Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020011/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रखें अने श्री श्रुतकेवलीभद्रवाहुरचित नियुक्तिसहित ) ॥ आचाराङ्गसत्रम् ॥ भाग चोथो ॥ (मूळ अने शीलाडाचायें रचेली टीकाना भाषांतरसहित) 09890998 जामनगरनिवासी स्व. पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मार्थे छपावी प्रसिद्ध करनार-पण्डित हीरालाल हंसराज-(जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु. २-८-० श्रीजैनभास्करोदय प्रिन्टिंग प्रेसमा छाप्यु-जामनगर. पति २०० DEOB000000000000EDED For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ६०९॥ www.kobatirth.org ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥श्रीआचाराङ्गसूत्रम्॥ ( मुळ अने शिलाङ्काचायें रचेली टीकानुं भाषांतर) भाग चोथो छपावी प्रसिद्ध करनार - पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांचो उद्देशो कहे छे. पांचमा उद्देशानो चोथा साथे आ प्रमाणे संबन्ध छे के, चोथामां क केः - अगीतार्थ अपाकव वयनो साधु एकलो विचरतां दुःख पामे छे, तेथी ते दुःखो दूर करवा इच्छता साधुए हमेशां आचार्यनी सेवामां रहे तथा, ते आचार्ये पण हृदनी उपमावाळा धनुं; अने तेमनी साथे बीजा साधुए रही तप-संयमथी युक्त बनीने निःसंगपणे विचर. [ए पांचमां उद्देशामां छे,] आवा संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ६०९ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम् ॥६१०॥ www.kobatirth or से बेमि तंजहा-अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्ठइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से आचाहा चिट्टइ सोयमज्झगए से पास सबओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिवयंति, तिबेमि (सू० ५६०) ॥६१०॥ से (जेवा) गुणवाळो आचार्य होय; ते हुं तमने तीर्थकरना उपदेशना अनुसारे कहुं हुं. ते आ प्रमाणे छे:-(वाक्य स्थापना H'तथा' वपराय छे. तथा, अपि शब्द भांगाना समुच्चय माटे वपराय छे.) हुद (होद-कुंड) नुं वर्णन. तेना चार भांगा नीचे मुजब छे. (१) ते होदमां धीरे धीरे पाणी नीकळतुं होय अने पाई बीजी वाजुथी भरातुं होय ते । सीता तथा सीतोदा नदीना प्रवाहना कुंड जे, छे. (२) बीजो कुंड ते पाणी नीकळे खरं; पण पार्छ बीजु म आवे ते पद्मद्रह | ६ जेवू छे. (३) तथा त्रीजो पाणी नीकळे नहीं पण आवे खलं ते लवण समुद्र जेबो छे, (४) जेमां पाणी आवे पण नहीं अने नीकळे पण नहीं, ते, मनुष्य लोकनी बहारना समुद्र माफक छे, तेज प्रमाणे आचार्य पोते श्रुतने अंगीकार करीने बीजाने भणावे छे, तेथी ते पहेला भागमां आवे छे, तथा क्रोधना कारणे बीजा भांगामां आवे छे, एटले कषायना उदयमा ग्रहणनो अभाव छे तेथी तप तथा कायोत्सर्ग विगेरेथी क्षपणना उपपत्तिनुं कारण छे, आलोचनाने अंगीकार करवाथी त्रीजो भांगो लागु पडे, आलोचनाना & कारणे कोइने संभळावी शके नहीं, कुमार्गमां पडेलो चोथा भांगामां छे कारण के तेने प्रवेशनिर्गमननो अभाव छ, अथवा धर्मि 2-01-2-Reas For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie BAR सूत्रम् ॥६११० 1 भेदथी भेदो योजाय छे, स्थविर कल्पिाचार्यो प्रथम भंगमां छे, बीजा भांगामां तीर्थकरो छे, त्रीजा भांगामां अहालंदिक छे तेमने ४ आचा० ल कोइ वखत अर्थनी प्राप्ति थइ न होय, त्यारे आचार्य विगेरे पासेथी तेमने तेना निर्णयनो सद्भाव छे, अने प्रत्येक बुद्धोने उभय ॥६११॥ [लेQ आपq ने भणबु भणाववं] तेनो निषेध होवाथी तेओ चोथा भांगामां छे, पण आ जग्याए प्रथम भंगमां आवेला ने भणचा 8 भणाववानो सद्भाव होवाथी तेनो अधिकार छे, अने तेवा हृदरुप आचार्यनोज अहीं दृष्टांत छे, अने ते हृद निर्मल जलनो भरेलो & तथा सर्व ऋतुमा जन्मनारा [उत्पन्न थनारां] कमळोथी शोभायमान छे, समभूभागमा रहेल पाणीनुं नीकळवू अने आव, नित्यजट Pथाय छे, पण कोइ दहाडो सुकातो नथी, अने सुखेथी तेमा तरवार्नु तथा नीकळवानुं बनी शके तेवो छे, तथा उपशांत ते रज विगेरे जे पाणीने कालु बनावे ते जेमांथी दर थयेल छे, तथा जुदी जुदी जातना जळचर जीवोना समूहने बचावतो अथवा जळचर जीवोबडे पोतानी रक्षा करतो रहेल छे, आ आपणी चालु क्रिया दृष्टांतमा लेवानी एटले आ हृद जेबा आचार्य छे, ते प्रथम भांगाना द लेवा, पांच प्रकारना आचार युक्त छे. अने आचार्यनी आठ प्रकारनी संपदाथी जोडायेलो छे, ते बतावे छे. आयार सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई । एए सुसंपया खलु अहमिआ संगहपरिन्ना ॥१॥ आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति, अने आठमी संग्रह-परिज्ञा छे. अर्थात् आचारमा सारो, सिद्धांतनुं 18/ पूर्वापरतुं ज्ञान, शरीर सुंदर, वचन माननीय होय; वाचना आपत्रामा होशीयार होय; बुद्धि तीक्ष्ण होय; प्रयोगमतिवाळो, तथा 8 ला साधु-समुदायने योग्य उपकारण विगेरेनो संग्रह करनारो होय. SSACRECACAS A AES For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६१२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा, छत्रीस प्रकारना गुणोना समुदायने धारनारो कुंडनी माफक निर्मळ ज्ञाने भरेलो समान-भूभाग एटले, संसक्त विगेरे (रागद्वेष)-दोपथी अदोषित, अथवा सुखविहारनां क्षेत्रमां मध्यस्थ रहे; तथा, ज्ञानदर्शन- चारित्र नामनो मोक्षमार्ग उपशमवाळा साधुओनो छे, तेमां रहे छे. समता धारे, केवो बनीने ? उपशांत थइ छे रजरूप मोहनीकर्म जेने, शुं करतो? जीवनीकायनी पोते रक्षा करतो बीजाने सारो उपदेश देवावडे रक्षा करावतो; अथवा नरकपात अटकावी वचाववाथी परनो रक्षक बने छे. 'स्रोतो मध्य गतः' आथी प्रथम भांगामां आवेला स्थविर आचार्यने कहे छे, तेने श्रुतअर्थना दान ग्रहणनो सद्भाव छे, तेथी स्रोत मध्यगतपं छे ते आचाय केवा होय? ते कहे छे:- ते आचार्य क्षोभायमान न थायः तेवा हृद जेवा बधी रीते इन्द्रियो तथा मनने वश राखनारा गुतिए गुप्त छे तेने तुं जो, (आबुं शिष्यने गुरु कहे छे.) तथा आचार्य शिवाय पण, एवा बीजा बहु साधुओ संभवे छे. एवं बताववा कहे छे : - आ मनुष्य लोकमां पूर्वे बतावेला स्वरूप - (गुणो) वाळा महर्षिओ [मोटा मुनिओ ] छे तेमने तुं जो ते महर्षिओ केवा छे? ते कहे छे:- फक्त आचार्योज हृद जेवा छे. एटलुंज नहि; पण, बीजा साधुभो पण तेवा हृद जेवा छे. प्रकर्षथी जणाय ते प्रज्ञान. पोतानुं तथा परनुं स्वरुप चतावनार ते आगम छे, तेने भणेला अर्थात् आगमना जाण ( गीतार्थ ) होय; कदाच, तेव जाणनारा छे छतां, मोहना उदयथी कोइ वखत हेतु उदाहरणना असंभवमां, अने ज्ञेयना गहनपणाथी संशयमां पडेला सम्यगश्रद्धानने न माननारा पण होय; तेथी, खुलासों करे छे के, 'प्रबुद्धा' प्रकर्षथी जेम, तीर्थकर कहे तेज तत्र पोते समजेला होय; | अने तेत्रा छतां भारी कर्मने लीधे सावध - अनुष्ठानने छोडनारा न होय; ( चारित्र न पाळे ) तेथी खुलासा करे छे के, 'आरंभ परताः' ते सावययोगथी दूर रहेला महर्षिओ छे. अमारा उपरोध ( शरमथी ) ग्रहण न कर; पण तमारे तमारी निर्मळ बुद्धिवडे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।६१२ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाचा ॥६१३॥ www.kabatirth.org विचारीने जोवा, ते बतावे छे, आ जे में कह्य; ते तमे (हे शिष्यो!) पण, मध्यस्थता धारण करीने समर्यादने जुओ; वळी आ | पण जुओ. काळ ते, समाधि-मरण छे. तेनी अभिकांक्षावडे साधुओ मोक्षमार्गवाळा संयममां बधी प्रकारे वर्ते छे. आ प्रमाणे हुं सूत्रम् कहुं छं. इति ब्रर्ब मि शब्द, प्रकरण, उद्देशो, अध्ययन, श्रुतस्कंध के, परिसमाप्तिमां आवे छे, तेमां, अहीं अधिकारनी समाप्तिमा ॥१३॥ जाणवो, आचार्यनो अधिकार कटा पछी विनेय (शिष्य) नो अधिकार कहे छे: वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अनुगच्छंति, अणुगच्छ माणेहिं अणणुगच्छमाणेकहनिविजे ? (सू० १६१) विचिकित्सा ते, चित्तनो विप्लव छे, आम पण छे. एका प्रकारना संकल्पो ते, युक्तिथी उत्पन्न यता अर्थमां मोहना उदयथी ४ मतिनो विभ्रम थाय छे. ते आ प्रमाणेः-आ महान् तपनो कलेश रेतीना कोळीया खावा जेवु निःस्वाद छे, ते करवाथी तेनुं फळ8 मळशे के नहि? कारण के, खेती करनार विगेरेने महेनत करवा छतां, फळ मळे छे के, नथी पण मळ्तुं ? आत्री मति मिथ्यात्वनो ४ अंश उदयमां आववाथी तथा, ज्ञेयने जाणवू गहन छे तेथी थाय छे, ते ज्ञेयने बतावे हे. अर्थ त्रण प्रकारनो छे. (१) सुखथी समजाय दुःखथी समजाय; अने बीलकुल न समजाय. - त्रणे सांभळनारना आधार | ४. उपर भेद छे, तेमां सुखाधिगम बतावे छे. जेमके-चक्षुवालो होय; अने चित्रकलामां निपुण होय; तेने रुपप्रसिद्धि (चित्र करवू) & सुलभ छे, अने अनिपुणने दुःखेथी चीतराय; पण आंधळाथी तो, बीलकुल देखायाविना न चीतराय; तेमां अनधिगम रुप तो, अब-RI For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६१४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तुज छे, अने सुखाधिगम पण शंकानो विषय न थाय, पण जे देशका स्वभावथी विप्रकृष्ट होय; तेमांज शंका थाय, ते धर्मअधर्म, आकाश विगेरेमां जे विचिकित्सा थाय ते जाणवी; अथवा 'विइगिच्छति' विद्वाननी जुगुप्सा एटले, विद्वानो ते साधुओ छे. जेमणे संसारनो स्वभाव जाण्यो छे, अने समस्त संगनो त्याग कर्यो छे, तेओनी जुगुप्सा ( निंदा) करे छे. कारणके, तेओ स्नान करतानथी; तथा, परसेवाना मेलथी गंधातां शरीरवाळा छे. तेओने निंदे छे, 'निंदनारा कहे छे के,' जो, अचित्त पाणीथी स्नान करे; तो, शुं दोष छे ? आ जुगुप्सा छे, ते जुगुप्साने अथवा, विचिकित्साने प्राप्त करेला आत्मावाळो (शंकावालो) चित्तनी समाधि अथवा ज्ञानदर्शन चारित्ररुप समाधिने पामतो नथी, कारण के विचिकित्साथी मलीन चित्तवाळाने आचार्य कहे तोपण सम्यक्त्व नामनी बोधि [भगवानना वचन उपर आस्था ] मेळवतो नथी; अने जे बोधि मेळवे छे, ते गृहस्थ अथवा साधु होय, ते बतावे छे, 'सितांः ' पुत्र स्त्री विगेरेमां रागी बनेला होय, अथवा लघुकर्मवाळा सम्यक्त्वने पमाडनार आचार्यने अनुसरे छे. अर्थात् | आचार्यनुं कहेलं माने छे ते प्रमाणे केटलाक गृहवास छोडेला साधुओ शंका विगेरेथी रहित बनी आचार्यना मार्गने अनुसरे छे. तेमनामां पण जो कोइ कोरड माफक होय, ते पण तेवा बीजा उत्तम मार्गने अनुसरनारा साधुने जोइ ते आ कोरड जेवो पण तेनां अशुभ कर्म ओछां थतांते पण सम्यक्त्व पाये, ते बतावे छे. आचार्यनुं कहेलुं सम्यक्त्व माननार श्रावकोथी परिचयमां आवतो | अथवा प्रेरणा करातो न माने, तो पछी केवी रीते निर्वेद न पाये ? अर्थात् खराब कृत्यनी मिथ्यात्वादि रूप विचिकित्साने छोडीने | ते पण सम्यक्त्व पामे; अथवा साधु श्रावक जेओ संसारमां रक्त अथवा विरक्त होय; तेओ आचार्यनुं कहेलुं समजे; तो, कोइ अज्ञानना उदयथी मंद बुद्धि होवाथी तपस्वी साधु घणा वर्षनो दीक्षित होय; ते जो, न समजे; तो, केम खेद न पाये ? (कदाच ) तप For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६१४॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥१॥ ॥६१५॥ www.kebatirth.org अने संयमनो निर्वेद न होय; अने अनिर्वेदी होय; तो आवीपण भावना भावे. जेमके-जो, हुं भव्य नही होउं तो, मने संयमभाव ४ पण नथी. के, प्रकट-(खुल्लु करीने) गुरु कहे छे तोपण, हुं समजतो नथी. आ प्रमाणे खेद पामताने आचार्य समाधिनां वचन कहे। छे के:--हे साध! खेद न कर ! तूं भव्य छे. कारण केतुं सम्यक्त्व पाम्यो छे, अने ते ग्रन्थीभेद विना न होय, अने ग्रन्थीभेद भव्यत्व विना न होय, कारण के, अभव्यने भव्य, के अभव्यपणानी शंका पण न थाय. वळी, अविरतिनो परिणाम बार कषायनो क्षय उपशम उपशम के क्षय थतांज होय छे, अने ते विरति तुं पाम्यो छे. तेथी, - दर्शनचारित्र-मोहनीयनो तारे क्षयोपशम थयो छे, नहीतो, सम्यग्दर्शन-चारित्रनी प्राप्ति न होय पण, तने कह्या छतां जो, वधा पदार्थो न समजाय; तो, ज्ञानावरणीयकर्मना उदयनुं लक्षग जाणवू त्यां तो, तारे श्रद्वारुप-पम्यक्त्व स्वीकार. ते कहे छे तमेव सच्चं नीसंकं जं जिण हिं पवेइयं (सू० १६२) ज्यां आगळ स्वसमय, परसमयना जाण आचार्य न होय; तथा, झीणी गूढ बावतोमां, अने अतींद्रिय पदार्थामा बन्ने पक्षने मान्य दृष्टांत तथा, सम्यग्हेतुना अभावथी ज्ञानावरणीयना उदयथी सम्यग्ज्ञान न होय; त्यां पण आ प्रमाणे चिंतव, के, तेज एक सत्य छे अने तेज निःशंक छे के, जिनेश्वरे कहेला अत्यंत मूक्ष्म-अतींद्रिय पदार्थो जे फक्त आगमथी मानवायोग्य छे ( ते मारे प्रमाण छे.) तथा मानवामा शंका न होय; ते निःशक्ति कहेवाय. के धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गळ विगेरे जे तीर्थकरे कहेलं छे, ते ४.