Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 908
________________ GG वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. सामस्त्येन स्वव्याद्यपेक्ष्या विवदितत्वात्स्यादस्तिचावक्तव्यं चेति।तथैकांशस्य परव्याद्य पेक्ष्या स्यान्नास्ति चावक्तव्यं चेति तथैकस्यांशस्य स्वश्व्याद्यपेक्ष्या परस्य तु परडव्याद्यपे दयाऽन्यस्य तु योगपद्येन स्वपरव्याद्यपेक्ष्या विवक्षितत्वात्स्यादस्तिच नास्तिचाऽवक्तव्यं श्यं च सप्तनंगी यथायोगमुत्तरत्रापि योजनीयेति ॥ १० ॥ ११ ॥ पनि लोए अलोएवा, णेवं सन्नं निवेसए॥ अनि लोए अ लोएवा, एवं सन्नं निवेसए॥१२॥ पनि जीवा अजीवावा, एवं सन्नं निवेसए॥ अनि जीवा अजीवावा, एवं सन्नं निवे सए॥१३॥ पबि धम्मे अधम्मेवा, येवं सन्नं निवेसए ॥ अनि धम्मे अधम्मेवा, एवं सन्नं निवेसए ॥१४॥ अर्थ-हवे सर्वशून्यवादीना मतनुं निराकरण करवाने अर्थे,लोक अनें अलोकनुं यस्ति पणुं देखाडे, (बिलोएथलोएवा के०) चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवो जे लोक,अथवा पंचा स्तिकायरूप एवो जे लोक, ते नथी,एवी संज्ञा न करवी,तथा आकाशास्तिकाय रूप एवो जे अलोक,ते पण नथी,ते एवी संज्ञा पण न करवी. केमके ए नास्तिकवादीनो मतले. हवे केवी संज्ञा करवी? ते कहेले पंचास्तिकायरूप लोक ते पण ,तथा बाकाशास्तिकाय रूपथ लोक ते पण, एवी संझा करवी. ए केवलीनो मतले॥१॥हवे लोकालोकनु अस्तिपणुं देखाडीने तेना विशेषनूत जीव अनें अजीव तेनो अस्तिनाव देखाडेले. जीव ते, उपयोग लक्षण संसारीक, अथवा मुक्तिगत,ए पण नथी. तथा यजीव ते धर्म, अधर्म, आकाश, पु जल,अनें कालात्मक ए पण नथी.एवी संझा पण न करवी केमके,ए नास्तिकवादीनो मत त्यारें केवी संझा करवी? तोके, जीव पण,धने अजीव पण.एवी संझा करवी.ए केवली नगवंतनो मतले ॥१३॥ हवे एवा जीवनो अस्तिनाव देखाडीने तेने सदसत् क्रिया अनु टानने विषेधर्म, अनें अधर्म कारण,ते माटे हवे तेनो अस्तिनाव कहेले. श्रुतचारित्ररूप जे धर्म, ते कर्मक्ष्यनो कारणरूपले. ते पण नथी, तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, क पाय, अने योगरूप जे अधर्मले, ते कर्मबंधनो कारणरूपले, ते पण नथी, एवी संज्ञा पण न करवी. परंतु धर्म पण, अनें अधर्म पण, एवी संज्ञा करवी ॥ १५ ॥ __॥ दीपिका-(प बिलोएइत्यादि ) शून्यवादिमतानिप्रायेण नास्ति लोकः थलोकोपि नास्तीति संज्ञां नो निवेशयेन्न स्थापयेत् थस्ति लोकः पंचास्तिकायात्मकःयस्ति वाऽलो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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