Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ क्लिशित-उपपात] [119 . गोयमा ! दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं इड्ढी इ वा, जुई इ वा, जसे इ वा, बले इ वा, वीरिए इ बा, पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा ? हंता अस्थि। ते णं भंते ! देवा परलोगस्स प्राराहगा ? णो इणठे समठे॥ ६९-भगवन् ! आप किस अभिप्राय से ऐसा कहते हैं कि कई देव होते हैं, कई देव नहीं होते ? गौतम ! जो जीव मोक्ष की अभिलाषा के बिना या कर्म-क्षय के लक्ष्य के बिना ग्राम, प्राकरनमक आदि के उत्पत्तिस्थान, नगर-जिनमें कर नहीं लगता हो ऐसे शहर, खेट–धूल के परकोटों से युक्त गाँव, कर्वट-अति साधारण कस्बे, द्रोणमुख--जल-मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, मडंब -~-पास-पास गाँव रहित बस्ती, पत्तन बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, जहाँ या तो जल मार्ग से या स्थल मार्ग से जाना सम्भव हो, आश्रम -तापसों के प्रावास, निगम-व्यापारिक नगर, संवाह-पर्वत की तलहटी में बसे गाँव, सन्निवेश झोंपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान में तृषा-प्यास, क्षुधा-भूख, ब्रह्मचर्य, अस्नान, शीत, पातप, डांस-मच्छर, स्वेद--पसीना, जल्ल-रज, मल्ल-मैल, जो सूखकर कठोर बन गया हो, पंक-मैल जो पसीने से गोला बना हो--- इन परितापों से अपने आपको थोड़ा या अधिक क्लेश देते हैं, कुछ समय तक अपने आप को क्लेशित कर मृत्यु का समय आने पर देह का त्यागकर वे वानव्यन्तर देवलोकों में से किसी लोक में देव के रूप में पैदा होते हैं। वहाँ उनकी अपनी विशेष गति, स्थिति तथा उपपात होता है। भगवन् ! वहाँ उन देवों की स्थिति--आयु कितने समय की बतलाई गई है ? गोतम ! वहाँ उनकी स्थिति दश हजार वर्ष की बतलायी गयी है। 'भगवन् ! क्या उन देवों को ऋद्धि-समृद्धि, परिवार आदि सम्पत्ति, द्युति-कांति, यशकीति, बल—शरीर-निष्पन्न शक्ति, वीर्य---जीव-निष्पन्न प्राणमयी शक्ति, पुरुषाकार.....पुरुषाभिमान, पौरुष को अनुभूति या पुरुषार्थ तथा पराक्रम-ये सब अपनी अपनी विशेषता के साथ होते हैं ? .. ... हाँ, गौतम ऐसा होता है। भगवन् ! क्या वे देव परलोक के अाराधक होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। क्लिशित-उपपात ७०-से जे इमे गामागरणयरणिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबोण हपट्टणासमसबाहसण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-अंडबद्धगा, णिमलबद्धगा, हडिबद्धगा, चारगबद्धगा, हत्थछिण्णगा, पायछिण्णगा, कण्णछिण्णगा, नक्कछिण्णगा, प्रोद्दछिण्णगा, जिन्भछिण्णगा, सीसछिण्णगा, मुखछिण्णगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org