Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 28
________________ पिटक साहित्य में थे राप्रपदान को रचना सबसे बाद की मानी जाती है और अट्ठकथा तो उससे भी बाद की रचना है। अत: अभय का जैनधर्मी होना ही अधिक तर्कसंगत व प्रमाण पुरस्सर है। प्रस्तुत आगम के प्रथम वर्ग के दश अध्ययनों में से सातवां अध्ययन लप्ट दन्त राजकुमार का है और द्वितीय वर्ग में भी तीसरा अध्ययन ल टदन्त राजकुमार का है। दोनों की माता धारिणी और पिता श्रेणिक सम्राट है / इसकी संगति क्या है ? यह अन्वेषणीय है। संभव है लष्टदन्त नाम के दो राजकुमार रहे हों एक प्रथम और एक द्वितीय / महासती मुक्तिप्रभाजो ने टिप्पण में इस सम्बन्ध में विचार किया है। तृतीय वर्ग में धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमात्रिक, पेढालपुत्र, पोटिल्ल, और वेहल्ल इन दश कुमारों का वर्णन है। धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही के पुत्र थे। चारों ओर वैभव अठखेलियाँ कर रहा था। किन्तु भगवान् महावीर के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए पावन प्रवचनों को श्रवण कर संयम के कठोर-मार्ग पर एक वीर सेनानी की भाँति बढ़ते हैं। उनके तपोमय जीवन का अद्भुत वर्णन इसमें किया गया है। धन्य अनगार के तपवर्णन को पढ़कर किस का सिर श्रद्धा से नत नहीं होगा ! मज्झिमनिकाय के महासिंहनाद सुत्त 4 में तथागत बुद्ध ने अपने किसी एक पूर्वभव में इस प्रकार की उत्कृष्ट तपः साधना की थी। बुद्ध ने छह वर्ष तक जो तप तपा था वह भी कुछ इसी तरह से मिलता-जुलता है। कविकुलगुरु कालिदास ने भी कूमारसम्भव में पार्वती के उग्र तप का सजीव वर्णन किया है। उन सभी वर्णनों को पढ़ने के पश्चात जब हम धन्य कुमार के वर्णन को पढ़ते हैं तो ऐसा स्पष्ट लगता है कि धन्य कुमार का वर्णन अधिक सजीव है। उन्होंने जीवन भर छ8-छ8 तप करने की प्रतिज्ञा की थी। पारणे में केवल प्राचाम्ल व्रत के रूप में रूक्ष भोजन ग्रहण करते थे। कोई गृहस्थ जिस अन्न को बाहर फेंकने के लिये प्रस्तुत होता उसे लेकर 21 बार पानी से धोकर वे उसे ग्रहण करते और उसी पानी का उपयोग करते। तप से उन का शरीर अस्थिपंजर हो गया था। देखिये उन के तप का पालंकारिक वर्णन-जिसमें व्यावहारिक उपमानों का प्रयोग हया है और वर्ण्य विषय में सजीवता पा गई है। उनके प्रस्तुत कथन में पर्याप्त यथार्थता के दर्शन होते हैं। 'अक्खसुत्तमाला विव-गणेज्जमाणेहिं पिठि करंडगसंधीहि, गंगात रंगभूएणं उरकड़गदेसभाएणं, सुक्कसप्पसमाणेहिं बाहाहिं, सिढिलकडाली-विव लंनंतेहि य प्रग्नहत्थेहि, कंपमाणवाइए विव वेबमाणीए सीसघडीए''प्रर्थात् तपस्वी धन्य मुनि की पीठ की हडडिया अक्षमाला की भांति एक-एक कर गिनी जा सकती थीं, वक्षःस्थल की हड्डियाँ गंगा की लहरों के समान अलग-अलग दिखलाई पड़ती थीं। भुजायें सूखे हुए सांप की तरह कृश हो गई थीं। हाथ घोड़े के मूह बांधने के तोबरे के समान शिथिल होकर लटक गये थे और सिर वात रोगी के सिर की भांति कांपता रहता था।' इस तरह इसमें अनेक उपमाएं और दृष्टान्त भरे पड़े हैं। कितने ही लोगों का मानना है कि आगम-साहित्य नीरस है। प्रागमों की कथाएं एक सी शैली, वर्ण्यविषय की समानता तथा कल्पना और कलात्मकता के अभाव में पाठकों को मुग्ध नहीं करती हैं। उनमें अतिप्राकृतिक तत्त्वों की भरमार है। पर उनका यह मानना पूर्ण रूप से उचित नहीं है। उसमें प्रांशिक सच्चाई हो सकती है। ऊपर-ऊपर से पागम को पढ़ने के कारण ही उनमें यह धारणा पैदा हुई हो, पर जब हम गहराई में अवगाहन करते हैं तो उन कथाओं से नूतन-नतन तथ्य उद्घाटित होते हैं। भारतीय संस्कृति की संरचना और 'भारतीय प्राच्य विधानों के विकसन में उनका अपूर्व योगदान रहा। आधुनिक कहानियों व उपन्यासों की भांति 83. खुद्दकनिकाय-खण्ड 7, नालन्दा, भिक्ष जगदीश काश्यप 84. बोधिराजकुमार सुत्त, दीघनिकाय कस्सपसिंहनाद सुत्त / 85. कुमारसम्भव सर्ग-पार्वतीप्रकरण / [15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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