Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 37
________________ 4 // [ अनुत्तरौपपातिकदशा संयम और तप से आत्मा को भावित (वासित) करते हुए विहरण कर रहे थे। आर्य जम्बू काश्यप गोत्रवाले थे। उनका शरीर सात हाथ प्रमाण ऊंचा था, पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो, ऐसे समचतुरस्र संस्थान वाले थे, उनका वजऋषभनाराच' संहनन था, सुवर्ण की रेखा के समान और पद्मराग (कमल-रज) के समान गौर वर्ण वाले थे, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, आत्म-शत्रुओं को विनष्ट करने में निर्भीक, घोर तपस्वी, दारुण-भीषण ब्रह्मचर्य व्रत के पालक, प्राप्त विपुल तेजोलेश्या को अपने ही शरीर में समा लेने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मतिज्ञानादि चार ज्ञानों के धारक, समस्त अक्षरसंयोग के ज्ञाता, उत्कुटुक प्रासन से स्थित, अधोमुखी, धर्म एवं शुक्ल ध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किए हुए, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तत्पश्चात् आर्य जम्बू स्वामी, जातथद्ध जातसंशय जातकौतुहल, संजातश्रद्ध संजातसंशय संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकौतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध समुत्पन्नसंशय और समुत्पन्नकौतूहल होकर अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं, खड़े होकर जहां सुधर्मास्वामी स्थविर विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर उन्होंने श्रीसुधर्मास्वामी को दक्षिण ओर से तीन बार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) को, प्रदक्षिणा करके स्तुति और नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके वे प्रार्य सुधर्मा स्वामी के न अधिक दूर, न अधिक समीप शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सामने बैठे और हाथ जोड़ कर विनय-पूर्वक उनकी उपासना करते हुए इस प्रकार बोले भगवन ! यदि श्र तधर्म की आदि करने वाले, गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में पुंडरीक-श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरुषों में गंधहस्ती के समान, अर्थात जैसे गंधहस्ती की गंध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता, श्रद्वारूप नेत्र के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथि, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, घातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रोगादि को जीतने वाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जिताने वाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं बोधप्राप्त और दूसरों को वोध देने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-उपद्रवरहित, अचल-चलन आदि क्रिया से रहित, अरुज-शारीरिक मानसिक व्याधि की वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध और अपुनरावत्ति-पुनरागमन से रहित सिद्धि गति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आठवें अंग अन्तकृत्दशा का यह अर्थ कहा है, तो भन्ते ! नवमे अङ्ग अनुत्तरौपपातिकदशा का भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? विवेचन-ग्यारह अंगों में अन्तकृत् सूत्र पाठवाँ और अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र नौवां अंग है। अंतकृतसूत्र के पश्चात् अनुत्तरौपपातिक सूत्र का क्रम इसलिए है कि दोनों सूत्रों में महापुरुषों के जीवन का, उनके वैभव-विलास, भोग और तप-त्याग का सुन्दर वर्णन किया गया है। अन्तर इतना ही है 1. संहनन छ. होते हैं / यह संहनन सबसे अधिक बलवान् होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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