Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 57
________________ 24 ] { अनुत्तरोपपातिकदशा भगवान् ने कहा-"देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्म-कार्य में समयमात्र भी प्रमाद मत करो।" जब श्रमण भगवान् महावीर ने धन्यकुमार से पूर्वोक्त प्रकार से कहा तो धन्यकुमार हर्षित और सन्तुष्ट हुना। उसने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया। फिर वह अपने माता-पिता के पास आया और जय-विजय शब्दों से बधाकर इस प्रकार बोला-“हे मातापिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म सुना है। वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर हुआ है। तब माता-पिता ने धन्य कुमार से कहा-वेटा ! तुम धन्य हो, बेटा ! तुम कृतार्थ हो, वेटा ! तुम पुण्यशाली हो, बेटा! तुम सुलक्षण हो कि तुमने भगवान् के मुख से धर्म श्रवण किया और वह धर्म तुम्हें प्रिय, अतिशय प्रिय और रुचिकर लगा। तब धन्य कुमार ने दूसरी और तीसरी भी बार अपने माता-पिता से इसी प्रकार कहा, साथ ही कहा कि- "हे माता-पिता ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हुया हूँ, जन्म, जरा और मरण से भयभीत हुआ हूँ। अतः हे माता-पिता ! मैं आपकी प्राज्ञा होने पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर, गृहवास का त्याग करके अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" प्रव्रज्या-सम्पत्ति ५-तए णं सा धण्णस्स कुमारस्स माया तं अणिट्ठ, अकंतं, अप्पियं प्रमणुण्णं प्रमणाम, असुयपुव्वं गिरं सोच्चा मुच्छिया / वुत्तपडिवुत्तया जहा महब्बले। [रोयमाणी] कंदमाणी, सोयमाणो, विलवमाणो जाव [धणं कुमारं एवं वयासी-तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इ8, कंते, पिए, मणण्णे, मणामे, येज्जे, वेसासिए, सम्मए, बहुमए, अणुनए, भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए, जीवियउस्सासे हिययणंदिजणणे उंबरपुष्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग! पुण पासणयाए ! तं णो खलु जाया! अम्हे इच्छामो तुभं खणमवि विप्पोगं सहितए, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तपो पच्छा अम्हेहि कालगएहि समार्गाह परिणयवये, वढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि णिरत्यक्खे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइहिसि / तए णं धणे कुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहेव णं तं अम्भ-यानो ! जं गं तुम्भे मर्म एवं वयह, तुमं सि गं जाया ! अम्हं एगे पुत्त इ8 कंते चेक, जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्मयानो! माणस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-मरण-रोग-सारीरमाणसपकामदुक्ख-वेयण-बसण-सप्रोवद्दवाभिभूए, अधुवे, अणिइए, प्रसासए संज्झन्भरागसरिसे, जलबुब्बुयसमाणे, कुसग्गजलबिदुसष्णिभे, सुविणगदसणोवमे, विज्जुलयाचंचले, प्रणिच्चे, सडणपडणविद्ध सणधम्मे, पुवि वा पच्छा वा अवस्स विष्पजहियन्वे भविस्सइ, से केस गं जाणइ अम्भया प्रो! के पुदिव गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयानो ! तुउभेहिं अडभणुण्णाए समाणे समणस्स जाव-पव्यइत्तए। तए णं तं धणं कुमारं भद्दा सत्यवाही जाहे जो संचाएइ जाव जियसत्तु आपुच्छइ, इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स दारयस्स णिक्खममाणस्स छत्त-मउड-चामरायो य विदिशाओ। तए णं जियसत्तू राया भदं सत्थवाहि एवं वयासी-अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए ! सुनिवृत्तवीसस्था. अरण सयमेव धण्णस्तदारयस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि। Jain Education International www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only

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