Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ परिशिष्ट-टिप्पण] [71 मात्र सम्पत्तिमान् कुल को लोग उच्च कुल कहते हैं, सम्पत्तिविहीन कुल को नीच कहते हैं और साधारण कुल को मध्यम कहा जाता है। जाति वा वंश की विवक्षा होती तो प्रस्तुत में मध्यम शब्द की संगति नहीं हो सकती। जैन शासन में आचार तथा तत्त्व की दृष्टि से जातीयता अपेक्षित उच्चनीच भाव सम्मत नहीं है / जैन शासन गुणमूलक है, किसी भी जाति का व्यक्ति जैन धर्म का प्राचरण कर सकता है / प्रस्तुत में उच्च-नीच और मध्यम कुल में भिक्षाभ्रमण का जो उल्लेख है, वह स्पष्टतया मुनिराज के जाति निरपेक्ष होकर सब कुलों में गोचरी जाने के सामान्य नियम का सूचक है / सनातन जैनशासन को पहले से ही यह प्रणाली रही है। विलमिव पन्नगभूएणं जैसे पन्नग-सर्प जब बिल में प्रवेश करता है तो सीधा ही उसमें उतर जाता है. ठीक उसी प्रकार स्वादेन्द्रिय के ऊपर जय पाने के इच्छुक मुनिराज प्राप्त प्रासुक खाद्य वस्तु को मुख में डालते ही निगल जाते हैं, परन्तु एक जबड़े से दूसरे जबड़े की तरफ ले जाकर चवाते नहीं ; अर्थात् खाद्य का रस न लेने के कारण वे निगल जाते हैं। ऐसा अभिप्राय बिलमिव पन्नग' इत्यादि वाक्य का है। इसका मूल आशय यही है कि मुनि की भोजन में प्रासक्ति नहीं होनी चाहिए। लेशमात्र भो रस-लोलुपता नहीं होनी चाहिए। केवल संयम-पालन के लिए शरीर-निर्वाह के लक्ष्य से ही उसे आहार करना चाहिए। सामाइयमाइयाई इस वाक्य से सूचित होता है कि सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। ग्यारह अंगों में प्रथम नाम आचारांग सूत्र का पाता है। अतः प्रस्तुत में 'पायारमाइयाई' अर्थात् ; आचारांग वगैरह ग्यारह अंगों का निर्देश होना उचित है, तव 'सामाइयमाइमाई' ऐसा निर्देश क्यों? इसका समाधान इस प्रकार है आचारअंग के प्रथम वाक्य से ही अनारंभ की चर्चा है और इधर सामायिक में भी अनारंभ की चर्चा तथा चर्या प्रधान है: अत: प्राचारअंग तथा सामायिक दोनों में असाधारण साम्य है, एकरूपता है; अत: 'पायारमाइयाई' के स्थान में 'सामाइयमाइयाई' ऐसा निर्देश असंगत नहीं है। अथवा मुनिराज प्रथम सामायिक स्वीकार करता है और उस में अनारंभधर्मप्ररूपक प्राचारअंग का भी समावेश हो जाता है; इस कारण भी ऐसा निर्देश असंगत प्रतीत नहीं होता / अथवा साम अर्थात् सामायिक तथा आजाइय अर्थात् याचारांगसूत्र / प्राचारांग की नियुक्ति में जिस गाथा में आयार, आचाल इत्यादि शब्दों को 'प्राचार' का पर्याय बताया गया है, उसी गाथा में 'आजाति' शब्द को भी आचारअंग का पर्याय बताया है। अत: 'सामाइय' का अर्थ सामायिक और प्राचारअंग इत्यादि (ग्यारह अंग) बराबर संघटित होता है। इस प्रकार योजना करने से 'सामायिक' का ग्रहण हो जाएगा और प्राचारअंग भी। साथ ही 'आइय' शब्द से आदिक अर्थात् दूसरे सब शेष अंग भी ग्रा जाएंगे। अथवा इस पद का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए–सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंग-सामायिकादिकानि / दोनों पदों के बीच में जो मकार है वह 'अन्नमन्न' प्रयोग की तरह अलाक्षणिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org