक अनघसमग्र--सर्व प्रकार के दोष या विघ्न रहित अथवा संपत्ति, परिवार आदि से सर्वथा सम्पन्न, हृष्ट, तुष्ट रहें और उत्कृष्ट आयु प्राप्त करें। आप अपने इष्ट-प्रिय जन सहित चंपानगरी के तथा अन्य बहुत से ग्राम, आकर-नमक आदि के उत्पत्ति स्थान, नगर-जिनमें कर नहीं लगता हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org