Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 41
________________ { अनुत्तरौपपातिकदशा ४-सामी समोसढे / सेणिओ निग्गओ। जहा मेहो तहा जाली वि निग्गयो। तहेव निक्खंतो जहा मेहो / एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / गण-रयणं तवोकम्मं जहा खंदगस्स। एवं जा चेव खंदगस्स वत्तव्वया, सा चेव चितणा, प्रापुच्छणा। थेरेहिं सद्धि विउलं तहेव दुरूहइ / नवरं सोलस वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चन्दिमसोहम्मीसाण जाव ["सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-महासुक्कसहस्साराणय-पाणयारणच्चुए] कप्पे नवगेवेज्जयविमाणपत्थडें उड्ढं दूरं वोईवइत्ता विजय-विमाणे देवत्ताए उववण्णे।" तए णं थे। भगवंता जालि अणगारं कालगयं जाणित्ता परिणिब्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति / करित्ता पत्तचीवराइं गेण्हति / तहेव उत्तरंति जाव [जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, समणं भगवं महावीर वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी जालो नामं अणगारे पगइ-भद्दए पगइविणीए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाण-माया-लोने मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए / से णं देवाणुप्पिएहि अब्मणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महन्वयाणि प्रारोवित्ता, समणा य समणीयो य खामेत्ता, अम्हेहि सद्धि विपुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव प्राणुपुवीए कालगए] इमे य से प्रायारभंडए"। "भंते" ! त्ति भगवं गोयमे जाव ["समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता"] एवं वयासी-- भगवान् महावीर राजगृह नगरो में पधारे / राजा श्रेणिक यह जानकर भगवान के दर्शन करने के लिए चला। जालीकुमार ने भी मेधकुमार की तरह भगवान् के दर्शन करने के लिए प्रस्थान किया / दर्शन करने के पश्चात् मेघकुमार की तरह जालीकुमार ने भी माता-पिता की अनुमति लेकर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। स्थविरों की सेवा में रह कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / ___ उसने स्कन्दक मुनि की तरह गुणरत्नसंवत्सर नामक तप किया। इस प्रकार चिन्तना तथा आपृच्छना के संबन्ध में जो वक्तव्यता (वर्णन) भगवतीसूत्र में है, वही वक्तव्यता जालीकुमार के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए / वह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गया / विशेष यह है कि सोलह वर्षों तक जालीकुमार ने श्रमण पर्याय का पालन किया। आयुष्य के अन्त में मरण प्राप्त करके वह ऊर्ध्वगमन करके सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार पानत प्राणत पारण और अच्यत कल्पों को और नवनवेयक विमानों को लांघकर विजय नामक अनत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। उस समय भगवन्त स्थविरों ने जाली अनगार को दिवंगत जानकर उनका परिनिर्वाणनिमित्तक कायोत्सर्ग किया। इसके पश्चात् उन्होंने (स्थविरों ने) जाली अनगार के पात्र एवं चीवरों को ग्रहण किया और फिर विपुलगिरि से नीचे उतर आये। उतरकर जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजे हुए थे वहां आये / भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कहा-भगवन् ! आपके शिष्य जाली अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, विनयी, शान्त, अल्प क्रोध मान, माया लोभवाले, कोमलता और नम्रता के गुणों से युक्त, इन्द्रियों को वश में रखनेवाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों का प्रारोपण करके साधु-साध्वियों को . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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