Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 65
________________ 32] [अनुत्तरौपपातिकदशा धन्य अनगार के जानुओं (घुटनों) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार हो गया था, जैसेकाली नामक वनस्पति का पर्व (सन्धि या जोड़) हो, मयूर पक्षी का पर्व हो, ढेणिक पक्षी का पर्व हो। यावत् [धन्य अनगार के जानु सूख गए थे / रूक्ष हो गए थे, निर्मास हो गए थे, अर्थात् मुरझा गए थे। उनमें अस्थि चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह गया था।] धन्य अनगार की उरूओं-सांथलों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया थाजैसे वदरी, शल्यको तथा शाल्मली वृक्षों की कोमल कोंपले काट कर धूप में डालने से सूख गई हों-मुरझा गई हों। इसी प्रकार धन्य अनगार की उरू भी सूख गई थीं, मुरझा गई थीं, उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की जङ्गा, जान और उरूत्रों का वर्णन किया गया है। तीव्रतर तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जङ्घाएँ मांस और रुधिर के प्रभाव से ऐसी प्रतीत होती थीं मानो काक जङ्घा नामक वनस्पति की- जो स्वभावतः शुष्क होती है-नाल हों। अथवा यों कहिए कि वे कौवे की जङ्घात्रों के समान ही क्षीण-निर्मास हो गई थीं। उनकी उपमा कङ्क और ढंक पक्षियों की जङ्घात्रों से भी दी गई है। इसी प्रकार उनके जानु भी उक्त काक-जङ्घा वनस्पति की गांठ के समान अथवा मयूर और ढंक नामक पक्षियों के संन्धि-स्थानों के समान शुष्क हो गये थे। दोनों ऊरू मांस और रुधिर के अभाव से सूख कर इस तरह मुरझा गये थे जैसे प्रियङ गु, वदरी, कर्कन्धू, शल्यकी या शाल्मली वनस्पतियों की कोमल-कोमल कोंपले तोड़कर धूप में सुखाने से मुरझा जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार कर्मनिर्जरा के अनन्य कारण तपश्चरण में इस प्रकार तन्मय हो गए कि अपने शरीर से भी निरपेक्ष हो गए / उनको शरीर का मोह भी लेश मात्र नहीं रहा / उन्होंने कठोर से कठोर तप अंगीकार किये। अतः उनके किसी अङ्ग में भी मांस और रुधिर अवशिष्ट नहीं रहा / सर्वत्र केवल अस्थि, चर्म और नसा-जाल ही देखने में आता था / सदेह होकर भी वे विदेह दशा प्राप्त करने में समर्थ हो गए। कटि. उदर एवं पसुलियों आदि का वर्णन १२–धण्णस्स कडिपत्तस्स इमेयारूवे जाव' से जहा जाव' उट्टपादे इ वा जरग्गपाए इ वा, महिसपाए इ वा जावसोणियत्ताए। धण्णस्स उयरभायणस्स इमेयारूवे जाव से जहा जाव' सुक्कदिए इ वा, भज्जणयकभल्ले इ वा कट्टकोलंवए इ वा एवामेव उदरं सुक्कं जाव' / धण्णस्स पासुलियाकडयाणं इमेयारूवे जाव से जहा जाव' थासयावली इ वा, पाणावली इवा, मुडावली इ वा जाव / धण्णस्स पिट्टिकरंडयाणं अयमेयाहवे जाव' से जहा जाव११ कण्णावली इ वा गोलावली इ वा वट्टयावली इ वा एवामेव जाव'२ / धण्णस्स उरकडयस्स प्रयमेयारूवे जाव' 3 से जहा जाव'४ चित्तकट्टरे इ वा वीणयपत्ते इ वा तालियंटपत्ते इ वा एवामेव जाव"। 1 से १५-वर्ग 3, सूत्र 10. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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