Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ (जन्म), वहां से श्रेष्ठ कुल में जन्म, बोधि-लाभ तथा अन्त-क्रिया आदि का वर्णन अनुत्तरोपपातिक सूत्र में किया गया है। ___ समवायांग तथा नन्दो सूत्र में, जहाँ अनुत्तरोपपातिक का परिचय दिया गया है, वहां कहा गया है कि'इस सूत्र की वाचनाएँ परिमित हैं ऐसा बताया गया है / अर्थात् अनुत्तरौपपातिक के अनुयोगद्वार संख्येय हैं, उसमें वेढ संख्येय हैं, श्लोक नाम के छन्द संख्येय हैं, उसकी नियुक्ति संख्येय है, उसकी संग्रहणी संख्येय है तथा प्रतिपत्तियाँ संख्येय हैं। इस सूत्र में एक श्रत-स्कंध है, तीन वर्ग हैं, अध्ययन दश हैं, प्रक्षर असंख्येय हैं, गम अनन्त हैं और पर्याय भी अनन्त हैं। इस सूत्र में परिमित श्रस जीवों का और अनन्त स्थावर जीवों का वर्णन है। तथा उक्त सब पदार्थ स्वरूप से कहे गये हैं, और हेतु उदाहरण द्वारा व्यवस्थित भी किये गए हैं। नाम, स्थापना आदि द्वारा भी वे सब पदार्थ उक्त सूत्र में प्रस्तुत किये गये हैं। इस प्रकार इस सूत्र को समझने वाला प्रात्मा उक्त विषयों का ज्ञाता-विज्ञाता और दृष्टा होता है / इस प्रकार इस सूत्र में चरण-करण को प्ररूपणा की गई है।' नन्दी सूत्र में भी समवायांग सूत्र के अनुरूप विषयों की प्ररूपरणा प्राप्त होती है। हाँ, नन्दी सूत्र में अध्ययनों की संख्या का निर्देश नहीं है / नन्दी सूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिक का उद्देशन तीन दिन में होता है जब कि समवायांग के पाठानुसार दस दिन का समय उद्देशन के लिए होता है / नन्दी सूत्र में इस विषय में इस प्रकार उल्लेख है -“एगे सुयक्खंधे तिण्णि वग्गा, तिणि उद्दे सणकाला" / ' अर्थात्-इस नवम अंग में तीन वर्ग हैं और तीन उद्देशन काल हैं। स्पष्ट है कि यहाँ अध्ययन का नाम ही नहीं है। किन्तु समवाय में इसके दस अध्ययन बताए हैं। समवाय के वत्तिकार लिखते हैं कि इस भेद का हेतु अवगत नहीं है-"इह तु दृश्यन्ते दश-इति अत्र अभिप्रायो न ज्ञायते इति" 2 उपर्युक्त विभिन्नता से स्पष्ट है कि हमारे प्रागमशासन का क्रम या प्रवाह विशेष रूप से खंडित हो गया है। स्थानांगसूत्र में केवल दश अध्ययनों का वर्णन है। तत्वार्थ-राजवातिक के अभिमतानुसार प्रस्तुत आगम में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले 10-10 अनुत्तरौपपातिक श्रमणों का वर्णन है / कषायपाहुड में भी इसी का समर्थन हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध यह सूत्र और प्राचीनकाल में उपलब्ध वह सूत्र-इन दोनों में क्या विशेषता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है तीन वर्ग का होना-राजवातिक प्रादि चारों ग्रंथों में नहीं बताया गया है। स्थानांग और राजवातिक में जिन विशेष नामों का निर्देशन है, उनमें से कुछ नाम वर्तमान सूत्र में उपलब्ध हैं / जैसे- वारिषेण (राजवातिक) नाम प्रथम वर्ग में है / इसी भांति धन्य, सुनक्षत्र तथा ऋषिदास (स्थानांग तथा राजवार्तिक) ये तीन नाम तृतीय वर्ग में बरिणत हैं। ये चार नाम ही वर्तमान सूत्र में उपलब्ध होते हैं, अन्य किसी भी नाम का निर्देश नहीं है। जिन अन्य नामों का निर्देश वर्तमान पाठ में उपलब्ध है, वे नाम न तो स्थानांग में हैं, और न राजवातिक में हैं। स्थानांग सूत्र के वत्तिकार श्रीअभयदेवसूरि इस सम्बन्ध में सूचित करते हैं कि स्थानांग में कथित नाम प्रस्तुत सूत्र की किसी अन्य वाचना में होने संभावित हैं। वर्तमान वाचना उस बाचना से भिन्न है। 1. नन्दी सूत्र-पृ. 233, सू. 54 2. समवाय वृत्ति-पृ. 114 [2] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org