Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ तृतीय वर्ग ] [36 विवेचन—यहाँ एक ही सूत्र में सूत्रकार ने प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सब अवयवों का वर्णन किया है / धन्य अनगार के पैर, जङ्घा और ऊरू मांस आदि के प्रभाव से अत्यन्त सूख गये थे और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिलकुल रूक्ष हो गये थे। चिकनाहट उन में नाम-मात्र के लिये भी शेष नहीं थी। कटि मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन विशेष-हलवाई अादियों की कढाई) था / वह मांस के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयङ्कर प्रतीत होता था जैसे नदी के ऊँचे तट हों-दोनों ओर ऊँचे और बीच में गहरे / पेट बिलकुल सूख गया था / उस में से यकृत् और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे। अतः वह स्वभावत: पीठ के साथ मिल गया था। पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक-एक अलग-अलग गिनी जा सकती थी। यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था। वे भी रुद्राक्ष की माला के दानों के समान सूत्र में पिरोये हुए भी जैसे अलग-अलग गिने जा सकते थे। उर के प्रदेश ऐसे दिखाई देते थे, जैसी गङ्गा की तरङ्ग हो। भुजाएँ सूख कर सूखे हुए साँप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश में नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही हिलते रहते थे। शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी। वह शक्ति से हान होकर कम्पन-वायू रोग वाले पुरुष के शिर के समान कांपता ही रहता था। इस अत्युग्न तप के कारण जो मुख कभी खिले हुए कमल के समान शोभायमान था, अब मुरझा गया था। अोठ सूखने के कारण विकृत-से हो गये थे। इससे मुख फूटे हुए घड़े के मुख के समान विकराल दिखाई देता था। उनकी दोनों ग्राँखें भीतर धंस गई थीं। शारीरिक बल बिलकल शिथिल हो गया था। वे केवल यात्मिक शक्ति से ही चलते थे और खड़े होते थे। इस प्रकार सर्वथा दुर्वल होने के कारण उनके शरीर की यह दशा हो गई थी कि भाषण करने में भी उनकी अतीव खेद प्रतीत होता था, थकावट होती थी। कुछ कहते भी थे तो अत्यन्त कष्ट के साथ / शरीर साधारणतः इस प्रकार खचपचा गया था कि जब वे चलते थे तो अस्थियों में परस्पर रगड़ लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाड़ी के समान शब्द उत्पन्न होने लगता था। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्कन्दक मुनि का शरीर तप के कारण अत्यन्त क्षीण हो गया था, उसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी क्षीण कृश एवं निर्बल हो गया था। किन्तु शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक-दीप्ति बढ़ रही थी। उनकी अवस्था ऐसी हो गई थी जैसे भस्म से पाच्छादित अग्नि होती है। उनका आत्मा तप के तेज से और उत्पन्न कान्ति से अलौकिक सुन्दरता धारण कर रहा था / वे आत्मिक दीप्ति से देदीप्यमान थे। इस सूत्र में 'उन्भडघडमुहे त्ति' पद की व्याख्या वत्तिकार ने इस प्रकार की है-'उद्भटंविकरालं, क्षीणप्राय-दशनच्छदत्वाद् घटकस्येव मुखं यस्य स तथा।' इस कथन से मुख पर मुख-पत्ती बंधी हुई सिद्ध नहीं होती ? ऐसी शंका उपस्थित होती है। समाधान में यह है कि यहाँ पर सूत्रकार का तात्पर्य केवल तप के कारण क्षीण शरीर के वर्णन से ही है, धर्मोपकरणों के वर्णन से नहीं / यदि वे शरीर सम्बन्धी अन्य धर्मोपकरणों का वर्णन करते और मुखवस्त्रिका का न करते तो यह शङ्का उपस्थित हो सकती थी। परन्तु यहाँ तो किसी भी उपकरण का वर्णन नहीं किया गया है / अतः स्पष्ट है कि यहाँ सूत्रकार को उनकी शरीर-निरपेक्ष तीव्रतर तपश्चर्या का और उसके कारण शरीर के अंगोपांगों पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन करना ही अभिप्रेत है। यदि ऐसा न माना जाय तो उनके कटि आदि अङ्गों के वर्णन के साथ चौलपट्ट आदि का भी वर्णन अवश्य मिलता / अतएव मुख अथवा होठों की कृशता आदि के वर्णन से उनके मुख पर मुखवस्त्रिका का अभाव किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134