Book Title: Adi Puran Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ षड्विंशतितम पर्व चक्रवर्ती भरतने विधिपूर्वक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर पुत्रोत्पत्तिका उत्सव मनाया। नगरीकी सजावट की गयी। अनन्तर दिग्विजयके लिए उद्यत हुए । उस समय शरद् ऋतुका विस्तृत वर्णन । दिग्विजयके लिए उद्यत चक्रवर्तीका वर्णन । तत्कालोचित सेनाकी शोभाका वर्णन । पूर्व दिशामें प्रयाणका वर्णन । गंगाका वर्णन । १-१७ सप्तविंशतितम पर्व सारथी-द्वारा गंगा तथा वनकी शोभाका वर्णन । हाथी तथा घोड़ा आदि सेनाके अंगोंका वर्णन। १८-३२ __ अष्टाविंशतितम पर्व दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही दिग्विजयके लिए आगे प्रयाण किया। चक्ररत्न उनके आगे-आगे चल रहा था। तात्कालिक सेनाकी शोभाका वर्णन । क्रमशः चलकर वे गंगाद्वारपर पहुँचे । वहाँ वे उपसमुद्रको देखते हुए स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके उपवनमें प्रविष्ट हुए । वहीं सेनाको ठहराया । अनन्तर समुद्रके किनारेपर पहुँचे, वहाँ समुद्रका विस्तृत वर्णन । ३३.४४ भरत चक्रधर लवणसमुद्र में स्थलकी तरह वेगसे आगे बढ़ गये। बारह योजन आगे चलकर उन्होंने अपने नामसे चिह्नित एक बाण छोड़ा, जो कि मागध देवकी सभामें पहुँचा। पहले तो मागधदेव बहुत बिगड़ा पर बादमें बाणपर चक्रवर्तीका नाम देख गर्वरहित हुआ तथा, हार, सिंहासन और कुण्डल साथ लेकर चक्रवर्तीके स्वागतके लिए पहुँचा। चक्रवर्ती उसकी विनयसे बहुत प्रसन्न हुए। ४५-५.० समुद्रका विविध छन्दों-द्वारा विस्तृत वर्णन। अन्तमें कवि-द्वारा पुण्यका माहात्म्य वर्णन । ५१-६१ एकोनत्रिंशत्तम पर्व अनन्तर चक्रवर्ती दक्षिण दिशाकी ओर आगे बढ़े। मार्गमे अनेक राजाओंको वश करते जाते थे। बीचमें मिलनेवाले विविध देशों, नदियों और पर्वतोंका वर्णन । ६२.७१ दक्षिण समुद्रके तटपर चक्रवर्तीने अपनी समस्त सेना ठहरायो। वहाँकी प्राकृतिक शोभाका वर्णन । चक्रवर्तीने रथके द्वारा दक्षिण समुद्र में प्रवेश कर वहाँके अधिपति व्यन्तरदेवको जीता। ७२-८० त्रिंशत्तम पर्व सम्राट् भरत दक्षिण दिशाको विजय कर पश्चिमको ओर बढ़े। वहाँ विविध वनों, पर्वतों और नदियोंकी प्राकृतिक सुषमा देखते हुए वे बहुत ही प्रसन्न हुए। क्रमशः वे विन्ध्य गिरिपर पहुँचे। उसकी बिखरी हुई शोभा देखकर उनका चित्त बहुत ही प्रसन्न हुआ । वहीं उन्होंने अपनी सेना ठहरायी। अनेक वनोंके स्वामी उनके पास तरह-तरहकी भेंट लेकर मिलनेके लिए आये। भरतने सबका यथोचित सन्मान किया। समुद्रके किनारे-किनारे जाकर वे पश्चिम लवणसमुद्रके तटपर पहुँचे। वहां उन्होंने दिव्य शस्त्र धारण कर पश्चिम समुद्रमें बारह योजन प्रवेश किया और व्यन्तराधिपति प्रभास नामक देवको वशमें किया। पुण्यके प्रभावसे क्या नहीं होता? .८१-९५ एकत्रिंशत्तम पर्व अनन्तर अठारह करोड़ घोड़ोंके अधिपति भरत चक्रधरने उत्तरकी ओर प्रस्थान

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