Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 30. अम्बुवासी-जल में रहने वाले। 31. विलवासी--बिलों में रहने वाले / 32. जलवासी-जल में निमग्न होकर बैठने वाले। . 33. बेलवासी समुद्र के किनारे रहने वाले / 34. रक्खमूलिया-वृक्षों के नीचे रहने वाले। 35. अम्बुमक्खी--- जल भक्षण करने वाले / 36. वाउभक्खी-वायू पीकर रहने वाले / रामायण 103 में मण्डकरनी नामक तापस का उल्लेख है, जो केवल वायु पर जीवित रहता था। महाभारत 04 में भी वायुभक्षी तापसों के उल्लेख मिलते हैं / 37. सेवालभक्खी केबल शवाल को खाकर जीवन-यापन करने वाले। ललितविस्तर१०५ में भी इस सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। - इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के तापम थे, जो मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प और बीज का सेवन करते थे। और कितने ही सड़े गले हुए मूल, कन्द, छाल, पत्र आदि द्वारा अपना जीवन-यापन करते थे। दीघनिकाय आदि में भी इस प्रकार के वर्णन हैं। इनमें से अनेक तापस पून:-पुनः स्नान किया करते थे, जि ये गंगा के किनारे रहते थे और वानप्रस्थाश्रम का पालन करते थे। ये तपस्वीगण एकाकी न रह कर समूह के साथ रहते थे / कोडिदिन्न और सेवालि नाम के कितने ही तापस तो पांच सौ-पांच सौ तापसों के साथ रहते थे। ये गले सड़े हुए कन्द-मूल, पत्र और शेवाल का भक्षण करते थे। उत्तराध्ययन'०७ टीका में 'वर्णन है कि ये तापसगण अष्टापद की यात्रा करने जाते थे। वन-बासी साधु तापस कहलाते थे।१०८ये जंगलों में आश्रम बनाकर रहते थे। यज्ञ-याग करते, पंचाग्नि द्वारा अपने शरीर को कष्ट देते। इनका बहुत सारा समय कन्द-मूल और बन के फलों को एकत्रित करने में व्यतीत होता था / व्यवहारभाष्य'०६ में यह भी वर्णन है कि ये तापस-गण ओखली और खलिहान के सन्निकट पड़े हुए धातों को बीनते और उन्हें स्वयं पकाकर खाते। कितनी बार एक चम्मच में आये, या धान्य-राशि पर बे वस्त्र फेंकते और जो अन्न का उस वस्त्र पर लग जाते, उन्हीं से वे अपने उदर का पोषण करते थे। प्रवजित श्रमण परिव्राजक श्रमण ब्राह्मण-धर्म के लब्धप्रतिष्ठित पण्डित थे। वशिष्ठ धर्म-सूत्र के अनुसार वे सिर मुण्डन कराते थे। एक वस्त्र या चर्मखण्ड धारण करते थे। गायों द्वारों उखाड़ी हुई घास से अपने शरीर को ढंकते थे 103. रामायण-३-११/१२. 104. महाभारत, 196/42. 105. ललितविस्तर, पृ. 248. 106. दीघनिकाय, 1, अम्बडसुत्त, पृ. 88. 107. उत्तराध्ययन टीका, 10. पृ. 114. अ. 108. निशीथचूणि-१३/४४०२ की चूणि 109. (क) व्यवहारभाष्य-१०/२३-२५. (ख) मूलाचार-५-५४. [ 32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org