Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [औपपातिकसूत्र शुक्लध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षा के भेद से चार प्रकार का कहा गया है / इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं / स्वरूप को दृष्टि से शुक्लध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार वितर्क का अर्थ श्रुतावलम्बी विकल्प है। पूर्वधर मुनि पूर्वश्रुत--विशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर ध्यान करता है किन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय (क्षण-क्षणवर्ती अवस्था-विशेष) पर स्थिर नहीं रहता, उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है-शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक दूसरे की प्रवृति पर संक्रमण करता है, अनेक अपेक्षाओं से चिन्तन करता है। ऐसा करना पृथकत्व-वितर्क-सविचार शुक्लध्यान है। शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है। विवेचन–महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में सवितकं-समापत्ति का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्व-वितर्क-सविचार शुक्लध्यान से तुलनीय है। वहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञान - इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण--सम्मिलित समापत्ति---समाधि को सवितर्क-समापत्ति कहा गया है।' जैन एवं पातञ्जल योग से सम्बद्ध इन दोनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकटय संभाव्य है / (2) एवत्व-वितर्क-अविचार पूर्वधर-पूर्वसूत्र का ज्ञाता-पूर्वश्रुत-विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है / वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता। वैसा ध्यान एकत्व-वितर्कअविचार की संज्ञा से अभिहित है। पहले में पृथक्त्व है अत: वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम है, दूसरे में असंक्रम / आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें 'नानात्व-श्रुत-विचार तथा ऐक्य-श्रुत-अविचार संज्ञा से अभिहित किया है / / विवेचन–महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित निवितर्क-समापत्ति एकत्व-वितर्क-अविचार से तुलनीय है / पतञ्जलि लिखते हैं "जब स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का-ध्येयमात्र का निर्भास करने वाली ध्येयमात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाली हो, स्वयं स्वरूपशून्य की तरह बन जाती हो, तब वैसी स्थिति निवितर्क-समापत्ति से संजित होती है। —पातञ्जल योगदर्शन 1.42 1. तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्ति: / 2. ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्यश्रुताविचारं च / ___ सूधमक्रियमुत्सन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् // 3. स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। - योगशास्त्र 11.5 -पातञ्जल योगदर्शन 1.43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org