Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय वर्ग] [25 सयमेव जितसतू निक्खमणं करेइ, जहा थावच्चापुत्तस्स कण्हो। तए णं धण्णे दारए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ जाव पवइए। तए णं धण्णे दारए अणगारे जाए ईरियासमिए जाव गुत्तबंभचारी। धन्यकुमार की माता उसके उपयुक्त अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय, अश्रु तपूर्व (जो पहले कभी नहीं सुनी) ऐसी (आघातकारक) वाणी सुनकर, मूछित हो गई। तत्पश्चात् होश में आने पर उनका कथन और प्रतिकथन हुआ। वह रोती हुई, आक्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई और विलाप करती हुई महाबल के कथन के सदृश इस प्रकार कहने लगी-“हे पुत्र ! तू मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मन गमता), आधारभूत, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों की पेटी के तुल्य, रत्न स्वरूप, रत्न तुल्य, जीवित के उच्छवास के समान और हृदय को आनन्ददायक एक ही पुत्र है / उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान तेरा नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो इसमें तो कहना ही क्या ? अतः हे पुत्र! तेरा वियोग मुझसे एक क्षण भी सहन नहीं हो सकता। इसलिए जब तक हम जीवित हैं तब तक घर ही रह कर कुल वंश की अभिवृद्धि कर / जब हम कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ और तुम्हारी उम्र परिपक्व हो जाय तब, कुल वंश को वृद्धि करके तुम निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार धर्म को स्वीकार करना।" तब धन्यकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा- "हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि-हे पुत्र ! तु हमें इष्ट, कान्त, प्रिय आदि है यावत् हमारे कालगत होने पर तू दीक्षा अंगीकार करना इत्यादि / परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य जीवन जन्म, जरा, मरण, रोग, व्याधि, अनेक शारीरिक और मानसिक दुःखों की अत्यन्त वेदना से और सैंकड़ों व्यसनों (कष्टों) से पीडित है। यह अध्र व अनित्य और प्रशाश्वत है / सन्ध्याकालीन रंगों के समान, पानी के परपोटे (बुदबुदे) के समान, कुशाग्र पर रहे हुए जल-बिन्दु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान तथा बिजली की चमक के समान चंचल और अनित्य है / सड़ना, पड़ना, गलना और विनष्ट होना इसका धर्म (स्वभाव) है। पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छोड़ना पड़ता है; तो हे माता-पिता ! इस बात का निर्णय कौन कर सकता है कि हममें से कौन पहले जायगा (मरेगा) और कौन पीछे जायगा? इसलिए हे माता-पिता ! श्राप मुझे आज्ञा दीजिये। आपकी आज्ञा होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" जब धन्यकुमार की माता भद्रा सार्थवाही उसे समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुई, तब उसने धन्यकुमार को प्रव्रज्या लेने की आज्ञा दे दी। जिस प्रकार थावच्चापुत्र की माता ने कृष्ण से छत्र चामरादि की याचना की, उसी प्रकार भद्रा ने भी जितशत्रु राजा से छत्र चामर आदि की याचना की, तब जितशत्रु राजा ने भद्रा सार्थवाही से कहा--'देवानुप्रिए ! तुम निश्चिन्त रहो। मैं स्वयं धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार करूँगा' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने स्वयं ही धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार किया / जिस प्रकार कृष्ण ने थावच्चा-पुत्र का दीक्षामहोत्सव सम्पन्न किया था। ___ तत्पश्चात् धन्यकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रवज्या अंगीकार की। धन्यकुमार भी प्रवजित होकर अनगार हो गया। ईर्या-समिति, भाषा-समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org