Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 100 [औपपातिकसूत्र दीप्त-देदीप्यमान था। हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था / राजा ने एक लम्बे, लकटते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया / सुयोग्य शिल्पियों द्वारा मणि, स्वर्ण, रत्न-इनके योग से सुरचित विमल-उज्ज्वल, महाह-बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्ट-सुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट-उत्कृष्ट, प्रशस्त--प्रशंसनीय आकृतियुक्त वीरवलय-विजयकंकण धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत-अलंकारयुक्त, विभूषित-वेषभूषा, विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवृक्ष हो! अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चंबर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ राजा स्नान-गृह से बाहर निकला। स्नानघर से बाहर निकल कर अनेक गणनायक-जनसमुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक-प्रारक्षि-अधिकारी, राजा-माण्डलिक नरपति, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली या प्रभावशील पुरुष, तलवर- राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, माडंबिकजागीरदार, भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य -वैभवशाली, श्रेष्ठी--सम्पत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठा प्राप्त सेठ, सेनापति, सार्थवाह-अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिये देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करने वाले, दूत--संदेशवाहक, सन्धिपाल-राज्य के सीमान्त-प्रदेशों के अधिकारी-इन सबसे घिरा हा वह राजा धवल महामेघ--श्वेत, विशाल बादल से निकले नक्षत्रों, प्राकाश को देदीप्यमान करते तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था / वह, जहाँ बाहरी सभा-भवन था, प्रधान हाथी था, वहाँ प्राया। वहाँ पाकर अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल, उच्च गजपति पर वह नरपति आरूढ हया / / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में राजा कणिक के शरीर की मालिश के प्रसंग में शतपाक तथा सहस्रपाक तैलों का उल्लेख हुआ है। वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में तीन प्रकार से इनकी व्याख्या की है। उनके अनुसार जो तेल विभिन्न औषधियों के साथ क्रमशः सौ बार तथा हजार बार पकाये जाते थे, वे शतपाक तथा सहस्रपाक तैल कहे जाते थे। दूसरी व्याख्या के अनुसार जो क्रमशः सौ प्रकार की तथा हजार प्रकार की औषधियों से पकाये जाते थे, वे शतपाक एवं सहस्रपाक तेल के नाम से सज्ञित होते थे। तीसरी व्याख्या के अनुसार जिनके निर्माण में क्रमश: सौ कार्षापण तथा हजार कार्षापण व्यय होते थे, वे शतपाक एवं सहस्रपाक तैल कहे जाते थे। कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था / वह सोना, चाँदो तथा ताँबा-इनका पृथक-पृथक् तीन प्रकार का होता था / स्वर्ण-कार्षापण का वजन 16 मासे, रजत-कार्षापण का वजन 16 पण (तोलविशेष) और ताम्र-काषापण का वजन 80 रत्तो हाता था।' इस सूत्र में राजा के पारिपाश्विक विशिष्ट पुरुषों में सबसे पहले गणनायक शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्कालीन साहित्य में गण शब्द विशेष रूप से जन-समूह के अर्थ में प्रयुक्त दिखाई देता है। यहाँ संभवतः वह ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ हो, जो आज की भाषा में स्वायत्त-शासन (Local Self-Government) के पंचायतों, नगरपालिकामों आदि के प्रतिनिधि रहे हों। प्रस्थान ४९-तए गं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स प्राभिसेक्क हत्थिरयणं दुरुढस्स समाणस्स 1. Sanskrit-English Dictionary : Sir Monier Willianis, Page 276 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org