Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 169
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1186611 www.kobatirth.org सामि, से अहे णिज्जं वत्थं जाइजा अंहापरिरंगहियं वत्थं धारिजा जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नं वत्थं परिविज्जा २ ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे जात्र समत्तमेव समभिजाणिया (सु० २१८ ) जनकल्पी विगेरे जे साधुने एवो अभिग्रह होय के मारे एक वस्त्र धारण करवु अने बीजुं पात्र राखवुं तेवा उत्तम साधुने मनमां एम न आवे, के बीजुं वस्त्र याचं. ते पोताने जरुर पडतां फक्त ठन्डी ऋतुमां एकज निर्दोष वस्त्र याची लावे, अने विधि प्रमणे लावी पहेरे, पण ज्यारे उनाळो आवे, त्यारे जुनुं वस्त्र जीर्ण थवाथी तेने परठवी दे, पण बीजा शोयाळामां चाले तेनुं होय तो पोते ते एक साटक (चादर) ने धारण करे, अने जीर्ण वस्त्र परब्बी दीधुं होय, तो पोते वस्त्र रहित थइनें विचरे, ते स्थिर मतिवाळा साधुआ लाघवपणुं आगम अनुसारे होवाथी सम्यक्त्व अथवा सर्व प्राणी उपर समभावपणुं के रागद्वेष रहित पशुं जाण | तथा ते साधुने लघुता होवाथी तेने एकत्व भावनानो अध्यवसाय थाय ते बतावे छे. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - एगे अहमंमि न मे अत्थि कोइ न याहमत्रि, कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं सममिजाणिजा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जात्र समभिजाणिया (सू० २१९ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७४॥

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