Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 74
________________ [ 41 तृतीय वर्ग] श्रेणिक ने पुनः प्रश्न किया-भंते ! किस दृष्टि से अापने यह कहा कि इन इन्द्रभूति प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार ही महादुष्करकारक है, महानिर्जराकारक है ? उत्तर में भगवान ने इस प्रकार कहा-श्रोणिक ! उस काल और उस समय में, काकन्दी नामकी नगरी थी। यावत् वहाँ ऊँचे महलों में धन्य कुमार भोगों में लीन था। अनन्तर मैं एक अनुक्रम से चलता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ, जहाँ काकन्दी नगरी थी और जहाँ पर सहस्राम्रवन उद्यान था वहाँ आया। आकर यथाप्रतिरूप (साधुजनोचित) स्थान की याचना की। संयम यावत् तप से भावित होकर रहा / परिषदा निकली, मार प्रवजित या। यावत वह अनासक्ति से प्रहार करता था। धन्य अनगार के पैर से लेकर मस्तक तक सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् भगवान ने श्रेणिक को कह सुनाया, ऐसा समझ लेना चाहिए, यावत् वह तप के प्रखर तेज से सुशोभित हो रहा है / श्रेणिक ! इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ कि इन इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महादुष्करकारक है और महानिर्जराकारक है। धन्य श्रेणिक द्वारा धन्य मुनि को स्तुति १७–तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म हट्ठ जाव [तु8 ] समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता, बंदई नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता धण्णं प्रणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पायाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी "धण्णे सि णं तुमं देवाणुपिया! सुपुणे सुकयत्ये कयलक्खणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले"-त्ति कटु वंदइ, नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव दिसं पडिगए। तदनन्तर श्रेणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर से इस अर्थ को सुन कर, उस पर विचार कर एवं तुष्ट होकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन किया तथा नमस्कार किया। वन्दन करके तथा नमस्कार करके जहाँ धन्य अनगार थे, वहाँ अाया। प्राकर, धन्य अनगार की प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन करके, नमस्कार करके वह इस प्रकार कहने लगा - "हे देवानुप्रिय ! आप धन्य हो। पाप पुण्यशाली हो। आप कृतार्थ हो। आप सुकृतलक्षण हो ! हे देवानुप्रिय ! आपने मनुष्य-जन्म और मनुष्य-जीवन को सफल किया।" यह कह कर उसने धन्य अनगार को वन्दन किया, नमस्कार किया। बन्दन करके, नमस्कार करके, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, पुन: वहाँ पहुँचा। पहुँच कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन तथा नमस्कार किया। वन्दन तथा नमस्कार करके जिस दिशा से पाया था, उसी दिशा की ओर चला गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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