Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अमराजकुमार-भन्ते ! मैं रथ का विशेषज्ञ हूं। इसलिये मुझे उसी समय ज्ञात हो जाता है / बुद्ध-राजकुमार ! तथागत को भी उसी क्षण भासित हो जाता है, क्योंकि उनका मन अच्छी तरह से सधा हुया है। अभय-प्राश्चर्य भन्ते ! अदभुत भन्ते / आपने अनेक पर्याय से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं आपकी शरण में प्राता हूं / धर्म और भिक्षु संघ मुझे अंजलिबद्ध शरणागत स्वीकार करें / संयुक्त निकाय में भी अभयकुमार का बुद्ध से साक्षात्कार होने का उल्लेख है। वह बद्ध से पूर्ण-काश्यप की मान्यता से सम्बन्धित एक प्रश्न करता है।७3 धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार अभयकुमार को श्रोतापत्ति फल७४ उस समय प्राप्त होता है जब वह नर्तकी की मृत्यु से खिन्न होकर बुद्ध के पास गया और बुद्ध ने धर्मोपदेश दिया।७५ थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार अभय को श्रोतापत्तिफल उस समय प्राप्त हुया जब तथागत बद्ध ने तालच्छिगुलुपम सुत्त का उपदेश दिया था / 76 वह श्रेणिक बिम्बिसार की मृत्यु से अत्यन्त उदास होकर बद्ध के पास पहुंचा, प्रव्रज्या ग्रहण की और अहत पद प्राप्त किया / 77 भिक्ष बनने के पश्चात् उसने अपनी माता पद्मावती को भी उद्बोधन दिया और उसने भिक्षणी बनकर अर्हत पद प्राप्त किया।७८ जैन और बौद्ध साक्ष्यों के पालोक में यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि अभयकुमार और अभयराजकुमार ये दोनों पृथक-पृथक व्यक्ति रहे होगे क्योंकि जैन दृष्टि से उसकी माता वणिक कन्या है, वह राजा श्रेणिक का प्रधानमंत्री है और महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करता है जबकि बौद्ध दृष्टि से वह एक गणिका का पुत्र है, सफल रथिक है, निगण्ठ धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म को स्वीकार करता है और अन्त में बद्ध के पास भिक्ष बनता है। यदि अभय एक ही व्यक्ति होता तो महावीर और बुद्ध इन दोनों के पास वह किस प्रकार दीक्षा ले सकता था? भव है कि राजा श्रणिक के अनक पुत्र थ उनमें एक का नाम अभय रहा हो और दूसरे का नाम अभयराजकुमार रहा हो। जैन दीक्षा का उल्लेख प्रस्तुत प्रागम में है जिसका रचनाकाल पण्डितप्रवर दलसुख मालवरिगया प्रभति विज्ञों ने विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी माना है।६१ बौद्ध दीक्षा का उल्लेख 'थेरानपदान'८२ व अटठकथा में है। 73. संयुक्तनिकाय, अभय सुत्त 44 / 6 / 6 74. स्रोतापत्ति-धारा में आजाना / निर्वाग के मार्ग में प्रारूढ हो जाना, जहां से गिरने की कोई संभावना न हो। योग-साधना करने वाला भिक्षु जब सत्कायदृष्टि विचिकित्सा और शीलवत परामर्शक, इन तीन बंधनों को तोड़ देता है तब वह स्रोतापन्न कहा जाता है। स्रोतापन्न व्यक्ति अधिक से अधिक सात बार जन्म लेता है, फिर अवश्य ही निर्वाण प्राप्त करता है। 75. धम्मपद-अट्ठकथा 13 / 4 76. थेरगाथा-अट्ठकथा-११५८ 77. (क) थेरगाथा-२६ (ख) थेरगाथा-अट्ठकथा खण्ड 1, पृ. 83-84 78. थेरगाथा-अट्ठकथा 31-32 79. (क) प्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृ. 359 (ख) भगवान महावीर : एक अनुशीलन 8... मनापारिक-१.१० 81. मागमयुग का जैनदान-पृ. 28, प्रकाशक-सासि मानपीट, मागरा 82. थेराप्रपदान : भदियवगो, अभयस्थरप्रपदानं [ ] [ 14 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org