Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 62
________________ तृतीय वर्ग ] [ 26 रहित-भोजन में राग से रहित अर्थात् अनासक्त भाव से इस प्रकार पाहार किया, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करते समय बिल के दोनों पार्श्व भागों को स्पर्श न करके मध्यभाग से हो उस में प्रवेश करता है। अर्थात् धन्य अनगार ने सर्प जैसे सीधा बिल में प्रवेश करता है उस तरह स्वाद की आसक्ति से रहित होकर आहार किया। प्राहार करके संयम और तप से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन---यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार के दृढ प्रतिज्ञा-पालन का वर्णन किया है। प्रतिज्ञा ग्रहण करने के अनन्तर वह जब भिक्षा के लिए नगर में गए तो ऊँच, मध्य और नीच अर्थात् सधन, निर्धन एवं मध्यम घरों में आहार-पानी के लिए अटन करते हुए जहाँ उज्झित आहार मिलता था वहीं से ग्रहण करते थे। उन्हें बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुत्रों से प्राज्ञप्त, उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहाँ भोजन मिला, वहाँ पानी नहीं मिला, तथा जहाँ पानी मिला वहाँ भोजन नहीं मिला। इस पर भी धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि, कलुषता और विषाद अनुभव नहीं करते थे, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास बढ़ाते हुए और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए जो कुछ भी भिक्षावृत्ति में प्राप्त होता था उसको ग्रहण करते थे। इस प्रकार ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहे और उसी के अनुसार प्रात्मा को दृढ और निश्चल बनाकर संयम-मार्ग में प्रसन्न-चित्त होकर विचरते रहे। भिक्षा में उनको जो कुछ भी आहार प्राप्त होता था उसको वे इतनी अनासक्ति से खाते थे जैसे एक सर्प सीधा ही अपने बिल में घुस जाता है अर्थात् वे भोजन को स्वाद लेकर न खाते थे, प्रत्युत संयमनिर्वाह के लिये शरीररक्षा ही उनको अभीष्ट थी। 'बिलमिव पग्णगभूतेणं' शब्द का वृत्तिकार यह अर्थ करते हैं--"यथा. बिले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन संस्पृशन्निव रागविरहितत्वादाहारयति" अर्थात् जैसे सर्प पार्श्वभाग का स्पर्श करके ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार धन्य मुनि बिना किसी आसक्ति के आहार करके संयम के योगों में अपनी आत्मा को दृढ करते थे। इतना ही नहीं बल्कि अप्राप्त ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिये भी सदा प्रयत्नशील रहते थे। ६-तए गं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ कार्यदीपो नयरीनो सहसंबवणामो उउजाणाप्रो पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहार विहरइ। तए णं से धण्णे अणगार समणस्स भगवनो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / अहिज्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं से धण्णे अणगारे तेणं उरालेणं जहा खंदो जाव [विउलेण पयत्तेणं पम्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अटि-चम्मावणद्ध किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था, जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्टइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासिस्सामीति गिलायइ / से जहानामए कटुसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्त-तिल-भंडगसगडिया इ वा एरंडकट्ठसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससदं गच्छद, ससदं चिट्ठइ, एवामेव धणे वि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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