Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 124
________________ अनगारों द्वारा उत्कृष्ट धर्माराधना] [81 ३२-संसारभउबिग्गा, भीया, जम्मण-जर-मरण-करणगम्भीरदुक्खपक्खुग्भियपउरसलिलं, संजोग-विनोग-वीचिचितापसंगपसरिय-वह-बंध-महल्लविउलकल्लोल• कलुणविलविय- लोभकलकलंतबोलबहुलं, अवमाणणफेण-तिब्ध-खिसण-पुलंपुलप्पभूय-रोग-वेयणपरिभव-विणिवाय-फरुसरिसणासमावडियकढिणकम्मपत्थर-तरंगरंगंत-निच्चमच्चुभय-तोयपळे, कसाय-पायालसंकुलं, भवसयसहस्सकलुसजल-संचयं, पइभयं, अपरिमियमहिन्छ-कलुसमइ-वाउवेगउधुम्ममाण-दगरयरयंधार-वरफेणपउर-प्रासापिवासधवलं, मोहमहावत्त-भोग-भममाण-गुप्पमाणुच्छलत-पच्चोणियत्त-पाणिय-पमायचंडबहुदुट्ठ-साक्यसमाहयुद्धायमाण-पउभार-घोरकंदिय-महारवरवंतभेरवरवं, अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्यअणियिवियमहामगर-तुरियचरियखोखुम्भमाण-नच्चंत-चवलचंचलचलंत-धुम्मंतजलसमूह, अरइ-भयविसाय-सोग-मिच्छत्त-सेलसंकडं, प्रणाइसंताणकम्मबंधण-किलेस-चिक्खिल्लसुदुत्तारं, अमर-गर-तिरियणरय-गइगमण-कुडिलपरियत्तविउलवेलं, चउरतं, महंतमणवयग्गं, रुदं संसारसागरं भीमं, दरिसणिज्जं तरंति घिणियनिप्पकपणे तुरियचवलं संवर-वेरग-तुगवयसुसंपउत्तेणं, णाम-सिय-विमलमूसिएणं सम्मत्त-विसुद्ध-णिज्जामएणं धीरा संजम-पोएण सोलकलिया पसत्थज्झाण-तववाय-पणोल्लियपहाविएणं उज्जम-यवसाय-गहियणिज्जरण-जयणउवप्रोग-णाण-दंसण-[चरित्त] विसुद्धवय [वर] भंडभरियसारा, जिणवरययणोवविद्वमग्गेण अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमुहा समणवरसत्यवाहा सुसुइ-सुसंभास-सुपण्ह-सासा गामे गामे एगराय, जगरे गरे पंचरायं दूइज्जता, जिइंदिया, णिभया, गयभया सचित्ताचित्तमोसिएसु दरवेसु विरागयं गया, संजया [विरता], मुत्ता, लहुया, गिरवकंखा साहू णिहुया चरंति धम्म / ३२-वे (अनगार) संसार के भय से उद्विग्न एवं चिन्तित थे--पावागमन रूप चतुर्गतिमय चक्र को कैसे पार कर पाएँ-इस चिन्ता में व्यस्त थे। यह संसार एक समुद्र है / जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु द्वारा जनित घोर दुःख रूप प्रक्षुभितछलछलाते प्रचुर जल से यह भरा है। उस जल में संयोग-वियोग--मिलन तथा विरह के रूप में लहरें उत्पन्न हो रही हैं / चिन्तापूर्ण प्रसंगों से वे लहरें दूर-दूर तक फैलती जा रही हैं। वध तथा बन्धन रूप विशाल, विपूल कल्लोलें उठ रही हैं, जो करुण विलपित-शोकपूर्ण विलाप तथा लोभ की कलकल करती तीव्र ध्वनि से युक्त हैं। तोयपृष्ठ-जल का ऊपरी भाग अवमानना अबहेलना या तिरस्कार रूप झागों से ढंका है। तीव्र निन्दा, निरन्तर अनुभूत रोग-वेदना, औरों से प्राप्त होता अपमान, विनिपात--नाश, कटु वचन द्वारा निर्भर्त्सना, तत्प्रतिबद्ध ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कठोर उदय की टक्कर से उठती हुई तरंगों से वह परिव्याप्त है। वह (तोयपृष्ठ) नित्य मृत्यु भय रूप है। यह संसार रूप समुद्र कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ रूप पाताल-तलभूमि से परिव्याप्त है। इस (समुद्र) में लाखों जन्मों में अजित पापमय जल संचित है। अपरिमित-असीम इच्छाओं से म्लान बनी बुद्धि रूपी वायु के वेग से ऊपर उछलते सघन जल-कणों के कारण अंधकारयुक्त तथा आशा-अप्राप्त पदार्थों के प्राप्त होने को सम्भावना, पिपासा---अप्राप्त पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा द्वारा उजले झागों की तरह वह धवल है। संसार-सागर में मोह के रूप में बड़े-बड़े प्रावत-जलमय विशाल चक्र हैं। उनमें भोग रूप भंवर-जल के छोटे गोलाकार घुमाव हैं। अत एव दुःख रूप जल भ्रमण करता हुआ--चक्र काटता हुआ, चपल होता हुआ, ऊपर उछलता हुमा, नीचे गिरता हुआ विद्यमान है / अपने में स्थित प्रमाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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