रागद्वेषने जीतेला जिनो छे, माटे तेमनुं क हेलु सत्यज छे. आq श्रद्धान करवू. बरोबर रीते पदार्थ न समजाय; तोपण, शंका न करवी. For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० A १६१६॥ ___www.kcbatirth.org ५०-शुं साधुने पण शंका थाय छे के, तमे आम कहो छो ? उ०-संसारनी अंदर रहेला जीवोने मोहना उदयथी शुं न थाय ? ते प्रमाणे आगमां कहेलं छे. गौतमनो प्र०-हे भगवन् ! साधुनिग्रन्थो कांक्षामोहनीयकर्म वेदे छे ? सासूत्रम " अस्थि गं भंते ! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिजे कम्मं वेदेति ? हंता अस्थि, कहन्नं ॥६१६॥ समणावि जिग्गंथा कखामोहणिज कम्म वेयंति ? गोयमा! तेसु तेसु नाणन्तरेसु चरित्त तरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना भेयसमोवन्ना कलुससमावन्ना, एवं खल्लु गोयमा! समणावि निग्गंथा कखामोहणिजे कम्मं वेदंति तत्थालंबण 'तमेव सच्च णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' से णूगं भंते एवं मण धारेमाणे आणाए आरोहए भवति? हंता गोयमा! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भति,” उ०-हा. प्र०-केवी रीते ते वेदे छे ? उ.-तेवा तेवा ज्ञानना के, चारित्रना विषयमा न समजातां शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सावाला बनी भेदोने पामेला न सम-1 जातां हृदयमां झंखवाणा बने छे तेथी हे गौतम ! ते ठीकछे के, साधुने पण शङ्का विगेरे थाय. For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * सूत्रम् -* 4 ॥६१७॥ %AE -* आचा० गौतम कहे छे:-हे भगवान् ! ते समये साधु मनमा एम चितवे के, "तेज सत्य, निःशङ्क छे. के जे, जिनेश्वरे कहेलु छे." तो, ते आज्ञा पाळवानो आराधक थाय के ? ॥६१७] उत्तर-हे गौतम ! एम मनमा धारे; तो आराधक थाय छे. . वळी गुरु उपदेश आपे छे के, साधुए विचार के-- वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या नं ब्रवते क्वचित् । यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां, तथ्यं भृतार्थदर्शनम् ॥१॥ & .. वीतराग पोते सर्वज्ञ छे. अने तेथी, निश्चे तेओ जुठं न बोले. जेथी, तेमनुं वचन जीवोन स्वरुप बतावनाएं साचुं छे. विगेरे समजी लेवु. वळी, आ विचिकित्सा दीक्षा लेनारने आगममां मति स्थिर थयली न होवाथी थाय छे.. तेवाए पण उपर बतावेलु । रहस्य चिंतवq ते कहे छे: सडिस्स ण समणुन्नस्स संपवयमाणस्स समिति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ १, समियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २, असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ ३, असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ ४,समियंतिमन्नमामाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाए ५, असमियति- मन्नमा - Coca-RE - * For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम ॥१८॥ www.kobatirth.org णस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए ६, उवेहमाणो अणुवेहमाणं आचा०18 बूया-उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से उहियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इस्थवि बालभाचे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा (सू० १६३) १६१८॥ श्रद्धा धर्मनी इच्छा ते जेने होय; ते, श्रद्धावान् छे. तेवा भव्यजीवने संचिन, अने योग्य विहार करनारा साधुओए, अथवा P संविन विगेरे गुणोथी दिक्षा लेवायोग्य होय; तेने दिक्षा लेतां शंका थाय; तो, तेने जीवादि पदार्थमां बोध पामवानी अशक्ति होय तो, तेने समजाव, के, हे भद्र ! जिनेश्वरे जे कहेलुं छे, ते शंकारहित अने सत्य छे. आ प्रमाणे दिक्षालेतां बोध आपवाथी तेनो Mआत्मा चारित्रथी निर्मळ थतां; चडता कंडकथी पछाना काळमां पण निर्मळ भावना वधे; अथवा बरोबर रहे; ओछी पण थाय अथवा अभाव पण थाय, आवी जीवनी विचित्र परिणामता बतावे छे, ते श्रद्धावाळाने समजावीने दिक्षा लीधा छता, पोते जिनेश्वरनुं कहेलु वचन शंकारहित साचुं मानतो पाछळथी पण शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, विगेरेथी रहित निर्मळ सम्यक्त्ववालो होय छे, पण भगवानना वचनमा शंका उत्पन्न थती नथी. (१) कोइने दीक्षा लेतां श्रद्धा होवाथी मानवा छतां पाछळथी न्याय भणतां कोई जातनो एकांत पक्ष पकडतां हेतु दृष्टांतनो लेश हाथमा आवतां पूर्वापर विचार न थवाथी; अने ज्ञेयपदार्थ गहन होवाथी मति मुंझाता कोइ वखत मिथ्यात्वना अंशनो उदय थतां; ते जिनवचनने सम्यक् मानतो नथी. ते कहे:-आ बघा नयना समूहना अभिप्रायना कारणे अनंत धर्मथी युक्तवस्तु जेवी छतां, मोहना उदयथी एकनयना अभिप्रायवडे एक अंश साधवा माटे ते साधु जाय छे. जो, नित्य BACCASSES वनय For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AE%- आचा० ४ जिनेश्वरे कहेल; ते फरी अनित्य केम थाय ? अथवा अनित्य ते, नित्य केम थाय ? कारणके, ते बन्ने परस्पर विरोधी छे.. सूत्रम् ते प्रमाणे अपच्युत अनुप्मन स्थिर एक स्वभाववाढं नित्य छे, अने तेथी उलटुं दरेक क्षणे नाश पामनारुं अनित्य छ, विगेरे ॥६१९॥ असम्यक्भावने पामे छे, पण ते एवं विचारतो नथी, के अनंत धर्मवाळी अने बधा नयना समूहथी युक्त वस्तु छे, ते मंद बुद्धिवा- ॥६१९॥ ळाने ते मानवु अति गहन होवाथी अशक्य छे, पण श्रद्धाथी मानवा योग्य छे, पण हेतुथी क्षोभायमान न थकुं, का छे केः सर्वेर्नयर्नियतनगमसंग्रहायेरेकैकशो विहिततीर्थिकोशासनैर्यत् ॥ निष्ठां गतं बहुविधै गमपर्ययस्तैः श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ॥ (इत्यादि) बधा नयोबडे एटले नैगम संग्रह विगेरे अने कथा नियत एक एक अंशथी अन्य तीर्थीक शासनवाळाए बतावेल जे बहु प्रकारना गमपर्यायोवडे संपूर्णता पामेलं तमारुं वचन श्रद्धा करवा योग्य छे. पण त्यां हेतुथी जाणवा योग्य नथी, जेथी विचार के हेतुतो एक नयना अभिप्राय प्रमाणे वर्ते छे. तथा एक धर्मने साधे छे, पण बधा धर्मने साथे साधनारने हेतुनो असंभव छे, (तेथी तेने शङ्का थाय छे.)(२)वळी विचित्र भावनाने बतावे छे, के कोइ मिथ्यात्सना लेशथी मुझाएलाने शङ्का Hथाय के शब्द पुद्गलनो केवीरीते बने एवं उलटुं मानीने मिथ्यात्वना परमाणुभोना उपशमपणाथी पछीथी शंका विगेरे गुरुना उपदेथी। दूर थतां ते श्रद्धावालो थाय छे; के जो शब्द पुद्गलनो बनेलो न होय तो तेनो करेलो अनुग्रह अथवा उपघात कान उपर केवी रीते || थाय ? कारण के आकाश माफक शब्द अमूर्न होय तो कानने कांइ पण न थाय एम समजीने सम्यक्त्व पामे छे (३) कोइने आग-18/ SARALABAR व-कलावन For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६२० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मां रमणता न थाथी मति अपरिणत थतां विचारे के एक समयमांज परमाणु लोकांते केवी रीते जाय एम खोडं मानतां कोई वखत कु हेतुना वितर्कना प्रकट अवसरे पूरेपूरो मिथ्याली बने छे, के चौदराज लोकनो एक छेडाथी बीजा छेडा सुधी जतां आकाश प्रदेशने सा स्पर्श न थवाथी समयनो भेद पडे, ते भेद न पडे तो वे जग्याए एक साथ स्पर्श न थाय तेथी परमाणुनुं तेटला पणुं थाय, एटले ते एवं माने के लोकने बन्ने छेडे रहेला प्रदेशोनो एक वखते परमाणुए स्पर्श कर्यो माटे तेटलो मोटो परमाणु छे, अथवा ते बन्नेनुं छेडुं परमाणु जेटलुं छे, आ तेनुं मानवुं खोढुं छे. पण ते आग्रही बनेलो विचारतो नथी, के विस्रसा परिणामवडे शीघ्र गfतपणाथी परमाणु एक समयमां असंख्येय प्रदेशनु गमन थाय छे, जेमके आंगळीना माप जेटला एक द्रव्यना असंख्यात आकाश प्रदेश छे, तेटला बधाने एक समयमां परमाणु ओळंगी जाय छे. प्र०- ए केवी रीते बने ? उ० जे प्रत्यक्ष देखाय छे ते ना नहि पाडी शकाय, कारण के ज्यां सौने देखीतुं प्रत्यक्ष प्रमाण होय, त्यां अनुमान विगेरेतुं प्रयोजन नथी जो एक समयमां अनेक प्रदेश ओळंगवा न मानीये तो अंगुल मात्र प्रदेश ओळंगतां असंख्येय समय नीकळी जाय, तो आपणे देखेलुं इष्ट छे तेने पण बाधा आवे, माटे ते शंका नकामी छे. (४). हवे भांगानी समाप्ति करवा परमार्थ बतावे छे. भगवाननुं वचन साचुं छे, एवं मानीने शङ्का विगेरे छोडीने ते वस्तु यत्न वडे तेवा रुपेज सम्यक् अथवा असम्यक् पूर्वे भावी होय तो पण गुरुना सहवासथी तेमनो उपदेश विचारतां ते शिष्य श्रद्धावाळा थाय छे, जेम इर्यापथमां उपयोग राखनारने कोइ बखत जीवहिंसा थाय. (तो पण तेने दोष लागतो नथी.) (५) हवे तेथी उलदुं बतावे छे, कोइ वस्तु खोटी रीते मानतां छद्मस्थ साधुने For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६२० ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie द टुंक बुद्धियी शंका थाय, ते समये ते वस्तु खोटी अथवा साची विचारी होय, तो तेणे खोटी विचारेली होवाथी खोटा विचारने है आचा० लीधे अशुभ अशुभ अध्यवसाय होवाथी ते मिथ्यात्व छे, कारण के जेवी शंका करे तेवोज भाव मेळवे, ए, वचन छे, (६) अथवा सूत्रम् सम्यक् माननारने बीजी रीते खुलासो करे छे, शमिनो भाव शमिता छे ते शमिताने माननारो शुभ अध्यवसायवाळो उत्तर कालमा | ॥६२१॥ पण उपशमवाळोज रहे छे, अने चीको तो शमिताने मानवा छतां कषायना उदयथी अशमिता थाय छे, एज प्रमाणे बीजा भांगामां सम्यक् शब्दनी योजना करची, के सारं विचारे तो सारं फळ मेळवे, तेज प्रमाणे सारुं नरमुं तेनो विवेक विचारतो बीजाने पण उपदेश देवाने समर्थ थाय छे, का छे के, आगममां मति परिणत थवाथी यथायोग्य पदार्थनग स्वभाव बताववायी आ योग्य छे,आ अयोग्य छे, एवं विचारतो विद्वान बीजा नहि विचारताने पण समजावे छे, एटले गाडरना टोला माफक एक पछी एक जेम दोडे & तेम कोइ विना विचारनो शंकावाळो होय, तेने कई के हे भद्र ! तुं मध्यस्थता राखीने निर्मळ भावथी विचार के जिनेश्वरनुं कहेलं है जीवादितत्व विचार युक्तिने योग्य छे के नहीं ? ते आंखो वींचीने विचार, अथवा संयने सारी रीते पाळनारो होय, ते संयम सारी 8 रीते न पाळनारने कहे, के हे भद्र ! सम्यग् भाव पामीने हवे संयममा सारो रीते उद्यम कर ! शुं आलंबीने ? उ०-पूर्वे कहेला प्रकारे ते संयममां कर्म संतति क्षय करवा रुप जे संधि छे. ते जो संयम सारो पाले तो, कर्म दूर कराय तेम छे, आ कर्म संतति तेसिवाय बीजी रीते क्षय थाय तेम नथी. वळी सारीरीते संयम पाळनारने शुं लाभ थाय, ते कहे छे, 'से'-ते सम्यक् रीते दीक्षा लेवाने तैयार थएलाने शंका रहित धर्म श्रद्धा होवाथी चारित्र लइ गुरुकुल वासमा रहेवाथी अथवा गुरुनी आज्ञामां वर्त्तवाथी जे गति ट्रयाय छे, अथवा जे पदवि प्राप्त थाय छे, तेने हे शिष्यो! तमे सारो रीते जुओ! बधा लोकमां प्रशंसा, ज्ञानदर्शनमा स्थिरता चारित्रमा उन For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निष्कंपता अने तेने श्रुत ज्ञाननी आधारता थाय छे, अथवा स्वर्ग मोक्ष विगेरेनी उत्तम गति मळे छे, तेने जुओ ! अथवा संयममां प्रयत्न (न) करनारने उपग्ना उत्तम गुणो विना पासत्था विगेरेनी गति जे बधा लोकोने हांसी रुप छे. ते अथवा अधम स्थानी गति मळे छे. ते तमे देखो ! आ प्रमाणे संयम पाळनार ने प्रमाद करनार साधुनी उंच नीच गतिने जाणीने पांच प्रकारना सारा आचारमां तमारे प्रवर्त्तन करवुं, पण जे चारित्र लेवामां प्रमाद करे तेनी नीच गति थाय तेथी शुं समजवुं, ते कहे छे, के जेओ असंयममां बाल भावमां रमेला छे, जे सुगति सकल कल्याणना आधाररूप छे, तेने न मेळवी शके, अर्थात् हे शिष्य ! तुं दीक्षा लइने बाळ चेष्टा माफक कुकृत्य न करीश ! ते बाल जेवो आचार शाक्य कपिल विगेरेना मतने माननारा आचरे छे, अने बोले छे, के नित्य, अने अमूर्त आत्मा होवाथी आकाश माफक तेनो अति पातज नथी ! अथवा वृक्ष छेदतां के वाळतां आकाशनो भेद | के बळबुं थतुं नथी, तेमज शरीर विकारी छे. तेने घा विगेरे थतां अविकारी आत्माने कंइ पण थतुं नथी, तेओ कहे छे के. न जायते न म्रियते कदाचिन्नायं भृत्वा भवितेति ॥ आत्मा जन्मे नहीं, तेम मरतो पण नथी, कोइ पण दिवस आ थइने थवानो नथी ! (जेवो छे तेवोज रहेवानो छे) नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । नचैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ जीवने शस्त्रो छेदे नही, अग्नि बाळे नहीं, पाणी भींजावे नहीं, तेम पत्रन शोषण करतो नथी. अच्छेयोऽयमभेद्योयम विकारी स उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६२२॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsul Gyarmandie सूत्रम् ॥६२३॥ आ आत्मा अछेद्य अभेद्य अविकारी नित्य तथा हमेशां गमन करनार स्थाणु तथा अचल अने सनातन (पुराणो) छे. (विगेरे , आचा० IPI तेमनां वचनो छे) ते पाणीने हणवा विगेरेमा प्रवर्तनाराने तेना निषेध माटे कहे छे.. ॥६२३॥ तुमंसि नाम सच्चेव ज हंतवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अजावेयवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय णमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए (सू० १६४) तमे जे आत्माने हणवा पणे विचार्यो ते तुज छे, ( नाम शब्द संभावना माटे छे, ) जेम तमे माथु हाथ पग पासां पीठ पेटवाला छो, तेम आ पण छे. के जेने तमे हणवा योग्य मानो छो, जेम तमने कोइ मारवा आवे तो ते देखीने तमने दुःख थाय छे, तेवी रीते वधाने छे, तेने दुःख उत्पन्न करवाथी पाप बंधाय छे, तेनो भावार्थ आ छे, के अहींयां अंतर आत्मा जे आकाश जेवो ६ छे तेनी हिंसा मारवा वडे नथी पण शरीर आत्मानी हिंसा छे, कारण के ज्यां कंइ पण आधार रुप पोतानुं शरीर छे, तेने सर्वथा द दूर करवू तेज हिंसा छे, एवं जैनो माने छे. का छे केः पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बल च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः ॥ सहकहORE For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राणादशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजी करणं तु हिंसा ॥ १ ॥ पांच इन्द्रियो ऋण बळ श्वासोश्वास, अने आयु ए दश प्राण भगवाने कहेला छे. तेनो त्रियोग करवो ते हिंसा छे. बळी संसारमां रहेला जीवने सर्वथा अमूर्तपणुं न घटे के आकाशनी माफक जेनावडे विकार न थाय, तथा बधी जग्याए प्राणीने दुःख देतां पलां आत्मानी तुलना विचारवी, एवं जोडेना सूत्रथी बतावे छे. तुं पण तेज छे. के तने आज्ञा करवामां आवे ते माने छे तथा बीजा जीवने परितापवा. एवं माने छे तेज प्रमाणे जेने ग्रहण करवा, ते तुं माने छे. जेने दुःख देवं ते पण | तुं माने छे. पण जेवुं तने विरुद्ध थतां दुःख थाय तेम वीजाने पण जाणवुं. अथवा जे कायने तु हणवानो विचार करे छे. त्यां अनेकवार तुं हतो. आ प्रमाणे जुठ विगेरेमां पण समज के. बीजो जुटुं बोली तने उगे तो तने न गमे, तेम तुं जुटुं बोले तो बीजाने न गमे, जो हणानारो तथा हणनारो बन्नेने उपर कह्या प्रमाणे एकता थाय तो शुं? ते कहे छे. 'अज्जु' रुजु प्रगुण तेज छे के, जे घातक अने हंतव्यना एकपणाना बोधने माने (पोताना जीव माफक सर्वे जीवोने माने) तेज प्रतिबुद्धजीवी साधुज पोते परिज्ञानवडे जीवे छे, पण जीवनी हिंसा करनारो पोताना समान बीजाने न माननारो जीवतो नथी. जो एम छे, तो शुं करवुं ? ते कहे छे. हणनारा जीवने पोतानी माफक मोडुं दुःख थाय छे, माटे पोतानी उपमाथी बीजानी हिंसा न करवी, न बीजा पासे मराववा, हणनाराने अनुमोदवा नहि, वळी संवेदन ते अनुभव छे. के जे बीजा जीवोने 'मोहना उदयथी इणवा विगेरेथी दुःख दे छे, ते पोते पछवाडे दुःख भोगवे छे, एक जाणीने कोइने पण हणवो नहि, प्र० - आत्माथी अनुभव For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६२४॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साता के असातारुप छे, ते वातने नैयायिक तथा वैशेषिक मतवाळा आत्माथी भिन्न गुण भूत संवेदनं एकार्थपणुं समवायिज्ञान वडे माने छे, ते तमे मानो छो, के आत्मा सथे एकपणे मानो छो ? तेनो उत्तर सूत्रकार आपे छे, जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया, जेण त्रियाणइ से अया, तं पडुच्च पडि संखाए, एस आयावाई समियाए परियाए त्रियाहिए तिवेमि (सू० १६५ ) ॥ ५५ ॥ आत्मा नित्य उपयोग लक्षणवाळो छे. तेज विज्ञाता छे, पण ते आत्माथी पदार्थनो अनुभव करावनार ज्ञान जुदुं नथी अने जे विज्ञाता छे, ते पदार्थनो परिछेदक उपयोग ते पण आ आत्माज छे. कारण के जीवनुं लक्षण उपयोग छे अने उपयोग ते ज्ञानस्वरुप छे, ज्ञान अने आत्माने अभेदपणे मानवाथी बौद्धमतने अनुकुल ज्ञानज एकलुं सिद्ध थशे, एम तमने शंका थाय तो जैनाचार्य कहे छे, के तेम नथी, भेदनो अभाव फक्त अमे अहीं बताव्यो, पण एकता कही नथी, जो एम मानता हो के ज्यां भेदनो अभाव तेज अक्यता छे, तो ते मानवु फक्त वार्तामात्र छे; कारण के 'घोळं वस्त्र' तेमां घोळं तथा पट ए बन्नेमां भेदनो अभाव होवाछतां एकतानी प्राप्ति नथी, एमां पण शुक्ल पणाना व्यतिरेकवडे बीजो कोइपण पट [ख] नथी, एम मानो तो ते अशिक्षित (मुर्ख) नो उल्लाप छे, कारण के तमारा कहेवा प्रमाणे मानतां शुक्ल (घोळा) गुणनो अभाव थतां सर्वथा पटनो अभाव थवा जशे. वादी - त्यारे एम मानतां आत्मा विनष्ट थयो ? जैनाचार्य - थवा दो ! अमारी कई हानि नथी, कारण के अनंत धर्मवाळी वस्तुनो अपर (बीजो) मृदु विगेरे धर्मनो सद्भाव For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥६२५॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, तेनो नाश थायतो पण अविनष्ट (कायम) ज छे, एज प्रमाणे आत्मानो पण प्रत्युत्पन्न ज्ञान आत्मकपणाथी विनाश थवा छतां बीजो अमूर्त्तत्व असंख्य प्रदेशपशुं अगुरुलघु विगेरे धर्मोना सद्भावथी आत्मानो अविनाशज छे ! आटलुंज वस छे ! ( जैनमत प्रमाणे मूळ वस्तु द्रव्यपणे कायम रहे छे. अने फक्त पर्यायोनोज नाश अने उत्पति छे. तेथी पर्याय नाश थवा छतां मूळ द्रव्य वस्तु तो कायमज रहे छे. ) शंका- जे आत्मा ते जाणनारो, एम तृप्रत्ययवाळो कर्त्ताना अभिधानथी अने आत्माना कर्त्तव्यपणाथी एम थ के जे आत्मा तेज विज्ञाता एम अहीं विपत्ति पत्तिनो अभाव थयो, के जेना वडे आ जाणे छे, ते भिन्न पण होय. जेमके ते करण अथवा क्रिया थशे ? जो करण मानीए तो दातरडा माफक भिन्न पदार्थ थशे अने जो क्रिया मानीए तो कर्त्तामां रहेली संभवे छे, एम कर्ममां रहेली पण संभवे छे, आ प्रमाणे भेदना संभवमां क्यांथी ऐक्यता होय ? जैनाचार्य शिष्यने कहे छे, के तेवाने खुलुं कहेतुं जे मति विगेरे | ज्ञान रूप करणवडे अथवा क्रियावडे सामन्य विशेष आकारपणे जे कोइ (जीव) वस्तुने जाणे छे ते आत्मा छे. अने ते आत्मा भिन्न ज्ञान नथी; तेम करणपणे भेद नथी, एकने कर्म करणना भेदवडे उपलब्धि थाय छे, जेमके देवदत्त आत्माने आत्माकडे जाणे | छे, क्रियाना पक्षमां पक्षसंबंधी अभेद छे एवं तमे पण स्वीकार्य छेज, वळी भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते जेमां भूति (थवापj) छे तेज क्रिया छे, अने तेज कारक छे, आ वचन विगेरेथी एकपणुंज छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६२६॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञान अने आत्मा एकपणुं मानतां शुं थाय ? ते कहे छे ज्ञान परिणाम आश्रयी आत्मा ते नामेज व्यपदेश कराय छे, जेमके इन्द्रिथी उपयुक्त होय ते इन्द्र कहेवाय, अथवा मतिज्ञानीश्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानी मनपर्यवज्ञानी, केवळज्ञानी छे. अने जे ज्ञान आत्मा एकपणुं स्वीकारे छे, तेने शुं गुण थाय, ते कहे छे. उपर बतावेली नीतिए यथावस्थित आत्मवादी थाय, अने तेना सम्यग भाववडे अथवा शमिता (उपशमपणा) वडे पर्यायरूप छे, एटले तेज संयम अनुष्ठानरुप प्रसिद्ध छे, (इति शब्द समाप्ति माटे छे) लोकसार अध्ययनमां पांचमो उद्देशो पूरो थयो. छट्टो उद्देशो. पांचमी उद्देशो को हवे छट्टो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां कहां के आचार्ये निर्मळ हृद (कुंड) जेवा थं, तेवा उत्तम आचार्यना संसर्गथी शिष्यने कुमार्गनो परित्याग थाय. तेथी रागद्वेषनी अवश्ये हानि थाय, माटे आ प्रतिपादन [[[सिद्ध] करवाना संबन्धवडे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे, अणाणाए एगे सोद्वाणा आणाए एगे निरुवद्वाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं तट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तसन्नी तन्निवेसणे ( सू० १६६ ) अहींआं तीर्थकर गणधर त्रिगेरेनो उपदेश माननार होय, तेने विनेय [शिष्य ] कट्टेल छे, अथवा सर्व भावना संभावितपणाथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६२७॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org सामान्यथी अभिधान छे, अनाज्ञा एटले भगवानना उपदेश विना पोतानी मेळे आचरे, ते अनाचार छे, ते अनाचारमा प्रवर्तेला के-181 & टलाक इन्द्रियोने वश थएला अने दुर्गतिमां जवानी इच्छाथी पोताना मतना अभिमान ग्रहथी बंधायला [कदाग्रही]छे, तथा उपस्थान आचा० ते बनावटी तेमनुं धर्माचरण छे, तेमां उद्यम 'करनारा' ते सोपस्थानवाला छे, तेश्रो बोले छे, के 'अमे पण प्रबजित छीए' छतां सूत्रम ॥६२८॥ - सारा धर्मना विवेकथी रहित बनीने सावध आरंभमां वर्ते छे. तेम केटलाक कुमार्गनी वासनावाळा (मिथ्यात्वी) नथी, पण आळस ॥६२८॥ & निंदा स्तंभ [मान] विगेरे (१३ काठिया) थी बुद्धि हणातां तीर्थकरना कहेला सदाचारमा निरुपस्थानवाळा(सारा धर्मानुस्थान रहित) ४. छे. एटले मिथ्याखी चारित्रना नामे अनाचार करे, अने सम्यक्त्वी जीवो प्रमादथी संयम पाळवामां खेद पामे छे. ते बन्नेने दुर्गति मळवानी छे, तेवू जाणीने गुरु कहे छे हे शिष्य ! तने तेवी दुर्गति न थाओ ! [माटे सम्यक्त्व धारण करीने प्रमाद छोडी पुरो संयम पाळ!] आq सुधर्मास्वामी पोतानी बुद्धिथी न्थी कहेता, ते कहे छे, 'एतद' उपर कहेलं (जिनेश्वरनुं छे) अथवा आज्ञा रहित निरुपस्थानपणुं छे, अने आज्ञा पालनमा सोपस्थानपणुं (चारित्र) छे, आबु तीर्थकरनुं दर्शन (मंतव्य) छे. __अथवा हवे पछी जे उपदेश कहे छे, ते तीर्थकरनें दर्शन छे, के कुमार्ग छोडीने हमेशां आचार्यनी सेवा करनारा थq ते आ&चार्यनी दृष्टिमा रहेवू ते 'तदृष्टि' छे, एटले तीर्थकरे कहेला आगममां दृष्टि राखनारो छे; तथा ते आचार्य अथवा तीर्थङ्करनी आज्ञा पालनारनी मुक्ति थाय छे, ते ' तन्मुक्ति' छे, तथा ते साधु आचार्य ने बधां कार्यमा आगळ करे तेथी पुरस्कार छे अर्थात् आचा-M 3. नी अनुमतिथी कार्य करनारो छे, तत्संज्ञी, ते तेमना ज्ञानथी उपयुक्त छे, तथा ' तन्निवेशन' एटले ते सदा गुरुकुल निवासी छे, 12 तेवाने शुं गुण थाय ते कहे छे. नामे अनाचार का, हणातां तीर्थकरना कलाक कुमार्गनी व CEनालय For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिभूय अक्खू अभिभूए पभू निरालंत्रणयाए जे महं अवहिमणे, पवाएण पत्रायं जाणिजा, सह संमइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा अंतिए सुच्चा (सू० १६७) परिषहो तथा उपसर्गोने जीतीने अथवा घाति चतुष्टयने जीतीने तत्वने जोयुं, तथा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग आवतां अथवा | अन्य तीर्थिकोथी पोते हार्यो नहीं; एवो समर्थ (प्रभु) निरालंबनताने धारण करे; पण ते आ संसारमां मातापिता, स्त्री विगेरेनुं अवलंबन न चाहे; तथा तीर्थकरनी आज्ञा बहार वर्तवामां नरक विगेरेमां जवानुं छे. एवं भाववामां समर्थ थायः प्र० - पण क्यो पुरुष परिषद उपसर्गने जीतनारो छे ? तथा कोइथी पण, न हारीने निरालंबनपणुं लेवामां समर्थ थाय ? आवुं शिष्य पूछे तो तीर्थकर सुधर्मास्वामी अथवा आचार्य तेने कहे छेः उ०- जेणे मोक्षने लक्ष्यमा राख्यो छे, ते महापुरुष लघुकर्मवाळो मारा उपदेशथी बहार न होय. माटे अबहिर्मन (स्थिरचितवाळो छे, ते सर्वज्ञना उपदेश प्रमाणे चाले. प्र० पण, तेना उपदेशनो निश्चय केवी रीते धाय ? के, आ जिनेश्वरनो छे ? उ०—प्रकृष्टवाद ते, प्रवाद छे. आचार्यनी परंपराए चालेलो; तेने सर्वज्ञना उपदेश तरीके जाणीले अथवा अन्य मतवालानी अणिमादि आठ प्रकारनी लब्धि (ऐश्वर्य) देखीने पण तीर्थङ्करना वचनथी बहार मन न करे, पण तेवाओने इन्द्र जाळीया जेवा ठगनारा जाणीने तेमनुं अनुष्ठान तथा तेमना वादो (वचननो) ने विचारे (परिक्षा करे) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६३९॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६३०॥ www.kobatirth.org प्र० - केवी रीते ? उ० - "पत्राएण पवाये जाणिज्जा" प्रकृष्टवाद ते प्रवाद 'सर्वज्ञ वाक्य' छे, ते मत्रादवडे वीजा तीर्थिकोना प्रवादनी परिक्षा करे, जेमके वैशेषिको तेनु भुवन विगेरे करनारने इश्वर मांने छे, कहे छे केः अन्यो जंतुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च । १॥ बीजो जीव पोतानुं सुख दुःख भोगववा असमर्थ छे, पण इश्वरनी प्रेरणा थतां ते स्वर्गे अथवा नरकमां जाय छे. आवा प्रवादोने जिनेश्वरमा प्रवादवडे विचारवा जेमके आकाशमां इन्द्र धनुष्य विगेरे विस्रसा परिणामे परिणमीने पोताने रुपे बनेला छे, तेनो वनावनार जुदो इश्वर विगेरे कारणनी कल्पना करवामां अति प्रसंग आवशे, तथा घटपट विगेरेमां दंड चक्र चीवर (कपडे) पाणी कुंभार तुरी बेम शंलाका कुविद विगेरेना व्यापारथी आंतरा विना मळता आत्मलाभवाळाने मुकी लेने बदले नहीं | देखाता एवा इश्वरथी पदार्थों बने छे एवी कल्पना करतां रासभ (गधेडा) ने पण कर्ता कां न गणवो ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वादीनो उत्तर--तनुकरण विगेरेमां पण पोतानुं करेलुं कृत्य अने तेथी बन्धापलं कर्म तेना विना अवंध्य छे. पण पोताना कर्मनी विचित्रता छे. कर्मनी उपलब्धि सिवाय आवुं क्यांथी होय ? जैनाचार्य कहे छे, जो तमे एम मानो तो बन्नेमां ते समान कथन छे, वळी कारणरुप माता पिता एक छतां अपत्यनी विचित्रता देखवाथी अधिक निमित्तवडे भाव, अने ते इश्वरनो स्त्रीकार करवा करतां अदृष्ट (नशीब ) नेज इच्छवं सारुं छे? कारण के तेना विना सुख दुःख सुभग दुर्भग विगेरे जगत्नी विचित्रता न होय ! हवे सांख्य मतवाळा कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६३०॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० १६३१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्त्व, रज, तमः एवधांनी साम्यअवस्था प्रकृति छे. मऋतिथी महान, तेथी अहंकार, तेथी अग्यार इन्द्रियो, तेथी पांच तन्मात्र, तेथी पंचभूत, अने तेथी बुद्धि, ए विचारेल अर्थने पुरुष (आत्मा) जाणे छे. पण, ते पोते अकर्ता, अने निर्गुण छे. ते प्रमाणे प्रकृति करे छे, अने पुरुष भोगवे छे. त्यारपछी, कैवल्य अवस्थामां हुं दृष्टा छु. एवं निवर्त (दूर थाय छे. विगेरे तेमनुं विकळ होवाथी तेमना आंतरा विनाना मित्रोज मानशे, कारणके, प्रकृति अवेतन होवाथी केवीरीते आत्माना उपकार माटे क्रियानी प्रवृत्ति करशे ? अने हुं दुःख देनारो हुं. एवं आत्मा देखीने पोताना उपकारनी प्रवृत्ति पोते न करे ? कारणके' प्रकृति अचेतन होवाथी तेने विकल्प थवानो संभवज नथी; अने प्रकृति जो, नित्य होय; तो प्रवृत्तिनी निवृत्तिना अभाव थइ जाय, अने पुरुषनुं कर्तापं न होय; तो, संसारथी उद्वेग, अने मोक्षनी उत्कंठा विगेरेनो अभाव थशे. कां छे केः विरक्त न निर्विण्णो, न भीतो भवबंधनात् । न मोक्षसुखकांक्षी वा, पुरुषो निष्क्रयात्मकः ॥१॥ ते विरक्त नथी; खेद पामेलो पण नथी; तेम, भवबंधनथी डरेलो नथी; अथवा, मोक्ष-सुखनो आकंक्षी नथी. एवा गुणवाको क्रियारहित पुरुष छे. तेनो उत्तर जैनाचार्य कहे छे: कः प्रव्रजति सांख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि । निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिष्यते ॥ आत्मनिष्क्रिय छे.त्यारे, सांख्यमतमां दीक्षा कोण ले छे? तथा क्षेत्र भोगवामां निष्क्रयपणाथी तेनुं क्षेत्र भोग केवीरीते इच्छे छे ? बौद्ध क्षणिक माने छे. तेनो उत्तरः For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६३९॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥६३२॥ जो, अन्वय रहित विनाश थाय; तो प्रतिनियतकार्य कारणभाव सिद्ध न थाय; पण एक संतान परंपराथी सिद्ध थाय छे. तेवू 51 तमारूं कहेवु भण्या विनाना जेवूछे ! कारणके संतानवाळाना व्यतिरेक (अभावथी) कोइपण संतान नथी, अने संतान- मूळ पूर्व आचा०18 काळमां रहेवा पणुं छे, जेज कारण होय तो वधुं ए बधांनुं कारण थशे, कारण के बधाने पूर्व काळमां रहेवापणुं छे, तेथी तमारु ॥३२॥ कहेवू माल विनानुं छे, वळी. यजातमात्रमेव, प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुंभे? । नोत्पन्नमात्रभन्ने क्षिप्तं सन्तिष्ठते वारि ॥१॥ जो घडो बनवा वखतेज नाश पामेतो ते घडामा शुं क्रिया थइ? अने उत्पन्न थतांज घडो भांगेतो तेमां नांखेलं पणी रही शके नहिःल कर्तरि जातविनष्टे धर्माधर्मक्रिया न संभवति । तदभावे बंधः को बन्धाभावे च को मोक्षः? ॥२॥ धर्म पाप करनारो तुर्त नाश पामे, तो धर्म अने अधर्मनी क्रिया संभवे नहि, अने धर्म अधर्मना अभावमा पुण्य पापनो बंध न होय, अने ते बंधना अभावमा मोक्ष कोनो थाय ? बृहस्पिति (चाक) मतवाळा फक्त पांच भूतोने मानता होबाथी जीव पुण्य पाप परलोकनो तेमने अभाव थतां निर्मर्यादापणे अमानुषी कृत्य करनाराने तिरस्कार पदयुक्त कृत्यवाळाने उत्तर न आपत्रो, तेज उतर छ [तेमनी जोडे वात करवी अयोग्य]वळी. अब्रह्मचर्यरकैर्मुढेः परदारघर्षणाभिरतैः । मायेन्द्रजालविषयवत्प्रवर्तितमसत्किमप्येतत:१॥ दुराचारमा रक्त अने परस्त्री आलिंगनमा मूड बनेला इंद्र जालना जुठा पदार्थ माफक आलोकोए एवं असत् मंतव्य फेलाव्यु छ? वळी. स्वस्त For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्याः ॥ धर्माय येषां पुरुषाधमानां तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः ? ॥२॥ भवनुं दुःख आपनारी माता समान जेमनुं मिथ्यादर्शन छे, अने जेमनी मिथ्या मति विवेक रहित छे, के जे अधम पुरुषोए धर्मने नामे अधर्म फैलायो छे, तेवाने पृथ्विमां बीजो क्यो अधर्म हशे ? आ प्रमाणे वधा तीर्थाना वादमां जिनेश्वरना मतने अनुसरीने विचारी असत्यने दूर कर; अने ते सर्वज्ञनुं वचन तथा कुमा|र्गनुं बरोबर निराकरण करीने तीर्थीकोना प्रवादोने आ बतावेला ऋण प्रकारकडे जाणे. (१) मनम करवु ते मति छे, अने ज्ञान| वरणीयकर्मना क्षय उपशमथी कोइपण ज्ञान थाय; ते ज्ञानज छे, तेथी एकदम तेज क्षणे मनना कारणे मतिश्रुत अवधि के, बीजां ज्ञानवडे (निर्मळता थतां ) पोते बीजा वादोनी परीक्षा करे; अथवा ज्ञानवडे जोवायोग्य तेमने शोभनिक तथा, मिध्यात्व कलंकरहित निर्मळमति (बुद्धिवडे) वधा वादोना स्वरुपने जाणे, कारण के, स्व, अने परनुं सत्यपणुं बतावनार मति छे. कोइ वखतपर [ तीर्थकरना ] | उपदेशथी जाणे; अथवा तेमनुं कहेल आगम भणीने तेनावडे जाणे; अथवा तेथी न समजाय; तो, बीजा आचार्य विगेरे पासे सांभळीने यथावस्थित वस्तुना सद्भावने जाणे; अने जाणीने भुं करे ? ते कहे छे:— निदेसं नाइवट्टेजा मेहावी सुपडिलेहिया सङ्घओ सङ्घप्पणा सम्मं समभण्णाय, इह आरामो परिar नियिही वीरे आगमेण सया परक्कमे (सु० १६८) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६३३॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org (निर्देश कराय ते ) निर्देश एटले, जिनेश्वर विगेरेनो जे उपदेश (साधुना हित माटे) छे, तेनुं मर्यादामा रहेल मेधावीसाधु 21 आचार उल्लंघन न करे. शुं करीने ? ते कहे छे: सूत्रम सारीरीते विचारीने के, आ त्यागवाजोग अन्य मतो छे, अने आ ग्रहण करवायोग्य तीर्थकरनां वचन छे. तेने पोते बधा प्रकारोथी ॥३४॥ एटले, द्रव्यक्षेत्र काळभाव-रुपे तथा सामान्य विशेषरुपे-बधा पदार्थाने उत्तम मति विगेरे प्रण ज्ञान थी विचारीने हमेशां आचार्यनी IM॥३॥ ४ आज्ञा पालन करनारो बनी वधा दर्शनोनु निराकरण करे. | प्र-करीने ? ते कहे छे:-वधा मतोनुं तत्त्व सारीरीते जाणीने, विचार करी निराकरण करे. वळी, आ मनुष्यलोकमां द संयममां रति करे; कारणके, परमार्थथी विचारतां एकांत अत्यंत रति (आनंद) संयममां छे, ते संयमने पूरो पाळवानी परिज्ञावडे जाणीने तेमां लीन रही इन्द्रियोनी उन्मत्तता रोकीने संयम-अनुष्ठानमां रक्त रहे. 'किभूत' विगेरे. अहीं निष्ठित ते मोक्ष तेनो & अर्थी बन, अथवा निष्ठित ते पूरो. अने अर्थ ते, प्रयोजन छे. ते प्रयोजनवाळो वीर ते कर्मने विदारण करवामां तैयार बनीने सर्वजे PI बतावेला आचार विगेरेमा सर्वकाळ यत्न करीने कर्मरिपुने जीत अथवा, मोक्षमार्गमां गमन कर. ____ आ प्रमाणे मुधर्मास्वामी कहे छे. आवो उपदेश वारंवार शामाटे करे छे ? तेनुं कारण कहे छे:उई सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगति पासह ॥२॥ श्रोतो एटले, कर्म आववानां आस्रवद्वारो छे, ते दरेक भवना अभ्यासथी विषयोना अनुबंध विगेरेथी जीवकर्म पुद्गलोने लीधांज ARRERRIOR For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६३५॥ 15 करे छे, तेथी उंचे श्रोत ते वैमानिक देवीना अभिलाशनी इच्छा, अथवा वैमानिक देवना मुखनुं नियाj करवू; के, मने तेवू मळो. आचा * अधो (नीचे) भवनपतिना देवोना मुखनो अभिलाष, अने तिर्यक्लोकमां व्यंतर तथा मनुष्य तथा तिर्यचना विषयोनी इच्छा थाय छे, टा सूत्रम् १६३५॥ ते श्रोतो छे, अथवा प्रज्ञापकना आश्रयथी उंचे ते पहाडनां शिखरो तथा मोटा मेदान होय; अथवा मोटा धोध पडता होय. नीचे नारकी तथा नदीना किनारानी उंडी गुफापोनां स्थान तथा तिर्थक्लोकमा आराम सभा विगेरे जीवोने उपभोगनां स्थानो छे, ते ४ & बनावटी के स्वभाविक बने छे अथवा कर्म परिणतिना कारणे मळेला छे, ए बधां (रमणिक अरमणिक) स्थानो कर्मना आस्रवद्वारो होवाथी श्रोतनी माफक श्रोतो छे, आ त्रणे प्रकारोवडे तथा बोजां पापोनां उपादानना हेतुवडे प्राणीओनी थती आसक्तिने अथवा 3 कर्मना अनुसंगने जो, ते कर्मना अनुसंगना कारणथीज ए श्रोतो छे. एम कहे कहे छे, माटे तुं सदा जैनागम प्रमाणे उद्यम कर. आव तु पेहाए इत्थ विरमिज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह आगई गई परिन्नाय (सू० १६९) राग द्वेष कषाय अने विषयरुप जे आवर्त छे, ते अथवा कर्म बंधनो जे भाव आवर्त छे, तेने जोइने तुं विषयरुप भाव आवतने वेद (आगम)ने जाणनारो बनीने तेनाथी विरम, अर्थात् आसूबद्वारनो अटकाव कर, बीजी प्रतिमां “ विवेगं किट्टइ वेदवी" ६ पाठ छे. एटले आसूबद्वारने. अटकावी तेनाथी थता कर्म बन्धनो वेदविद् माणस अभाव करे ? आसूत्रद्वारना निरोधथी शुं थाय ? ते 8 कहे छे, आम्बद्वारने दूर करवा दीक्षा लइने प्रयास करे, तेज आ प्रत्यक्ष प्रयोजन छे. अने ते आपणी चालु वातमा मुख्य छे. तेथी ॐवकला For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६३६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'आ' सर्वनाम वांची शब्दथी सूचव्युं, के जे कोइ महा पुरुष अतिशयवाळ ( उत्तम संयमनां) कृत्य करीने केवो थाय ? ते कहे छेअकर्मा एटले घाति कर्म रहित बने, (कर्मनो अर्थ घाति कर्म लीवेल छे) आ घाति कर्म दूर थवाथी ते विशेषथी जाणे, तथा सामान्यथी देखे छे, तथा बधी लब्धिओ तेने थाय छे, एथी ते पूर्वे जाणे छे, अने पछी देखे छे. आथी क्रमनो उपयोग बताव्यो छे; ते प्रमाणे तेने दिव्य (केवळ ) ज्ञान उत्पन्न थवाथी त्रण लोकमां माथाना मुकुटना मणि समान (माननीय ) तथा सुरासुर नरेन्द्रथी पूज्य बने छे, तथा संसार समुद्रना किनारे पहोंचनारो संपूर्ण जाणेल बनी ते पोते शुं करे ? ते कहे छे, ते जाणवानुं जाणेला सुर असुर तथा माणसोथी थती पूजाने अनुभवीने पण तेने कृत्रिम अनित्य असार सोपाधिक [इन्द्रजाळ जेवी] मानीने इन्द्रियोना वि पयोने जीतवाथी उत्पन्न थएल सुखनी निस्पृहताथी तेवी इन्द्रादिनी पूजाने पण तेओ इच्छतानथी, वळी आ मनुष्यलोकमा रह्या छतां केवळ ज्ञानथी जीवोनी आगति संसार भ्रमण तथा तेनां कारणोने ज्ञपरिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे संसार भ्रमण दूर करेछे, तेना निराकरणथी शुं थाय ? ते कहे छे. अजाईमरणस्स वमग्गं विक्खायरए, सबै सरा नियहन्ति, तक्का जत्थ नविजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइद्वाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वन तंसेन चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्तेन कडुए नकसाए न अंबिले न महुरे न For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६३६॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उन्हे न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रुहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिने सन्ने उबमा न विजए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि, ( सू० १\१० ) जाति (जन्म) अने मरणना मार्गना उपादान कारणरूप कर्मने ते केवळी साधु उलंघे छे, अर्थात् वधां कर्मेनों क्षय करे छे, अने कर्म क्षय थवाथी शुं गुण थाय छे, ते कहे छे, विविध प्रकारे प्रधान पुरुषार्थपणे रचेलां शास्त्रोना विषयथी तप अने संयम अ| नुष्ठाननो विषय अंते मोक्ष आपनार कह्यो छे, ते मोक्ष वधा कर्मना क्षयरूप छे, अथवा जे स्थानमां मोक्षना जीवो [ सिद्ध भगतो ] रहेला छे, ते स्थान जे आकाश प्रदेशमां रहेल छे, तेमां पोते रत छे. (मूत्रमां व्याख्यातनो अर्थ मोक्ष लीधो छे) अने त्यां पोते | अत्यंत एकांत बाधा रहित सुखवाला छे, अने क्षायिक ज्ञान दर्शनरूप संपदाथी युक्त बनेला अनंत काळ रहेवाना छे - ( नमुत्थुणं मां सिव मयल मरुय मणंत मुक्खेय मन्त्रा बाह मपुणरावित्ति सिद्धि गइ नाम धेयं ठाणं संपत्ताणं नो अर्थ विचारवो.) प्र०—त्यां केवी रीते रहेला छे? ते कहे छे त्यां शब्दोनी प्रवृत्ति नथी, अर्थात शब्दोथी कद्देवाय एवी त्यां कोइ पण अवस्था नथी, ते बतावे छे, 'सव्वे' संपूर्ण स्वरो ते अध्ययन (भणवानुं भणाववानुं जेम अहीं छे, तेम त्यां वाच्य वाचक संबन्धमा उच्चारण | पण नथी, कारण के शब्दो तो रुप रस गंध अने स्पर्श समजाववामां कोइ पण कारणे संकेत काळमां ग्रहण कर्या होय, त्यारे अथवा | तेनी तुलनामां प्रवर्ते छे, पण त्यां सिद्धोने शब्द विगेरेनी प्रवृत्ति नथी. एथीज मोक्ष अवस्था शब्दोथी कहेवाय तेम नथी; फक्त For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६३७॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६३८॥ www.kobatirth.org शब्दथी कहेवाय तेम नथी, एम नहीं पण उत्प्रेक्षणीय पण नथी ते पण बतावे छे, ज्यां पदार्थनो संबन्ध होय त्यां तेना अध्यवसायना अस्तित्वमां उह तके थाय, पण ज्यां ते नथी त्यां शब्दोनी प्रवृत्ति केवी | रीते थाय ? प्र० - शा माटे त्यां तर्कनो अभाव छे ? ते कहे छे 'मनन' करवुं ते मति छे अर्थात् ते मननो व्यापार छे. अने पदाथेनी चिंता [विचार] नी चार प्रकारनी औत्पादिका विगेरे बुद्धि छे. त्यां तेनो ग्राहक नथी. (प्रयोजन नथी) कारण ते मोक्ष अबस्थामा वधा विकल्पोनो अभाव छे, [त्यां विकल्प थइ शकतो नथी] त्यां मोक्षमां जे जीवो जाय तेओने कोइ पण जातना कर्मानो अंश छे के अथवा अकर्म बनीने जाय छे, ? तेनो उत्तर कर्म सहित जे जीवो छे तेमनुं त्यां गमन नथी, एवं बतावे छे. 'ओजः' एकलोज अर्थात् संपूर्ण मलरूप कलंकथी रहित त्यां सिद्ध भगवंत छे, वळी तेमने ओदारिक शरीर विगेरेनु अथवा कर्मनु प्रतिष्ठान नथी, माटे तेओ अप्रतिष्ठान छे. एटले मोक्ष अप्रतिष्ठान छे, ते मोक्षने जाणवामां 'खेदज्ञ' (निपुण) छे. अथवा अप्रतिष्ठान नामनो नरक छे. त्यां तेमने लोकनाडी पर्यंतनुं परिज्ञान छे, तेना आवेदनवडे वधा लोकनी खेदज्ञता बतावेली छे [सर्वे जीवोनु ते दुःख सुख जाणे छे] सर्व स्वरतुं निवर्तन जे अभिप्राय डे कां छे ते अभिप्रायने हवे प्रकट करे छे. ते परमपदनो अभ्यासी लोकांते कोशना छठ्ठा भागे (कोश ) जे क्षेत्र छे, तेमां रहेल छे, तेमने अनंत ज्ञान तथा दर्शन छे, ते संस्थाने आश्रयी पोते दीर्घ न थाय, न ह्रस्व थाय, न गोलाकारे न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न गोळा जेवो, तेमज वर्णरहित ते काळो नीलो लोहित (लाल) हारिद्र (पोळा) घोळो कोइपण जातनो रंग तेमने नथी, तेम सुरभि के दुरभि गंधनथी, तेम तीखो कडवो कपायलो खाटो मधुर रस नथी, तेमज कर्कश [खरबचडो] मृदु गुरु शीत उष्ण स्निग्ध लूखो कोइपण जातनो स्पर्श नथी, तथा उष्ण शब्दथी कापोत विगेरे लेश्यापण नथी, For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥६३८॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् 15 अथवा कायवालो नथी, एटले जेम वेदतावादी कहे छे के, एकन मुक्त आत्मा नेनी कायमां बीजा क्षीण कलेशवाळा प्रवेश करे छे, आचा० मूर्यनां किरणो मूर्यमां समाइ जाय छे, (तेम इश्वरमा बधु ममाइ जाय छे,) तेम जैनमां सिद्धनुं स्वरुप नथी. वळी न रुह (एटले बीज अने जन्मना अर्थमां रुह शब्द वपराय छे) एटले कर्म बीजना अभावथी फरीथी तेमने जन्म नथी. ॥६३९॥ पण जेम बौद्धमतवाळा माने छे के पोताना दर्शननु अपमान थवाथी ते मुक्त परमात्मा पण जन्म ले छे. दग्धेन्धनः पुन रुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम् ॥ मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थ शूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥ जैनाचार्य तेमना मंतव्यथी तेमनुं खंडन करवा जिनेश्वरनी स्तुति करतां कहे छे के, वळेलु लाकई जेम उगी न शके, तेम मोक्षमां गयेला कर्म रहित थएला जीवने जन्म मरण न होय छतां संसारर्नु पमर्थन करीने निर्वाण प्राप्त कर्या पछी मुक्त थइने पण र बौद्ध नायक पोतानी मेळे नवो भव लेनार पारकाने (शिक्षा करवा) माटे शूर बनेला तेणे विना विचारे बीकणपणाना अंतकाळु निर्वाण मान्यु छे (अर्थात् परोपकार करवा दुष्टने दंड देवा पोताना शाशननुं महत्व वधारवा जन्म ले छे) एवा विपरीत बोलनारा जेओ तमारी आज्ञाथी बहार रहेला छे, तेमने विषे मोह राजानु आवु प्रबळ राज्य ! (जैन धर्ममा एबु मंतव्य छे के मुक्त जीवने फरी जन्म नथी) तथा अमूर्त यवाथी तेने संग न होवाथी ते असंग छे, तथा स्त्री पुरुष नपुंसकनी गणतरीमां नथी. (त्यारे केवा छे ते कहे छे) ल विशेषथी जाणे ते परिज्ञ छे, तथा सामान्य बरोबर जाणे (देखे एची संज्ञावाळो ज्ञानदर्शन युक्त छे. प्र.-जोस्वरूपथी मुक्तात्मा है अS AAA AAACAE%. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६४०॥ www.kobatirth.org न जणाय तो, उपमाद्वारवडे आदित्यनी गति माफक जणाय छे के ? उ० – नहीं ते कहे छे, साहश वस्तुनी उपमा थाय छे के | तेनी माफक आ छे पण ते सिद्ध मुक्त आत्मानी तुलना के तेमना ज्ञान के सुखनी तुलना लोकनी वस्तुनी साथ थती न होवाथी अनुपम छे. १० - शा माटे ? उत्तर- ते मुक्त आत्मानी जे सत्ता छे ते रूप रहित छे। अने ते अरुषीपणुं उपर कल दीर्घ विगेरेनो निषेध करवाथी बतायुं छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बळी तेने पद 'ते अवस्था कोइ पण जातनी न होवाथी अपद छे, तेनुं अभिधान पण नथी के जे पद वडे अर्थ बोलाय का रण के वाच्य पदार्थनो अभाव छे. कारण के जे कहेवाय छे, तेज शब्दरूप गंध रस फरस विगेरेमांथी कोइ पण एक विशेषणथी बोलाय छे. तेनां अभाव छे ते बतावे छे. अथवा दीर्घ विगेरे शब्दोश्री रूप विगेरेनुं विशेषथी निराकरण कयूँ हवे सामान्यथी पछीना सूत्रमां निराकरण करे छे. | सेनसद्दे न रूवे गंधे न रसे न फासे, इश्चेव त्तिबेमि (सू० १७१) षष्ट उद्देशकः लोकसाराध्ययनं समाप्तम् ५-६।। ते मुक्त आत्माने शब्दरूप गन्ध रस के स्पर्श नथी आज भेदो मुख्यत्वे वस्तुना के अने तेना प्रतिषेधथी वीजां कई विशेष | भेद देखातो नथी, के जेथी अमे बीजुं बतावीए ! आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कडे छे. सूत्रानुगम कह्यो, अने तेनी समाप्तिथी अपत्र|र्गने पामेलो (मोक्ष विषय कहेवानो) उद्देशो पूरो थयो, ते मोक्षनी प्राप्तिमां तपनी वक्तव्यता थोडामां बतावी पंचम अध्ययन पुरुं थयुं 1000000em 0000 टीकाना श्लोक १९१५ थया For Private and Personal Use Only सूत्रम 1188011 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६४१॥ www.kobatirth.org घुताख्य नामनुं छहुं अध्ययन. पांचमुं अध्ययन कहं, हवे छर्छु अध्ययन कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया अध्ययनमां लोकमां सारभूत संयम अने मोक्ष बताव्यो छे, अने ते निःसंगता सिवाय संयम न होय, तथा कर्म दूर कर्या विना मोक्ष न थाय. तेथी कर्म दूर करवा आ धुत ते कर्म धानुं तावत्रा कहे छे, आ संबंधे आवेला धुत नामना अध्ययनना चार अनुयोग द्वार थाय छे, तेमां प्रथम उपक्रम छे. ते उपक्रममां अर्थाधिकार वे भेदे छे, अध्ययननो अर्थ अधिकार अने उद्देशानो अर्थाधिकार छे, तेमां अध्ययननो अधिकार १ला अध्ययनमां कहेल छे, अने उद्देशानो अर्थाधिकार कहेवा नियुक्तिकार कहे छे, मेनियगविणणा, कम्माणं वितियए तइयगंमि । उवगरणं सरिराणं चउत्थए गारवतिगस्स ॥ २५० ॥ पहेला उद्देशामां पोताना जे सगां छे, तेओनुं विधून न ( मोह त्याग) करवो जोइए. बीजा उद्देशामां घातिकर्मने दूर करवां, त्रीजामां उपकरण शरीरने, अने चोथामां त्रण गारवने दूर करवा तथा उपसर्ग के सन्मान थाय, तोपण रागद्वेश न करवो, तथा साधुओए (पूर्वे) ते प्रमाणे कर्म विगेरे धोयां छे, ते आ पांचमा उद्देशामां बतावे छे. आ प्रमाणे अर्थाधिकार बतावीने निक्षेपो | कहे छे, ते त्रण प्रकारनो छे, ओघ निष्पन्नमां अध्ययन छे, नाम निष्पक्षमां धुत नाम छे तेना चार प्रकारे निक्षेपा छे, तेमां सुग|मनाम स्थापना छोडीने द्रव्य अने भाव बतावत्रा अडधी (पूरी) गाथा कड़े छे. उवसग्गा सम्माणयविआणि पंचमंमिउसे । दव्वधुयं वत्थाई, भावधुयं कम्म अविहं ॥ २५९ ॥ For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥६४१॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आची सूत्रम ॥६४२॥ ॥६४२॥ द्रव्यधुत वे प्रकारे छे, आगमथी अने नो आगमथी तेमां आगमथी धुतनो ज्ञाता (जाणनारी) होय, पण तेमां उपयोग न होय अने नो आगमथी तो ज्ञ शरीर भव्य शरीर सिवाय द्रव्यधुत ते कपड विगेरेनी धूळ दूर करवानुं छे. (द्रव्य ते कपडां विगेरेने अने धृत ते मेल दुर करवानुं छे) । आदि शब्दथी वृक्ष विगेरे फळ माटे धोवानुं छे (मूकां पांदडां विगेरे दूर थवाथी फळ तैयार थाय छे, अथवा विना जरुरनी & वनस्पति वचमांथी निंदी काढे छे) अने भाव धूत तो आठे कर्मने दूर करवा [मोक्ष माटे] उपाय कराय ते छे, [आ अडधी गाथानो अर्थ छे.] फरी आज विषयने खुलासाथी कहे छे. ___अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माइं, भावधुयं तं वियाणाहि ॥२५२॥ | उपसर्गाने अतिशे (सारी रीते) सहन करीने कर्म धोवां, एटले देवताना के मनुष्योना के तिर्यंचोना दुःख मुखरुप जे उपसो आवे तेमां समभाव राखीने जे संसार वृक्षना बीज समान मोहनीय विगेरे कर्मोने दूर करे, ते भाव धुत छ; एवं तुं जाण अथवा क्रिया अने कारकनो भेद नथी, तेथी कर्म धुनन तेज भावधूत छे, एम जाण नामनिक्षेप कह्यो हवे त्रीजा मूत्रालापाक निप्पन्न निक्षेपामां मूत्रानुगममां अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र कहेवु ते आ छे: ओवूज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमामो जाइओ सबओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिस, से किट्टइ तेसिं समुटियाणं निक्खित्तद लावल लखकर For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ६४३॥ ण्डाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिमम्गं, एवं (अवि) एगे महावीरा विपरिक्कमंति, आचा० पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपन्ने से बेमि, से जहावि (सेवी) कुंमे हरए विणिविट्ठचित्ते ॥६४३॥ पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति एवं ( अयि) एगे अणेगरूवेहि कुलेहिं जाया रूवेहि सत्ता कलुणं थणति नियाणओ ते न लभंति मुक्ख, अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया गंडी अहवाकोढी, रायसी अवमारियं काणियं झिमियं चेव, कुणियं सुज्जियं तहा ॥१॥ उदरिंच पास मूयं च सुणीयंत्र गिलासणि वेवई पीढसप्पि च, सिलिवय महुमेहणि ॥२॥ सोलस एएरोगा, अक्खाया अणु पुवसो अहणं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥३॥ मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं च नच्चा, परियागं च संपेहाए (सू० १७२ ) स्वर्ग तथा मोक्ष, तथा तेनां कारणो तेमज संसारनां कारणोने आवरणरहित (केवळ) ज्ञानना सद्भावथी जे माणस जाणे; अने 8 आमरी (मनुष्य)-लोकमां मनुष्योनो धर्म समजावे एटले, ते घातिकर्म दूर थयां पछी; पोते अघातिकर्मरूप [शरीरधारी] मनुष्यलपणामां रहेला थको धर्म कहे छे: For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०॥