Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 158
________________ परिषद्-विसर्जन] [115 या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके / इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?' यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी प्रोर लौट गई। ६०-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते. समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, णिसम्म हद्वतुट्ठ जाव' हियए उठाए उठेह, उद्वित्ता समणं भगवं महाषीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-"सुयक्खाए तें भंते ! निग्गंथे पावयणे जाब (धम्म णं प्राइक्खमाणा तुन्भे उवसमं ग्राइक्खह, उक्समं प्राइक्खमाणा विवेगं प्राइक्खह, विवेगं प्राइक्खमाणा वेरमणं प्राइक्खह, बेरमणं प्राइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, ‘णस्थि गं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइविखत्तए,) किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?" एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव दिसं पडिगए। ...६०-तत्पश्चात् भंभसार का पुत्र राजा कूणि क श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हष्ट, तुष्ट हुअा, मन में आनन्दित हुआ। अपने स्थान से उठा / उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। वैसा कर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करं, वह "बोला-"भगवन् ! आप द्वारा सुपाख्यात-सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त-उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित--हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत-शिष्यों में सुष्ठु रूप में विनियोजित–अन्तेवासियों द्वारा सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित—प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ प्रवचन-धर्मोपदेश, अनुत्तर--सर्वश्रेष्ठ है। (आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशमक्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य ग्रन्थियों के त्याग को समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण-विरति या निवत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसें धर्म का उपदेश कर सके)। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहाँ ?" यों कहकर वह जिस दिशा से पाया था, उसी दिशा में लौट गया। .. ६१८-तए गं तानो सुभद्दापमुहासो देवोमो समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म : सोच्चा, णिसम्म हद्वतु जाव हिपयायो उद्याए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं : पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदति णमसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं व्यासी.---"सुयक्खाए णं भंते ! निगंथे 1. पावयणे जाव' किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं?" एवं बंदित्ता जामेव विसि पाउन्भयाो , तामेव दिसि : पडियायो .. . . .. .... ... ... ... . . ६१-सुभद्रा ग्रादि रानियाँ श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हृष्ट, तुष्ट हुईं, मन में प्रानन्दित हुई। अपने स्थान से उठी / उठकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण 1 . U10. 1. देखें सूत्र-संख्या 18 2. देखें सूत्र-संख्या 18 3. देखें सूत्र-संख्या 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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