Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ 26 ] [ अनुत्तरोपपातिकदशा विवेचन-उक्त सूत्र में धन्य कुमार को किस प्रकार वैराग्य उत्पन्न हा, इस विषय का वर्णन किया गया है। जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे तो नगर की परिषद् के साथ धन्य कुमार भी उनके दर्शन करने और उनसे उपदेशामृत पान करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। उपदेश का धन्य कुमार पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल ही सम्पूर्ण सांसारिक भोग-विलासों को ठोकर मार कर अनगार बन गया। ___ इस सूत्र में हमें चार उदाहरण मिलते हैं। उनमें से दो धन्य कुमार के विषय में हैं और शेष दो में से एक जितशत्रु राजा का कोणिक राजा से तथा चौथा दीक्षा-महोत्सव का कृष्ण वासुदेव द्वारा किये हुए थावच्चापुत्र के दीक्षा-महोत्सव से है। ये सब 'औपपातिकसूत्र' 'भगवतीसूत्र' तथा 'ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र' से लिए गए हैं। इन सब का उक्त सूत्रों में विस्तृत वर्णन मिलता है। अतः नयागमों का एक बार अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। ये सब अागम ऐतिहासिक दष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी हैं। यहाँ उक्त वर्णनों को दोहराने की आवश्यकता न जान कर संक्षेप कर दिया गया है। दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने के प्रसंग में ब्रकेट में जो पाठ मूल और अर्थ में दिया गया है वह जमाली के प्रसंग का है, अतएव उनमें 'अम्मापियरों' (माता-पिता) का उस्लेख है किन्तु धन्य कुमार के विषय में यह घटित नहीं होता, अत: यहां केवल माता का ही ग्रहण करना चाहिए / इस प्रकरण में पिता का कहीं उल्लेख नहीं है / पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए। धन्य मुनि की तपश्चर्या ६-तए णं से धणे अणगारे जं चेव दिवसे मुंडे भवित्ता जाव [अगाराओ अणगारिय] पव्वइए, तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे जावज्जीवाए छट्टछट्टणं अणिविखतेणं प्राय बिलपरिग्गहिएणं तबोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरित्तए। छस्स वि य णं पारणय सि करपेइ मे आय बिलं पडिगाहेत्तए नो चेव णं अणाय बिलं / तं पि य संसटुंनो चेव णं असंसद। तं पि य णं उज्झियधम्मियं नो चेव णं अणुज्झिय धम्मियं / तं पि य जं अण्णे बहवे समण-माहण-प्रतिहिकिवण-वणीमगा नावखंति। महासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे छ-तुट्ठ जावज्जीवाए छ8छ?णं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तदनन्तर धन्य अनगार जिस दिन प्रवजित हुए यावत् गृहवास त्याग कर अगेही बने, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया तथा वंदन और नमस्कार करके इस प्रकार बोले भंते ! आप से अनुज्ञात होकर जीवन-पर्यन्त निरन्तर षष्ठ-बेला तप से तथा आयंबिल के पारणे से मैं अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करना चाहता हूँ। षष्ठ तप के पारणा में भी मुझे आयंबिल ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु अनायंबिल ग्रहण करना नहीं कल्पता। वह भी संसृष्ट हाथों आदि से लेना कल्पता है, असंसृष्ट हाथों आदि से लेना नहीं कल्पता। वह भी उज्झित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134