Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ किया । क्रमशः चलते हुए विजयार्ध पर्वतकी उपत्यकामे पहुँचे। यहाँ वे अपनी समस्त सेना ठहराकर निश्चिन्त हुए। पता चलनेपर विजयार्धदेव अपने समस्त परिकरके साथ इनके पास आया और उनका आज्ञाकारी हुआ विजयार्थको जीत लेनेसे इनकी दिग्विजयका अर्थभाग पूर्ण हो गया। अनन्तर उन्होंने उत्तरभारतमें प्रवेश करने के अभिप्रायसे दण्डर द्वारा विजयार्थ पर्वतके गुहाद्वार का उद्घाटन किया । आदिपुराणम् त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व दिग्विजय करनेके बाद चक्रवर्ती सेनासहित अपनी नगरीके प्रति वापस लौटे मार्गमें अनेक देशों, नदियों और पर्वतोंको उल्लंघित करते हुए कैलास पर्वतके समीप आये वहाँसे श्री ऋषभ जिनेन्द्रकी पूजा करनेके लिए कैलास पर्वतपर गये अनेक राजा पृष्ठ ९६-१११ द्वात्रिंशत्तम पर्व गरमी शान्त होनेपर उन्होंने गुहाके मध्य में प्रवेश किया। काकिणी रत्नके द्वारा मार्गमें प्रकाश होता जाता था । बीचमें उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामकी नदियाँ मिलीं, उनके तटपर सेनाका विश्राम हुआ स्थपतिरत्नने अपने बुद्धि-बल से पुल तैयार किया जिससे समस्त सेना उस पार हुई गुहागर्भसे निकलकर सेनासहित भरत उत्तर भरतक्षेत्र में पहुँचे। चिलात और आवर्त नामके राजा बहुत कुपित हुए वे परस्पर में मिलकर चक्रवर्तीसे युद्ध करने के लिए उद्यत हुए । नाग जातिके देवोंकी सहायता से उन दोनोंने चक्रवर्तीकी सेनापर पनघोर वर्षा की जिससे ७ दिन तक चक्रवर्तीकी सेना चर्मरत्नके बीचमें नियन्त्रित रही । अनन्तर जयकुमारके आग्नेय वाणसे नाग जातिके देव भाग बड़े हुए और सब उपद्रव शान्त हुआ । चिलात और आवर्त दोनों ही म्लेच्छ राजा निरुपाय होकर शरण में आये । क्रमशः भरतने उत्तरभरत के समक्ष म्लेच्छ खण्डोंपर विजय प्राप्त की । ११२-१३० 1 उनके साथ थे । पुरोहितके द्वारा कैलास पर्वतका वर्णन | १३१-१३६ समवशरणका संक्षिप्त वर्णन । समवसरण में स्थित श्री ऋषभ जिनेन्द्रका वर्णन सम्राट के द्वारा भगवान्की स्तुतिका वर्णन | १३७-१५० चतुस्त्रिंशत्तम पर्व कैलास से उतरकर अयोध्या नगरीकी ओर प्रस्थान | चक्ररत्न अयोध्या नगरीके द्वारपर आकर रुक गया, जिससे सबको आश्चर्य हुआ । चक्रवर्ती स्वयं सोच-विचार में पड़ गये निमित्तज्ञानी पुरोहितने बतलाया कि अभी आपके भाइयोंको वा करना बाकी है । पुरोहितकी सम्मति के अनुसार राजदूत भाइयोंके पास भेजे गये। उन्होंने भरतको आज्ञामें रहना स्वीकार नहीं किया और श्री ऋषभनाथ स्वामीके पास जाकर दीक्षा ले ली । T पञ्चत्रिंशत्तम पर्व सब भाई तो दीक्षित हो चुके, परन्तु बाहुबली राजदूतको बात सुनकर शुभित हो उठे। उन्होंने कहा कि जब पिताजीने सबको समान रूपसे राजपद दिया है, तब एक सम्राट् हो और दूसरा उसके अधीन रहे यह सम्भव नहीं । उन्होंने दूतको फटकारकर वापस कर दिया, अन्तमें दोनों ओरसे युद्ध की तैयारियाँ हुईं। पृष्ठ १५१-१७१ 1 पत्रिंशत्तम पर्व युद्धके लिए इस ओरसे भरतकी सेना आगे बढ़ी और उस ओरसे बाहुबलीकी सेना आगे आयी। बुद्धिमान् मस्त्रियोंने विचार किया कि इस भाई-भाईकी लड़ाई में सेनाका व्यर्थ ही संहार होगा । इसलिए अच्छा हो कि स्वयं ये दोनों भाई ही लड़ें। सबने मिलकर नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध ये तीन युद्ध निश्चित किये तीनों ही युद्धोंमें जब बाहुबली विजयी हुए तब भरतने कुपित होकर चक्ररत्न चला दिया, परन्तु उससे बाहुबलीकी कुछ भी हानि नहीं हुई। बाहु बली चक्रवर्तीके इस व्यवहारसे बहुत ही विरक्त हुए और जंगलमें जाकर उन्होंने १७२-१९९

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