Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 67
________________ 34 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा पंक्ति ऐसी दिखाई दे रही थी मानों ये किलिज आदि के खण्ड हो अथवा यह बांस या ताड़ के पत्तों का बना हुया पंखा हो। इन सब अवयवों का वर्णन, जैसा पहले कहा जा चुका है, उपमालङ्कार से किया गया है। इससे एक तो स्वभावतः वर्णन में चारुता आ गई है, दूसरे पढ़ने वालों को वास्तविकता को समझने में सुगमता होती है। जो विषय उदाहरण देकर शिष्यों के सामने रखा जाता है, उसको अत्यल्पबुद्धि भी बिना किसी परिश्रम के समझ जाता है। यहाँ ध्यान रखने योग्य एक बात विशेष है कि धन्य अनगार का शरीर यद्यपि सूखकर कांटा हो गया था किन्तु उनकी आत्मिक तेजस्विता अत्यधिक बढ़ गई थी। धन्य मुनि के बाहु हाथ उंगलो ग्रीवा दाढी होठ एवं जिह्वा १३-धण्णस्स णं अणगारस्स बाहाणं जाव' से जहानामए जाव समिसंगलिया इवा बाहायासंगलिया इवा, प्रगस्थियसंगलिया इवा, एवामेव जाव / धष्णस्स णं अणगारस्स हत्थाणं जाव से जहा जाव' सुक्क छगणिया इ वा, वडपत्ते इ वा, पलासपत्ते इ वा, एवामेव जाव / धण्णस्स णं अणमारम्स हत्थंगुलियाणं जाव से जहा जाव कलसंगलिया इ वा, मुग्गसंगलिया इ वा, माससंगलिया इ वा, तरुणिया छिण्णा प्रायवे दिण्णा सुक्का समाणो एवामेव जाव। धण्णस्स गीवाए जाव' से जहा जाव 1 करगगीवा इ वा, कुडियागीवा इ वा उच्त्तद्ववणए इ वा एवामेव जाव१२। धण्णस्स णं अणगारस्स हणुयाए जाब' से जहा जाव' 4 लाउयफले इ वा, हकुवफले इवा, अंबगट्टिया इ वा, एवामेव जाव। धण्णस्स णं अणगारस्स उखाणं जाव' से जहा जाव१७ सुक्कजलोया वा, सिलेसगुलिया इ वा, अलत्तगुलिया इ वा एवामेव जाव' / ___धण्णस्स णं अणगारस्स जिभाए जाव से जहा जा३२ वडपत्ते इ वा पलासपत्ते इ वा, सागपत्ते इ वा एवामेव जाव२१ // धन्य अनगार की बाहु अर्थात् कंधे से नीचे के भाग (भुजाओं) का तपोजन्य रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-शमी (खेजड़ी) वृक्ष की सुखी हुई लम्बी-लम्बी फलियाँ हों, बाहाया (अमलतास) वृक्ष की सूखी हुई लम्बी-लम्बी फलियाँ हों, अथवा अगस्तिक (अगतिया) वृक्ष की सूखी हुई फलियाँ हों / इसी प्रकार धन्य अनगार की भुजाएँ भी मांस और शोणित से रहित होकर, सूख गई थी। उनमें अस्थि, चर्म और शिराऐं ही शेष रह गई थी मांस और शोणित उनमें नहीं रह गया था। धन्य अनगार के कुहनी के नीचे के भागरूप हाथों की अवस्था तपश्चर्या के कारण इस प्रकार की हो गई थी, जैसे-सूखा छाण (कंडा) हो, वड का सूखा पत्ता हो या पलाश का सूखा पत्ता हो। इसी प्रकार धन्य अनगार के हाथ भी सूख गये थे, मांस और शोणित से रहित हो गए थे। उनमें अस्थि चर्म और शिराएं ही शेष रह गई थीं। मांस और शोणित उनमें नहीं था। १-२१----देखिए वर्ग 3, सूत्र 7. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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