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आचा०
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साता के असातारुप छे, ते वातने नैयायिक तथा वैशेषिक मतवाळा आत्माथी भिन्न गुण भूत संवेदनं एकार्थपणुं समवायिज्ञान वडे माने छे, ते तमे मानो छो, के आत्मा सथे एकपणे मानो छो ? तेनो उत्तर सूत्रकार आपे छे,
जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया, जेण त्रियाणइ से अया, तं पडुच्च पडि
संखाए, एस आयावाई समियाए परियाए त्रियाहिए तिवेमि (सू० १६५ ) ॥ ५५ ॥
आत्मा नित्य उपयोग लक्षणवाळो छे. तेज विज्ञाता छे, पण ते आत्माथी पदार्थनो अनुभव करावनार ज्ञान जुदुं नथी अने जे विज्ञाता छे, ते पदार्थनो परिछेदक उपयोग ते पण आ आत्माज छे. कारण के जीवनुं लक्षण उपयोग छे अने उपयोग ते ज्ञानस्वरुप छे, ज्ञान अने आत्माने अभेदपणे मानवाथी बौद्धमतने अनुकुल ज्ञानज एकलुं सिद्ध थशे, एम तमने शंका थाय तो जैनाचार्य कहे छे, के तेम नथी, भेदनो अभाव फक्त अमे अहीं बताव्यो, पण एकता कही नथी, जो एम मानता हो के ज्यां भेदनो अभाव तेज अक्यता छे, तो ते मानवु फक्त वार्तामात्र छे; कारण के 'घोळं वस्त्र' तेमां घोळं तथा पट ए बन्नेमां भेदनो अभाव होवाछतां एकतानी प्राप्ति नथी, एमां पण शुक्ल पणाना व्यतिरेकवडे बीजो कोइपण पट [ख] नथी, एम मानो तो ते अशिक्षित (मुर्ख) नो उल्लाप छे, कारण के तमारा कहेवा प्रमाणे मानतां शुक्ल (घोळा) गुणनो अभाव थतां सर्वथा पटनो अभाव थवा जशे.
वादी - त्यारे एम मानतां आत्मा विनष्ट थयो ?
जैनाचार्य - थवा दो ! अमारी कई हानि नथी, कारण के अनंत धर्मवाळी वस्तुनो अपर (बीजो) मृदु विगेरे धर्मनो सद्भाव
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सूत्रम्
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