४ IP पण जेम-बौद्धमतमां भीत विगेरेमाथी पण धर्मोपदेश प्रकट थाय छे. तेम जैनधर्ममां नथी; अथवा जेम, वैशेषिकोनुं उलुक भाववडे पदार्थोनुं बताववापणुं छे, ए, अमारुं (जैनशासन) नथी. सूत्रम प्र.-शा माटे ? उ०-घातिकर्म क्षय थया पछी, केवळ ज्ञान उत्पन्न थवाथी मनुष्यपणामां रहेलाज (तीर्थकर) पोते कृतार्थ ॥६४४॥ थया छतांपण, जीवोना हितने माटे मनष्य अने देवोनी सभामां धर्मनो उपदेश करे छे. H॥६४४॥ प्र.-तीर्थङ्करज धर्म कहे छे, के, बीजो पण कहे छे ? उ०-बीजो पण कहे छे. जेने विशिष्टज्ञान होय, अने सारीरीते • पदार्थोनो परिच्छेदक होय; ते धर्मोपदेश करे छे. ते कहे छे: जेओ अतींद्रियज्ञानि छे, अथवा श्रुत केवळी छे, तेओ धर्म कहे छे. एवं शस्त्रपरिज्ञा नामना १ला अध्ययनमां कहेल छे. (तेथी 81 आ प्रत्यक्ष सूचक-विशेषणवडे मूचव्यु के,) ते विशिष्टज्ञानीए आ एकेन्द्रिय विगेरे जातीओ बधा प्रकारो एटले सूक्ष्मवादर पर्याF -अपर्याप्तरूपे बरोबर रीते [शंकारहित ] जाणेली छे, तेज साधु धर्म कहे छे. पण, एम न जाणनारो बीजो ( अजाण ) धर्म कहेतो नथी. तेज कहे छे:___'स आख्याति' ते तीर्थङ्कर अथवा सामान्य केवळी अथवा अतिशय ज्ञानी [जातिस्मरण-ज्ञानवाळा, अवधिज्ञानी, मनःपर्यव M. ज्ञानी] अथवा श्रुत केवळी होय ते कहे छे. प्र०-शुं कहे छे, जेनावडे जीव विगेरे पदार्थो जणाय छे, ते ज्ञान मति विगेरे पांच है। प्रकारनुं छे, ते, प्र०-ते ज्ञान केवु छे ? उ०-तेवू बीजे नथी, माटे 'अनीदृशं' हे, अथवा सकल [वधा] शंसयने दूर करवावडे धर्म संभळावता तेज पोतानुं अनन्य सदृश (अनुपम) ज्ञान बतावे छे, [अर्थात् संसारी ज्ञानथी तृष्णा वधे, पण तेमना उपदेशना ज्ञानथी AAAAA ** * For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम् ॥६४५॥ ल/ तृष्णानी जड दूर थाय माटे ते ज्ञान अनुपम छे] प्र०-तेओ कोने धर्म कहे छे ? उ.-ते तीर्थकर गणधर विगेरे यथावस्थित भावो आचाI(पदार्थो) ने धर्मचरण माटे योग्यरीते जे पुरुषो उठेला होय, तेमने कहे छे, अथवा द्रव्यथी शरीरवडे, अने भावथी ज्ञान विगेरेना ॥६४५॥ 18 उत्सुक बनी विनय सहित (उमा थया होय) तेमने धर्म कहे छे. समोसरणनो विनय समोसरणमा स्त्रीओ बन्ने प्रकारे उभी थइने विनय पूर्वक सांभळे छे, अने पुरुषो उभा थइने अथवा बेठा रहीने पण सांभळे पण भावथी उत्सुक होय; तेमज बीजा उठेलां जीवो, तथा देवता अने तीर्यच विगेरेने धर्म संभळावे छे. एटलंज नहि पण जेओ X भाव विना फक्त कौतुक विगेरेथी आवी सांभळे, तेमने मण धर्म कहे छे, भावथी उठेलानुं विशेषथी कहे छे. M. मन वचन कायाने जेमणे कबजे लीधां छे, एटले मन वचन कायार्थी जीवोने दुःख देवारुप जे दंड छे, ते दुर करवाथी ते निक्षिप्त दंडवाळा [संयम पाळनारा) छे. तथा तप संयममां उद्यम करवाथी समाहित (शांत) अंतःकरणवाळा छे, तेमने जिनेश्वर वि| शेषथी धर्म कहे छे, तेज प्रमाणे प्रकर्षथी जणाय ते प्रज्ञान छे, तेवु ज्ञान धरावनार बुद्धिमानोने आ मनुष्यलोकमां ज्ञानदर्शन चा |रित्ररुप मुक्ति मार्ग छे ते बतावे छे, आ प्रमाणे समोसरणमां साक्षात् धर्म संभळावतां केटलाक लघुकर्मी जीवो (पूर्ण श्रद्धा थतां) | तेज वखते चारित्र ग्रहण करे छे, पण बीजा तेम चारित्र लेता नथी, ते कहे छे, एटले उपर कह्या प्रमाणे कर्मविवर जेमने मळ्यु | तेवा केटलाक भव्यात्माओ जिनेश्वर पासे धर्म सांभळतांज सयम संग्रामनी टोचे पराक्रम बतावे छे, अथवा पर ते इन्द्रियो अथवा लं कर्म शत्रुने जीतवा पराक्रमी बने छे, (अपि शब्दनो अर्थ 'च' छे, अने 'च' नो अर्थ वाक्यनो उपन्यास करवा माटे छे) हवे तेथी For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उलडं कहे छे. तीर्थङ्कर पोते वधा संशयने छेदनारा धर्म कहे छे, छतां केटलाकने प्रबळ मोहना उदये घेरी लेवाथी संयममां खेद पामता रहे छे, (कांतो संयम लेता नथी, ले, तो पूरो पाळता नथी) तेवाने तमे जुओ [गुरु शिष्यने कहे छे] ते बोळा कर्मी संयग्रमां दुःख पामता जीवो केवा छे. ते कहे छे, आत्माना हितने माटे जेमनी प्रज्ञा [बुद्धि] काम करती नथी, ते अनात्म (कुबुद्धिवाळा ) छे, प्र० – तेओ शा माटे संयममां खेद माने छे ? उ० - हुं हुं छे. अहीं दृष्टांत बडे समजावे छे के शाकारणे तेओ खेद पामे छे. [सूत्रमां 'से' शब्द 'ते' ना अर्थमां छे, 'अपि' शब्द 'च'ना अर्थमां छे, अने ते वाक्यना उपन्यास माटे हे ] कुंडना काचवानुं दृष्टांत. कोइ काचो मोटा कुंडमां विनिविष्ट[प्रेमी] चित्तवाळो वनीने गृद्ध बनेलो अने पलाश (कोमळ पांदडांवडे) डंकायलो (तथा मूत्रमां प्राकृतना नियम प्रमाणे व्यत्यय करवाथी) उन्मार्ग एटले, उपर आववानां विवर (छिद्र) ने मेळवतो नथी; अथवा, जेनावडे उंचे कुदाय ते उन्मज्य छे. अथवा, उचे जवाय ते, उन्मार्ग छे, तेवो उन्मार्ग मेळवी शकतो नथी. अर्थात् जे कुंडमां ते काचवो रहेल छे, ते, पाणी उपर पiesi विगेरे छवाइ जवाथी बीलकुल ढंकाइ गयो छे. तेथी ते काचवो बहार आवी शकतो नथी. आ कहेवानो आ सार है: कोइ मोटो कुंड होज] एक लाख जोजनना विस्तारवाळो छे, अने ते अतिशे शेवाळना झुंडी कठण बनी गयेला जाळोना समूहथी ढंकाइ गयलो छे, अने ते कुंडना जुदा जुदा रुपत्राळा करि मगर, माछलां, विगेरे जळचर जीवोनो आश्रय छे, तेना मध्य भागमां कुदरती एक फाटतुं बाकुं पडेलुं हतुं. जेमां फक्त काचवानी गरदन उंचे आवी शके; तेवा कुन्डमांथी एक काचवाए पोताना टोलांथी जुदां पडतां त्रियोगथी आकुळ बनीने आम तेम गरदन फेरवतां कोइपण रीते तेवी भवितव्यताना योगथी ते काणामांपो For Private and Personal Use Only सूत्रम ||६४६ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IG सूत्रम् ॥६४७॥ & तानी गरदनने बहार काढी; ते समये त्यां तेणे शरदऋतुना चंद्रनां चांदरणाथी क्षीरसागरना पाणीना प्रवाहथी छवाइ रहेलं शोभाआचा० * यमान बनेलु तथा, खीलेला कुमुदना समूहथी पूजा करवा जेवा उगेला ताराओथी भराइ गयेलुं आकाश जोयु. ॥६४७॥ ____आवु देखीने ते घणो खुश थयो; अने तेना मनमां आ प्रमाणे संकल्प थयो के–मारा सहचारी मित्रो आ स्वर्गसमान पूर्व न देखेनुं मनोरथ (विचारमा) पण, न कळी शकाय; तेवू ते काचवाओ जुए, तो बहु सारुं थाय. आ प्रमाणे विचारो शीघ्रताथी MI पाताना बन्धुओने शोधवा माटे भटक्यो; अने तेमने मळीने तेमने तेवू बताचवा माटे पेलं छिद्र शोधतो आम तेम भटके छे, छतां, होजनी विस्तीर्णताथी, तथा जीवोनो समूह त्यां घणो मोटो छे, नेथी ते छिद्र मेळवी शक्यो नहिः पण, त्यांज ते, (विनादेखे) मरण X पाम्यो. तेनो सार आ लेबानो छे के-संसाररुपी-होज छे. तेमां जीवरुपी-काचयो छे, कर्मरुपी-चीकणी सेवाळ छे, तेमां छिद्र | समान-मनुष्यजन्म, तथा आक्षेत्र सुकुळ मां जन्म मळयो; अने सम्यक्त्वनी प्राप्तिरुप-मुंदर चन्द्र वाळं आकाशतळ मेळवीने मोहना उदयथी पोतानी ज्ञाति माटे, अथवा विषयस्वादना उपभोग माटे सारां संयममा अनुष्ठान न करता, सफळता (मोक्षने) पामतो नथी; अने तेवीरीते वखन गुमावी; ते सामग्री गुमावी देवाथी पाछोकाचवाना विवर माफक क्याथी तेवी उत्तम सामग्री मेळवी शके ? आ कारणथी गुरु उपदेश आपे छे के, हे भव्य ! सेंकडो भवोमां पण, दुष्पाप्य एवं कर्मविवररुप-सम्यक्त्व पामीने एकक्षण 12 मात्र पण, तमारे प्रमादवाळा न थq. फरीथी पण, संसारलुब्ध-जीवोनुं बीजं दृष्टांत कहे छे:8 भंजगा-वृक्षो पोते ठंड, ताप, धुजारो [कंप] छेदन शाखा (डाळीओनु) खेंचबु क्षोभ पमाडवो मरडवु भांगीनाखवू. ल एवां अनेक उपद्रवों ने सहेवा; छतां पण, पोतानां स्थानने तेमां स्थिर बनीने ते छोडतां नथी. ते प्रमाणे साधुने बोध आपे छे के, CEBOOK For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18/ ए वृक्षो प्रमाणे जेओ कर्मथी भारे छे, तेवा मोहांध-जीवो अनेक उंचनीच कुळमां उत्पन्न थइने धर्मचारित्रने योग्य पोते होवा छतांश पण रुप विगेरेनी चक्षुइन्द्रियोनी अनुकुळतामां, अने तेज प्रमाणे मधुर अवाज विगेरे विषयोमा गृद्ध बनी शरीर मननां दुःख भोगआचा० IP वा छतां; राजाना उपद्रवथी पीडावा छतां, अने अग्निदाहथी बधुं बळी गयेला जेवा बनवा छतां, अने जुदा जुदा निमित्तथी अ सूत्रम ॥६४८॥ | नेक आधि (चिंतावाला) छतां पण सकळ (वधां) दुःखोना घरसमान -गृहवासनुं कर्म छोडवा समर्थ थता नथी; पण, घरमां रही- ॥६४८॥ & नेज तेवां दुःखो आवतां दीन स्वरे रडे छे, अने बोले छे के, "हे बाप! हे मा! हे दैव ! आवा अवसरे तमने आवु दुःख देवू से योग्य नथी! तेज का छे के: किमिदम चिन्तित मसदृश, मनिष्ट मतिकष्टमनुपमं दुःखं ॥ सहसैवोपनतं मे, रयिकस्येव सत्वस्य ॥१॥ न चिंतवेलु अजायबीवाळु अनिष्ट, तथा अनुपम आq (भयंकर) दुःख जेम नारकीना जीवने आवे; तेम मने एकदम क्याथी आवी पडयुं छे ! विगेरे, ते बोले छे. अथवा रुप विगेरेमा आसक्त थएला चीकणां कर्म बांधीने नरक विगेरेमां उत्पन्न थइ त्यां दुःख भोगवतां करुण स्वरे उपर 8 मुजब रडे छे, अने ते प्रमाणे करुण स्वरे रडवाथी पण ते रांकडो जीव ते दुःखथी मुकातो नथी, ते बतावे छे. दुःखद् निदान ते उपादान कर्म छे, तेनावडे दुर्गतिमां उत्पन्न थएला दुःख भोगवतां रडवा छतां पण त्यांथी दुःखनी मुक्ति (छुटकारो) अथवा मोक्षy कारण जे संयम अनुष्ठान छे, ते पामी शकता नथी, अने दुःखना छुटकाराना अभावमां संसार उदरमा जुदी जुदी व्याधियोथी घेरायला जीवो आम तेम भमे छे, ते बतावे जे (अथ शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे) हे शिष्य ! तुं जो! ते संसारी रखडता जीवो -व-नाव For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥६४९॥ ॥६४९॥ ई उच्च नीच कुळमां पोताना शुभ अशुभ कर्म भोगववाने गयेला (जन्म पामेला ) छे, अने ते कर्मना उदयथी आवी अवस्थाने P भोगवे छे, तेमां तेमने उत्पन्न यता सोळ रोग बतावनार त्रण इलोको छे. तेमां (१) प्रथम रोग, वात, पित्त, श्लेष्म अने ते | सूत्र त्रणेना भेगा थवाथी संनिपात एम चार प्रकारे गंड (कंठमाळ) छे, ते गंड जेने होय ते गंडी कहेवाय छे, एटले गंडमाळा नामनो रोग ते संसारी जीवने थाय छे, तेज प्रमाणे बीजा पण रोगो थाय छे, ते बतावे छे, ( अथवा शब्द दरेक रोग साथे जोडवो) अथवा राजांसी एटले अपस्मार (क्षयनो भेद ) विगेरेनो रोग धाय छे, अथवा अढार प्रकारना कोढ रोगवाळो कोढीयो थाय छे. तेमां सात मोटा कोढ छे, ते आ प्रमाणे 8 (१) अरुणो (२) दुम्बर (३) निश्यजीव्ह (४) कपाल (५) काकनाद (६) पौण्डरीक (७) दद्रु. ( लाल दादर) आ साते 18 प्रकारना कोढो बधी धातुमा प्रवेश थवाथी अने असाध्य थइ जवाथी ते साते भयंकर छे. नीचला अगीआर कोढ क्षुद्र छे. (१) स्थूळ आरुष्क (२) महाकुष्ट (३) एककुष्ट (४) चर्मदळ (५) परिसर्प [६] विसर्प [७] सिध्म [८] विचर्चिका द (काळीदादर ) [९] किटिभ (खरसवू ) [१०] पामा (खस) [११] शतारुक (घणी फोल्लीओ.) कुल नाना मोटा १८ छे, ते सामान्यथी जोतां, बधाए कोढ-रोगो संनिपातथी थाय छे. छतां पण, वात विगेरेना ऊत्कट दोषथी जुदा जुदा भेदवाळा गणाय P 8.छे. तथा, राजांस रोग ते, राज्यक्ष्मा (क्षय) रोगवाळो, राजांसी (क्षयो) कहेवाय छे, अने ते क्षयरोग संनिपातथी चार कारणे थाय छे. कर्जा छे के: -%यक्रमका 5- 5A SHOT For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६५०॥ www.kobatirth.org त्रिदोष जायते यक्ष्मा, गदो हेतुचतुष्टयात् वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद्विपमाशनात् ||१|| अपस्मार त्रणदोषवाळो यक्ष्मा (क्षय) नामनो रोग वीर्यना वेगना रोधथी वेगना क्षयथी, साहस करवाथी; तथा विषम [ अयोग्य ] खोराकथी- एम चार कारणे थाय छे, तेज प्रमाणे अपस्मारनो रोग वात, पित्त अने कफना संनिपातयी चार प्रकारे छे, ते रोगवाळो सारा माठाना विवेकथी विकल होय छे, तथा भ्रम (चक्री) मूर्छा विगेरेनी अवस्थाने ते रोगी भोगवे छे. कहां छे के, भ्रमावेशः ससंरम्भो, द्वेषोद्रको हृतस्मृतिः अपस्मार इति ज्ञेयो, गदो घोरश्वतुर्विधः ||२|| भमेळ चडे, मूर्छा विगेरे थाय, द्वेषनो उछाळो थाय, विसरी जवानी टेव थाय, एम चार प्रकारनो आ घोर रोग जाणवो. तेमां ब्रह्मरंध्र पर्यंत भ्रमण करनारो वायु छे, तेनुं मुख्य स्थान हृदयनो प्रदेश छे. तथा 'काणियंति' अक्षि [ आंख ] नो रोग बे प्रकारे छे, प्रथमनो गर्भमांज रोग थाय छे, अने बीजो जन्म्या पछी थाय छे, तेमां गर्भवाळाने दृष्टिनो भाग अपूर्ण होय छे, तेने तेज ( प्रकाश ) जन्मथी आंधळो बनावे. तेज प्रमाणे, एक आंखमांथी तेज जतां काणो बनावे छे. तेज प्रमाणे रक्तप णामां जतां, रक्तता - [लालाश आंखमां वधारो होय.] पित्तपणामां जतां, पिंगाक्ष [ पीळी आंखवालों] अने श्लेष्मपणाने पामतां शुकलाक्ष (घोळी आंखवाळो ) बने छे, वातने पामतां विकृत आंखवाळो बने छे, अने जन्म्या पछी जे रोग थाय; ते वात विगेरेथी अभिष्यंद - ( आंखमांथी पाणी झर) थाय छे. कहां छे के: वातात्पित्तात् कफाद्रक्ता, दभिष्यन्दश्चतुर्विधः प्रायेण जायते घोरः वात, पित्त, कफ, अने रक्त- (लोही.) ए चारथी अभिष्यंद चार प्रकारे पाणी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सर्व नेत्रामयाकरः ॥ १ ॥ झरतुं थाय छे, अने पायेकरीने तेथीज सूत्रम ॥६५०॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६५१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | आंखना बधा रोगोनो घोर आकर (समूह) थाय छे तथा 'जिमियंति' जाडयता - (चरबीनुं वध; अने लोहीतुं पाणी थ.) तेथी शरीरनां बधां अवयवों परवशपणुं ( अवशित्व ) छे. [ जेने लीधे जोइए, तेम, हाली - चाली शकाय के, फरी शकाय नहि ] 'कुणियंति' गर्भाधानगा दोषथी एक पग टुंको होय; अथवा, एक हाथ खोडवाळो होय ते कुणिरोग छे. ' खुज्जियंति ' कुबडो . पीठ विगेरेमां कुबडापणं होय; ते, 'कुबजी छे.' मातपिताना लोही-वीर्यनो दोष होय; तो तेथी, गर्भमां रहेला दोपोथी कुब्ज - (कुबडो) वामन विगेरेनी खोडो शरीरमां थाय छे; कहां छे केः गर्भे वातप्रकोपेन, दौहृदेवाऽपमानिते । भवेत् कुब्जः कुणिः पंगुर्मूको मन्मन एवा वा ॥ १ ॥ गर्भनी अंदर वायुना प्रकोपथी अथवा दोहला न पूरावाथी गर्भमा रहेलो जीन कुबडो कुणिरोगवाळो पांगळो मुंगो के मन्मन रोगवाळो थाय छे, आंमां 'मुंगो' अने मन्मन एकांतरित (पेटना रोग पछीना रोगमां) मुखदोषमां बतावे छे, तथा 'जंदरि च' ति ( 'च' समुच्चयना अर्थमां छे ) वात, पित्त विगेरेना कारणे उत्पन्न थयेला आठ प्रकारना उदर रोग छे, ते रोगवाको उदरी छे, | तेयां जलोदर रोग असाध्य छे, बाकीना तुर्त थएला दवा करतां मटे तेवा छे, तेना आ प्रमाणे भेदो छे. पृथक् समस्तैरपि चानिलाद्यैः प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव || आगंतुकं सप्तममष्टमं तु जलोदरं चेति भवंति तानि ॥ १ ॥ वधा अनिल [वायु] विगेरे एकेकथी के समुदायथी १ वायुनो ( वातोदर) २ पित्तनो [पितोदर ] ३ कफनो (कफोदर ) तथा ४ संनिपात (कष्टोदर) पालीह (बरोळनी गांठ) ५ उदर रोग (काचवी अकृत विगेरे) ६ बद्धगुद [अजीर्णाश] ७ आंगतुक ताव साथै उदर रोग (जीर्णज्वर) ८ जलोदर ए आठ रोग पेटना छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६५१॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'पासमूयंति' हे शिष्य ! तुं मुंगा अथवा मन्मन (बोबडं बोलनाराने जो, ! ते गर्भना दोषथी अथवा पछवाडेथी ६५ प्रकारना मुखनारोगो सात आयतन [स्थान]मां थाय छे, ते आयातन नीचे मुजब छे, १ होठ २ दांतनुं मूळ ३ दांत ४ जीभ ५ ताळबुं ६ कंठ ए बधां मळीने सात छे, तेमां वे होटना आठ रोग छे, दंतमूळमां १५, दांतना आठ छे, जीभना ५ छे, ताळवाना ९ छे, | कंठमां १७ अने बधाना साथै मळीने त्रण छे. कुल ६५ छे, 'सूणियंति' शून्यपणुं श्वयथु [सोजानो] रोग वात पित्त श्लेष्म संनिपात रक्त अने अभिघात ( मार लागवाथी ) थी छ प्रकारनो छे, कां छे के: शोफः स्यात् षड्विधो घोरो, दोषै रुत्षेध लक्षणः यस्तैः समस्तैश्वापीह तथा रक्ताभिघातजः शोफ नामनो छ प्रकारनो घोर रोग जुदा जुदा के, सामटा दोषथी शरीर फुलेलुं देखाय; ते लोहीना विगाथी थाय छे. एटले, श्लोक पहेलां बताव्या प्रमाणे वात, पित्त, कफ, अने संनिपात, रक्त, अने अभिघातथी सोजानो रोग थाय छे, तथा |" गिलासणिति” ते भस्मक नामनो व्याधि छे. ऊष्णता, वात, अने पित्तना उत्कटपणाथी, अने कफना न्यूनपणाथी तथा गरमी वधारे थवाथी थाय छे, तथा वेबइंति ते वायुथी उत्पन्न थयेल शरीरनां अवयवो कंपरूप छे, कथुं छे केः प्रकामं वेपते यस्तु, कंपमानश्च गच्छति, कलाप खंजं तं विद्या, न्मुक्त संधिनिबंधनम् ॥१॥ जे घणो कंपे, तथा कंपतो चाले, तेने संधि निबंधनथी मुकाएलो कलाप खंज ( लकवानो रोग ) जाणवो. तेज प्रमाणे “पिढसपि च ति” जीवने गर्भना दोषथी ते पीढ सर्पिपणे उत्पन्न थाय छे, अथवा जन्म्या पछी अशुभ कर्मना दोषथी थाय छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६५२ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा० समत्र ॥६५३॥ ॥६५३॥ आ रोगीने स्पर्श इंद्रिनं भान रोगवाळी जग्याएथी नष्ट थाय छे, ते रोगवाळाने हाथमां पकडेलुं लाकडं खसी जाय छे, अने सूइ& घोंचे तो पण असर न थाय तथा 'सीलीवयं त्ति' श्लीपद ते पग विगेरेमां कठण पणुं होय छे, ते आ प्रमाणे-वात, पित्त, कफना प्रकोपथी छातीमा रोग उत्पन्न थइ जंघामां स्थिर थइ धीरे धीरे काळांतरे पगोनो आश्रय करीने सोजो चडावे छे, ते रोगोने श्ली-|| पद कहे छे. पुराणोदक भूमिष्ठाः, सर्वर्तुषु च शीतलाः ये देशा स्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥१॥ जे देशमां पाणी भराइ रहेलं होय, अने छए ऋतुमां शीतल (भेज) रहेतो होय, तेवा देशोमां विशेषे करीने इलीपद रोग थाय छ यादयोहस्तयोश्चापि, श्लीपदं जायते नृणां; कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचि दिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥ बे पगमां वे हाथमां माणसोने ते रोग थाय छे, पण केटलाक विद्वानोनो एवो मत छे के ते रोग कान होठ अने नाकमा 5 पण थाय छे. तथा 'मधुमेहणि' ति मधु मेह ते 'बस्ति रोग' छे ते जेने होय ते मधुमेहि कहेवाय छे, एटले मधना जेवो तेनो पेसाब होय छे, ते प्रमेह, (परमीआ) ना २. भेद छे, ते असाध्य पणे गणाय छे. तेमां वधाए प्रमेहो पाये वधा दोषोथी थाय छे, तो पण वात विगेरे उत्कट थवाथी २० भेदो थाय छे, तेमां कफथी १० पित्तथी ६ अने वायुथी ४ थाय छे, अने ए बधा असाध्य अवस्थामां मधुमेहषणामां थाय छे. कड्यु छे केः सर्वएव प्रमेहास्तु, कालेना पतिकारिणः मधुमेहत्वामायान्ति, तदाऽसाध्या भवंति ते ॥१॥ AA- For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६५॥ www.antarmong वधा प्रमेहना रोगो योग्य समयमां दवा न करवायी मधुमेहपणुं पाम्या पछी असाध्य बने छे. आचा० आ प्रमाणे उपर बतावेला सोळे रोगोनुं वर्णन अनुक्रमे कर्यु, ('अथ' अने 'ण' जे छे. ते 'अथ' नो अर्थ गुजरातीमा 'पछी' ट्रसत्रम । थाय छे. अने 'ण' तो फक्त शोभा माटे छे) उपर बतावेला रोगो संसारी जीवने थाय छे, तथा आतंक एटले शीघ्र जीव लेण रोग । ॥६५४॥18जे शूळ विगेरे छे, तथा गाढ प्रहार (नोरथी लागेलो मार) विगेरे दुःख देनारा स्पर्शो का तो अनुक्रमे आवे अथवा साथे पण थाय, 12 एटले कंइ निमित्तथी आवे अथवा अनिमि आवे, अने ते रोगोथी पीडाय छे. आरोगोथीन ते मुकातो नथी. बोजु पण ते संसारी जीवने अधिक दुःख थाय छे, ने बतावे छे, ते कर्म रोगथी भारे ययेला गृहवासमा आसक्त थएला मनवाला अ समंजस रोगथी 13 पीडा थतां अंते प्रणित्याग थाय छे. ते विचारीने अने पाछो तेमनो उपपात तथा च्यवन (देवता जन्म मरणने बदले उपपात च्य-181 । वन कहेवाय छे.) ते कर्मनुं संचित जाणीने एवं करवू जोइए के जेथी उपर बतावेल गंड (गुमडां) विगेरे १६ रोग तथा मरणनो तथा उपपातनो संपूर्ण अभाव थाय, वळी मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगथी मेळवेल कर्मनो 'अबाधा' काळनी मुदत पछी 3/ उदय थाय छे. त्यारे तेनो परिपाक (अनुभव) थाय छे. तेज शरीर तथा मन संबंधी दुःख उत्पन्न करे छे, ते विचारीने तेने जड मुळ्थी काढवा प्रयत्न करवो जोइए; ते दुःखीओ दीनस्वरे रडे छे. विगेरे ग्रंथ (मूत्र) वडे ऊपपात. तथा च्यवन मुधी बताच्या छतां पण, तेनुं मोटापणुं बताववा जेनावडे पाणीओने संसारमा निर्वेद (खेद) उत्पन्न थाय; माटे बोजु मूत्र कहे छे: तंभुणेह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तामेव सई असई अइअच्च उच्चावय वनबावला For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र ॥६५५॥ आचा० 18 फासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं संति पाणा वासगा रसगा उदए उदएचरा आगास गामिणो पाणा पोणे किलेसंति, पासलोए महब्भयं (सू० १७७) (आचार्य शिव्यने कहे छे.) ते यथावस्थित (जेवो छे, तेवा) कर्मविपाकने मारी पासे तमे सांभळो. जेमके-नारकी, तिर्यच, नर, अमर, ए लक्षणवाळी चार गतिश्रो छे. तेमां नरकगतिमां, चारलाख योनियो, तथा २५ लाख कुल कोटि ओ छे, अने ३३ | BM सागरोपमनी ऊत्कृष्ट स्थिति छे, त्यां परमाधार्मिक देवतानी करेली वेदना छे, तथा परस्पर त्यां रहेला नारकीना जीबो (कुतरा माफक) एक बीजाने दुःख दे छे, तथा स्वभाविक पीडा त्यां जे थाय छे, ते आपणाथी कही शकाय तेम नथी. जो के, थोडामां कहेवानी इच्छाथी कहेवाना विषयने पूरो न कहेवाय; तोपण, त्यांना कर्मविपाक कहेवाथी जेम, प्राणीओने वैराग्य थाय; तेम श्लोकोवडे वर्णन करे छे. श्रवण लवनं नेत्रोद्धार करक्रम पाटनं । ह्रदय दहनं नासाच्छेदं पतिक्षण दारुणम् ।। कट विदहनं तीक्ष्णापात त्रिशूल विभेदनम् । दहयवदनैः ककोरैः समन्त विभक्षणम् ॥१॥ कानने कापवा; आंखोना डोळा खेंचीकाढवा; हाथपगने छेदवा; छातीने बाळवी; नाक छेदीनाखवू; दरेकक्षणे भयंकर अवाज करवो कटविदहन, तीक्ष्ण आपात, त्रिशूळथी भेद; बळनां मोढांचाळा घोर-कंक पक्षीओथी वारंवार भक्षण करवं. आवी मोटी वेदनाओ पामाधामीथी छे. SECity सकल For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६५६॥ www.kobatirth.org तीक्ष्णैरसिभिर्दिप्तैः कुन्तै विषमैः परश्वधै ; परशु त्रिशूलमुद्गरतामरे वासी मुवंढी ॥ २ ॥ वळी, देदीप्यमान तीक्ष्ण तलवारोथी तथा विषमभाला, परशुअभ चक्रोवडे, तथा परशु-त्रिशूळ मुद्गर, तोमरवासी मुषंढीथी दुःखदेछे. संभिन्नतालु शिरस छिन्न भुजारिछन्न कर्णना सौष्ठाः भिन्नहृदयोदरान्त्रा भिन्नाक्षि पुटाः सुदुःखार्त्ता ॥ ३ ॥ एटले, ताळ - माथु जुदु पाडे छे, तथा भुजा, कान, अने होठ छेदी नाखे; तथा छाती पेट, आंतरडां भेदीनांखे; तथा आंखोना डोळा खेंची काढवाथी रांक नारकीना जीवो पीडायला छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपतन्त उत्पतन्तो विचेष्टमाना महीतले दीनाः नेक्षते त्रातारं नैरयिका कर्म्म पटलान्धाः ॥ ४ ॥ नीचे पडेला पाछा ऊछळता जुदी जुदी चेष्टा करता महीतळ (पृथ्वी) उपर दीन थइ रहेला कर्मना पडदाथी अंधा बनेला नारकीना जीवो कोइ रक्षकने जोइ शकता नथी. शार्दुल विक्रिडित, छिन्द्यते कृपणाः कृतान्त परशो स्वीक्षणे न धारासिना; क्रदन्तो विषवीचि (वच्छ ) भिः परिवृता संभक्षण व्यावृतैः ॥ पाटयते क्रकचेन दारुवदसिन प्रच्छिन्न बाहुद्वयाः कुंभीषु त्रपुपान दग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ ५ ॥ जमराजा परशुनी तीक्ष्ण तलवार जेवी धारावडे ते रांकडा छेदाय छे, तथा विषना समूहथी भरेला. (हडकायला कूतश जेवा) करडवा माटे वींटायला पोकार करता रहे छे, तथा करवतीवडे जेम, लाकडं चीरे; तेम चीराय छे, तथा तलवारवडे सेना वे बाहु छेदी नाखे छे. तथा कुंभीमां राखीने गरम गरम तरवं पाय छे, तथा मषमां (घालीने जेम सोनी सोनुं पीगळावे; तेम) घालीने For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६५६॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir & शरीरमां वळता राखेला छे. आचा० भृज्ज्यन्तेज्वलदम्बरीषहुतभुग ज्वालाभिराराविणो, दीप्तां गारनिभेषु वज्र भवनेष्वं गारके त्थिताः ॥ | सूत्रम् ॥६५७॥ दह्यन्ते विकृतोत्र बाहुबदनाः दन्त आर्गस्वनाः पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणा खाणायको नो भवेत् ॥ ६ ॥ ॥६५७॥ वळी, ते नारकीना जीवो वळता अंबरीय अग्निनी ज्वाळावडे पोकार कराता भुंजाय छे, तथा वळता अंगारावाळा वज्रभवन माफक अंगारामां ऊभा ययेला रांकडा मोवाळा ऊंचा हाथ करीने खोखरा अवाजवाळा रडता बळे छे. अने ते विचारा नारकीना जीवो शरणरहित थइने बधी दिशामां (आश्रय) आपनारने देखे छे, पण तेमने बचाववा कोइ समर्थ नथी; विगेरे, नारकीनां दुःख । छे. तथा तियग्गतिमां पृथ्वीकायनी ७ लाख योनि छे, तथा बार लाख कुल कोटि छे. तेमने नीचली (पीडाओ) छे. स्वकाय-परकायनां शस्त्रोथी पीडा छे, तथा शीत-ऊष्णनी पीडा छे. तेज प्रमाणे अकाय (पाणी) ना जीवोनी ७लाख र योनि, तथा कुल कोटि, तथा जुदी जुदी जातिनो वेदनाओ छे. अग्निकायनी ७ लाख योनि, तथा ३ लाख कुल कोटि, अने पूर्व माफक वेदना छे. वायुनी पण ७ लाख योनि, तथा ७ लाख कुल कोटि, अने ठंड-ऊष्णतानी जुदा जुदा प्रकारनी वेदना छे. 