Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ कूणिक को सूचना] महाराज कूणिक को सूचना ३९-तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हद्वतुट्ठ जाव' हियए हाए जाव (कयबलिकम्मे, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते, सुद्धप्पावेसाइ, मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए) अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाम्रो पडिणिक्खमइ, सयानो गिहाम्रो पडिमिक्खमित्ता चंपाणरि मज्झमझेणं जेणेव बाहिरिया सा चेव हेढिला वत्तम्वया जावर णिसीयइ, णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धत्तेरससयसहस्साई पोइदाणं वलयइ, दलयित्ता सक्कारेइ, सम्माइ, सक्कारित्ता, सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। ३९--प्रवृत्ति-निवेदक को जब यह (भगवान् महावीर के पदार्पण की बात मालूम हुई, वह हषित एवं परितुष्ट हुना। उसने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किये, कौतुक- देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त--दुःस्वप्नादि-दोषनिवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया, उत्तम, प्रवेश्य-राजसभा में प्रवेशोचित-- श्रेष्ठ, मांगलिक वस्त्र भलीभाँति पहने (थोड़े-संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया / यों (सजकर) वह अपने घर से निकला / (अपने घर से निकलकर वह चम्पा नगरी के बीच, जहाँ राजा कुणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती राजसभा-भवन था वहाँ आया। ....... राजा सिंहासन पर बैठा / (बैठकर) साढ़े बारह लाख रजत-मुद्राएँ वार्ता-निवेदक को प्रीतिदान-तुष्टिदान या पारितोषिक के रूप में प्रदान की। उत्तम वस्त्र आदि द्वारा उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण वचनों से सम्मान किया / यों सत्कृत, सम्मानित कर उसे बिदा किया। विवेचन-मध्य के 'जाव' शब्द द्वारा सूचित वृत्तान्त सूत्र संख्या 17-18-19-20 के अनुसार जान लेना चाहिए। दर्शन-वन्दन की तैयारी ४०-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं पामतेइ, अामंतेत्ता एवं वयासिखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! प्राभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं च चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेहि, सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवट्ठवेहि, चंयं च गरि सभितरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जि-उवलितं, सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु प्रासित्त-सित्तसुइ-सम्मट्ठ-रत्यंतरावणवीहियं, मंचाइमंचकलियं, णाणाविहराग-उच्छिय-ज्झयपडागाइपडागमंडियं, लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरसरत्तचंदण जाव (दद्दरदिण्णपंचंगुलितलं, उचियचंदणकलसं, चंदणघडसुकयतोरणं पडिदुवारदेसभायं, प्रासत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं, पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फ जोवयारकलियं, कालागुरु-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमघंतगंधु याभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं) गंधट्टिभूयं करेह य, कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि / णिज्जाहिस्सामि समण भगवं महावीर अभिवंदए। 1. देखें सूत्र-संख्या 18 2. देखें सूत्र-संख्या 17, 18, 19, 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org