Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ के रूप में व्याख्यात किया है, जिसमें मागधी में प्रयुक्त होने वाले ल और स का कहीं-कहीं प्रयोग तथा प्राकृत का अधिकांशतः प्रयोग था / ' व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में भी उन्होंने इसी प्रकार उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में कुछ मागधी के तथा कुछ प्राकृत के लक्षण पाये जाते हैं। आचार्य अभयदेव ने प्राकृत का यहाँ सम्भवतः शौरसेनी के लिए प्रयोग किया है / उनके समय में शौरसेनी प्राकृत का अधिक प्रचलन रहा हो। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण में अर्द्धमागधी को आर्ष [ऋषियों की भाषा कहा है। उन्होंने लिखा है कि पार्षभाषा पर व्याकरण के सब नियम लागू नहीं होते, क्योंकि उसमें बहुत से विकल्प हैं / इसका तात्पर्य यह हुआ कि अर्द्धमागधी में दूसरी प्राकृतों का भी मिश्रण है। एक दूसरे प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि वह शौरसेनी के बहुत निकट है अर्थात् उसमें शौरसेनी के बहुत लक्षण प्राप्त होते हैं। इसका भी यही आशय है कि बहुत से लक्षण शौरसेनी के तथा कुछ लक्षण मागधी के मिलने से यह अर्द्धमागधी कहलाई। क्रमदीश्वर ने ऐसा उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण है / इसका भी ऐसा ही फलित निकलता है कि अर्द्धमागधी में मागधी के अतिरिक्त शौरसेनी का भी मिश्रण रहा है और महाराष्ट्री का भी रहा है। निशीथणि में अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख है कि वह मगध के आधे भाग में बोली जाने वाली भाषा थी तथा उसमें अट्ठाईस देशी भाषाओं का मिश्रण था / इन वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्द्धमागधी उस समय प्राकृत-क्षेत्र की सम्पर्क-भाषा (Lingua-Franca) के रूप में प्रयुक्त थी, जो बाद में भी कुछ शताब्दियों तक चलती रही। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक के अभिलेखों की मूल भाषा यही थी, जिसको स्थानीय रूपों में रूपान्तरित किया गया था। भगवान् महावीर ने अपने उपदेश का माध्यम ऐसी ही भाषा को लिया, जिस तक जनसाधारण की सीधी पहुँच हो / अर्द्धमागधी में यह वात थी। प्राकृतभाषी क्षेत्रों के बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ, शिक्षित, अशिक्षित-सभी उसे समझ सकते थे। 1. अद्धमागहाए भासाए त्ति रसोर्लशौ मागध्यामित्यादि यन्मागधभाषालक्षणं तेनापरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्द्धमागधीत्युच्यते। -उववाई सुत्र सटीक पृष्ठ 224-25 / (श्रीयुक्त राय धनपतिसिंह बहादुर प्रागम संग्रह जैन बुक सोसायटी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित) 2. आर्ष--ऋषीणामिदमार्षम् / आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति / तदपि यथास्थान दर्शयिष्यामः / आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते / / ---सिद्धहेम शब्दानुशासन 8.1.31 3. भाषाविज्ञान : डॉ. भोलानाथ तिवारी पृष्ठ 178 / (प्रकाशक--किताब महल, इलाहाबाद. 1961 ई.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org