Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ उपाध्याय स्तम्भरूपो होते हैं। वे गण के तप से मुक्त होते हैं----उनके निर्देशन में चलता गण सन्तापरहित हता है / वे अन्तेवासियों को पागमों को अर्थ-वाचना देते हैं उन्हें आगमों का रहस्य समझाते हैं। प्राचार्य ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का स्वयं परिपालन करते हैं, उनका प्रकाश-प्रसार करते हैं, उपदेश करते हैं, दूसरे शब्दों में वे स्वयं प्राचार का पालन करते हैं तथा अन्तेवासियों से करवाते हैं, अतएव प्राचार्य कहे जाते हैं।" और भी कहा गया है-- "जो शास्त्रों के अर्थ का प्राचयन-संचयन---संग्रहण करते हैं, स्वयं प्राचार का पालन करते हैं, दूसरों को प्राचार में स्थापित करते हैं, उन कारणों से वे प्राचार्य कहे जाते हैं।"२ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में प्राचार्य की विशेषतानों का विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ प्राचार्य की निम्नांकित पाठ सम्पदाएं बतलाई गई हैं 1. आचार-सम्पदा, 2. श्रुत-सम्पदा, 3. शरीर-सम्पदा, 4. वचन-सम्पदा, 5. बाचनासम्पदा, 6. मति-सम्पदा, 7. प्रयोग-सम्पदा, 8. संग्रह-सम्पदा / उपाध्याय जैनदर्शन ज्ञान तथा क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है। संयममूलक आचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की आराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े / सद्ज्ञानपूर्वक आचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान-प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रियापरिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है / ज्ञान और क्रिया जहां पूर्व तथा पश्चिम की तरह भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहां जीवन का ध्येय सधता नहीं। अध्यवसाय एवं उद्यम द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिस गति से साधक साधना-पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को प्रात्मसात् करने में वह उतना ही अधिक सफल होगा / साधनामय जीवन के अनन्य अंग ज्ञानानुशीलन से उपाध्याय पद का विशेषतः सम्बन्ध है। उपाध्याय श्रमणों को सूत्रवाचना देते हैं। कहा गया है "जिन-प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय--सूत्र-वाङमय ज्ञानियों द्वारा कथित-णित या संग्रथित किया गया है / जो उसका उपदेश करते हैं, वे उपाध्याय कहे जाते हैं।"3 -भगवती सूत्र 1.1.1, मंगलाचरण वृत्ति 1. सुत्तविक लक्खणजुत्तो, गच्छस्स मेडिभूत्रो य / गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ पायरियो / पंचविहं प्रायरं, आयरमाणा तहा पयासंता। प्राचार देसता, पायरिया तेण वच्चंति // 2. आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि / स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते / / 3. बारसंगो जिणक्खायो, सज्जनो कहियो बुहेहि / त उवइसति जम्हा. उवज्झया तेण बुच्चति // --भगवती सूत्र 1.1.1, मंगलाचरण वृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org