181 प्रत्येक वनस्पतिनी दशलाख योनि, साधारण वनस्पतिनी १४ लाख योनि, अने बनेनी २८ लाख कुल कोटि छे. तेमां गयलो जीव अनंतकाळ मुधी पण छेदन-भेदन मोटन विगेरेनी जुदी जुदी वेदनाने अनुभवे छे. विकळइंद्रिय, बेईद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रियनी बबे लाख योनि, तथा कुल कोटि ७-८-९ लाख अनुक्रमे छे, अने ते दरेकने ४ भूख तरस, ठंड-ताप, विगेरेथी यतुं दुःख आपणे प्रत्यक्ष जोइए छीए. तीर्यच-पंचेन्द्रियनी चारलाख योनि छे, अने जळचरनी कुल ४ ANS-SER SROGESEX For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६५८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोटि १२॥ लाख छे, पक्षीओनी कुल कोटि १२ लाख, अने चोपगांनी १० लाख, ऊर परि सर्वनी १० लाख, भुज-परिसर्पनी १९ लाख छे, अने जुदी जुदी वेदना तिर्यचांनी जे छे, ते प्रत्यक्ष छे. कधुं छे केः- क्षुत्तृड् हिमात्युष्ण भयार्दितानां पराभि योगव्यसना तुराणां अहो ! तिरश्चामति दुःखिताना, सुखानु पंगः किलवार्त्तमेतद् || १ || भूख तरस, ठंड ताप तथा भयथी दुःखी थपला तथा पारकाना कबजामां रहेवाना दुःखथी सदा पीडायेला एवा तिर्यचो जे अति दुःखी छे, तेमनामां सुखनो अनुसंग शोधत्रों ने तो निचे एक वार्त्ता मात्र छे! (अर्थात् सुखतो लेश पण नथी) विगेरे छे. मनुष्य गतिमां पण १४ लाख योनि तथा १२ लाख कुल कोटि अने आवी रीतनी वेदनाओ छे. दुःखं स्त्री कुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां बालत्वेचापि दुःखं मललुलिततनुः खीपयः पानमिश्रं || तारुण्येचापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोप्यसारः संसारे रे मनुष्या वदत यदिसुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ॥ १ ॥ प्रथम मातानी कुखमां आ भवमां पहेलं दुःख मनुष्योने गर्भवासमा रहेवानुं छे, अने जन्म्या पछी बालपणामां मलथी खरडायलं शरीर संबंधी तथा मानुं दूध पीत्रानुं दुःख छे, जुवानीमां पण (स्त्री पुरुष तथा दीकरा दीकरी मावाप संगांना) विरहनुं दुःख छे, अने वृद्धावस्था तो असारज छे, (माटे डायो माणस मुग्ध जीवने पूछे छे के) हे मनुष्यो! जो तमने कयांय पण संसारमां थोडं पण सुख देखातुं होय तो बोलो! (अर्थात् संसार दुःख सागरज छे) वाल्यात् प्रभृति चरोगे, ईष्टो भिभवश्च यावहिह मृत्युः शोक वियोगायोगे, दुर्गत दोषैश्च नैकविधैः ॥ २ ॥ बालपण माथी रोगोवडे डंखायलो, अने मृत्यु सुधी (मर्ण पर्यंत) शोक वियोग तथा कुयोग वडे तथा अनेक प्रकारना गरी For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६५८ ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ल बीना दोषो वडे पराभव रहेल छे. आचा० सुत्रम् | क्षुततर हिमोष्णानिल शीतदाह दारिय शोकप्रिय विपयोगैः दौर्भाग्य मौान भिजात्पदास्य वैरुप्य रोगादि भिर स्वतंत्रः ॥३॥ ॥६५९॥ भूख तरस ठंड ताप, पवन तथा ठंडो दाह तथा दरिद्रता शोक वहालांना वियोगयी, तथा दुर्भागीपणुं, मूर्खता, नीचजाति, तथा। ॥६५९॥ द दासपणु, कुरुप, तथा गोथी, आ गनुष्यदेह सदा परतंत्र छे. देवगतिमां पण चारलाख, योनि, २६ लाख कुल कोटि छे, तेमां पण अदेखाइ, विषाद; मत्सर च्यवनभय, शल्य विगेरेथी । पीडायला मनवालाने दुःखनोज प्रसंग छे. सुखनु अभिमान तो, आभास, मात्र छे. को छे के: देवेषु च्यवन वियोगदुःखितेषु क्रोधेा मदमदनाति तापितेषु आर्याः नस्त दिह विचार्य सं गिरन्तु यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति है देवो, च्यवन, तथा वहालांना वियोगथी दुःखी छे, क्रोध, इर्ष्या, अहंकार, कामदेवथी अति पीडायला छे. तेथी हे आर्य ! B (उत्तम) पुरुषो! अहीं कंइपण सुख वर्णववायोग्य होय; ते विचारीने कहो; (विगेरे समजवू.) तेथी, आ प्रमाणे चार गतिमां पडेला संसारी जीवो जुदा जुदा रुपे कर्मविपाकने भोगवे छे, तेज मूत्रकार बतावे छे. 'संति' । पाणीओ विद्यमान छे. तेश्रो चक्षुइंद्रियथी विकळ ते द्रव्यअंधा छे, अने सारा-माठा विवेकथी रहित भावअंध पण छे. तेओ नरक गति विगेरेना द्रव्यअंधकारमा तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, विगेरेना कर्मविपाकथी मळेला भाव अंधकारमा पण रहेला | (शास्त्रकारे) वर्णन्या छे. 'किं च वळी, तेवी, कुष्ठ (कोढ) विगेरेनी अधम अवस्थामां, अथवा एकेंद्रियनी, अथवा अपर्याप्ति अवस्थाने एकवार अनुभवीने पार्छ कर्म ऊदय आवतां तेमन, अवस्थाने वारंवार अनुभवीने ऊंच-नीच तीवमंद दुःख विशेषना स्पर्शीने For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम ॥६६०॥ ॥६६०॥ जीव अनुभवे छे. आ बधुं तीर्थंकरे कहेलुं छे. ते कहे छे.- आ वधू तीर्थकरे प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी कहेलुं छे, माटे प्रवेदित छे. द तथा हवे पछी, कहेवातुं पण तेमनुं कहेलुं छे. 'संति' जीवो विद्यमान छे. एटले, (वास धातुनो अर्थ शब्द, तथा कुत्साना अर्थमां छे. माटे,) जेओ वास करे छे, ते वास ना (बोलनारा) भाषा लब्धि पामेला बेइद्रिय विगेरे जीवो पण छे. तेज प्रमाणे रसने अनुसार जनारा ते कडवो-तीखो कवायलो विगेरे रसने जाणनारा एटले, मनवाळा संज्ञी-जीवो पण छे. (आ प्रमाणे संसारी जीवोनो कर्मविपाक विचारीने महाभय जाणवो;) तेमज ऊदक-(पाणी) रुप-एकेंद्रिय जीवो छे. पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्थामां, तथा Pऊदकमां चरनारा ते पोरा, छेदनक, लोट्टणक विगेरे त्रस जीवो छे, तथा माछलां, काचवा विगेरे पण छे. तेमज, स्थळ उपर जन्म नारा, अने केटलाक जळने आश्रये रहेला महोरग तथा पक्षीओमांना केटलाक, ते पाणीमा पोतानुं जीवन गुजारनारा जाणवा; ९. अने बीजां पक्षीओ आकाशगामी छे. आ प्रमाणे बधा पाणीओ (पोतानाथी बीजां नबळां) प्राणीने आहार विगेरे माटे, अथवा मत्सर विगेरे माटे दुःख आपे छे. तेथी शुं समजवु? ते कहे छे:-(हे शिष्य !) तुं अवधार ! के, आ चौद रज्जुप्रमाण-लोकमां ३ कर्मविपाकना कारणे जुदी जुदी गतिमां दुःख तथा क्लेशनां फळरूप-महाभय छे. (पण तेमां सुख तो, कहेबामात्र छे.) शामाटे कर्मविपाकथी महाभय छे ? ते कहे छ: बहुदुक्खा हु जन्तवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेणा वह गच्छंति सरीरेणं पभंगुरेण अहे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वद एए रोगा बह नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तवेएहिं एवं नाAAIAS For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा का सूत्रम् * ॥६६॥ % %-562ROCCESCE पास मुणी! महब्भयं नाइ वाइज कंचणं (सू० १७८) (गुरु कहे छे हे शिष्यो!) कर्मना विपाकथी आवेलां बहु दुःखो जे जीवोने छे, जेथी ते जाणीने तमारे तेनां अप्रमादवाळा थर्बु, प. वारंवार आवो उपदेश केम को छो? उ-कारण के अनादि भवना अभ्यासथी न गणाय, तेटला उत्तर परिणामवाळा इच्छामदन विषयोमां गृद्ध धयेला पुरुषो रे, तेथी पुनरुक्ति दोष लागतो नथी, हवे काम (कुचेष्टा) मा जे जीवो आसक्त छे, ते शुं मेळ वे छे, ते कहे हे-बलरहित (निःसार) तुप (डांगरनां फोतरां) नी मुट्ठी समान औदारिक शरीर जे पोतानी मेळे भंग नाश ल. ना स्वभाववाछं छे, तेना बडे सुख मेळववा कर्मनो उपचय करीने अनेकवार वध (मरण घात) ने मेळवे छे; । प्र-कयो माणस आवा कडवा विपाकवाली संसारी वासनामां रति (आनंद) माने? ते कहे हे जे मोहना उदयथी आर्त थयेल छ. अने कार्य अकार्यना विवेकने गणनो नथी, ते पाणी जेना वडे बहु दुःख पमाय तेवा में काम विषयोमा गृद्ध थाय छे, अथवा पाणीओने कलेशरुप कृत्यने पोते रागद्वेषथी आकुळ बनेल बाळजीव प्रकर्षथी करे छे. अने तेवां पाप करवाथी तेना कर्मना फळरुप विषाकथी अनेकवार पोने वध पामे छे, (बुरे हाले मरे छे) अथवा पूर्वे बतावेला रोगो आवतां हवे पछी कहेवातां अकृत्यने बाळ (मूर्ख) जीव करे छे, ते बतावे ठे-गंडमाळा कोढ क्षय विगेरे रोग आवतां ते रोगोनी । वेदनाथी गभराइने तेने दूर करवा माटे बीजा प्राणीओने संतापे छे, लावक विगेरे पक्षीनें मांस खातां क्षय रोग मटशे, आवा कुवा क्योने सांभळीने जीववानी पोते आशाए पाणीओने महा दु खरुप अकार्यमां पण वर्ते छे, पण आम विचारता नथी, के पोतानां ४ करेलां पापोनां फळ ऊदयमां आव्या विना रहे नहि, माटे उदयमा आवेल छे, तथा कर्म शांत थतां ते उपशम (शांत) याय छे, वालय For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०15 सूत्रम ॥६६२॥ ॥६६२।। नहन PUCE9%ालर पण पाणीओने दुःखरुप चिकित्सा (उपाय) करवाथी फक्त नवां पापोज बंधाय छे, ते कहे छे, के हे शिष्यो! विमळ विवेकरुप र ज्ञान चक्षुवडे धारीने जुभो ! के ते रोगाने दूर करवा चिकित्सा विधिओ समर्थ नथी. प्र०-जो एम छे तो शुं करवू ? उ-'अलं' हे शिष्य तुं ! सारा नरसानो विवेकवाळो छ, माटे तारे एवी पाप चिकित्सानी जरुर नथी ! किंच-वळी पाणीने दुःख देवारुष कृत्य बहु भयरुप होवाथी महा भय तरीके हे मुनि! तुं तेने जाण-(त्रण जगतना स्वभावने जाणे, माने ते मुनि छे) -जो एम छे तो शुं करवू ? उ-कोइ पण पाणीने तुं हणतो नहि, कारण के एक पण पाणीने हणतां आठे प्रकारनां को बंधाय छे, अने तेनो क्षय न कराय तो संसार भ्रमण करावे छे. माटे महाभय छे, अथवा उपर कहेला रोगो बहु प्रकारे जाणीने कुवासना ने आश्रयी ते जाणवा, अर्थात् कामो (कुचेष्टाओ) पोतेज रोगरुप छे, ए, अतिशे जाणीने जेम आतुर बनेला कामचेष्टामां अंधा थएला जीवो बीना पाणीओने दुःख दे छे, (तेम तमारे न देवू) ए प्रमाणे रोग अने काम चेष्टामां आकुळ थयेला सावध अनुष्ठाॐनमा प्रवर्तेलाने उपदेश आपवारुप महा भयरुप जीव हिंसा बतावीने तेवी हिंसा न करनारा गुणवान (मुनिराजो) ना स्वरुपने बताववा प्रस्ताव रचीने बतावे छे:__ आयाण भो सुस्सूस! भो धूयवायं पवेयइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कुलेहिं आभसेएण अभिसंभूया अभिसंजाया। अभिनिव्वुडा अभिसंवुड अभिसंबुद्धा अभिनिता अणुपुव्वेण For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६६३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महामुनी ( सू० १७९ ) शिष्य ! [ भो अव्यय आमंत्रणना अर्थमां छे] हुं तमने हवे पछी जे कडीश, ते बरोबर जाणो, अने सांभळवानी आकांक्षा राखो! (बीजी वार भो शब्द आ विषय महत्वनो छे एम बतावे छे ) के तमारे अहीं प्रमाद न करवो, हुं धूतवादने कहु छु आठ प्रकारना कर्मने धोइ नांखवा, ते घृत छे अथवा ज्ञाति [संगांना मोह]नो त्याग करवो, ते घृत छे. तेनो वाद (कथन) कहीश, ते तमारे एक चिशे सांभळवो आना संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे के, (धुतोत्रायं पवेति) एटले आठ प्रकारना कर्मने अथवा पोताने धोवानो उपाय तीर्थंकर विगेरे कहे छे, ते उपाय कयो छे? ते कहे छे (इइ) आ संसारमां [खलु वाक्यनी शोभा माटे छे] आत्मानो भाव ते आत्मता [आत्मपं] ते जीवनुं अस्तित्व छे, अथवा पोतानां करेला कर्मनी परिणति छे, तेना वडे आ जीव समूह छे, पण अन्य लोकना मानवा प्रमाणे पृथ्वी विगेरे भूतोना कायाकारे परिणमवाथी जीवो वन्या नथी, अथवा प्रजापति (ब्रह्मा) ए बनावेल नथी एटले तेवा तेवा ऊंच नीच कुळमां पोताना पूर्वना कर्म संचयथी मेळवेला शुक्रशोणीत [वीर्य लोही माताना उदरमां ] एकत्र थवाथी अनुक्रमे मनुष्यनी उत्पति छे, तेनो आ प्रमाणे क्रम छे. - सप्ताहं कललं विन्या, ततः सप्ताहमर्बुदम् अर्बुदाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि घनं भवेत् ॥ १ ॥ ते वीर्य लोहीनुं सात दिवसे कलल थाय, पछी अर्बुद थाय छे, पछी पेशी थाय, त्यार पछी घन थाय छे. तेमां ज्यांसुधी कलल थाय त्यांसुधी अभिसंभूत कहेवाय छे, पेशी थतां सुधी अभिसंजात कहेवाय छे, त्यार पछी सांगोपांग स्नायु शिर रोम विगेरे अनुक्रमे धतां अभिनिवृत्त छे, त्यारथी मनूत थतां अभिसंवृद्ध छे, अने धर्म श्रवणनी अवस्थामां आवतां धर्मकथा विगेरे निमित्त For Private and Personal Use Only 16:5 सूत्रम् ||६६३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६६४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेळवीने मेळवेल पुण्य पापपणाथी अभिसंबुद्ध जाणवा, त्यार पछी सत् असत्नो विवेक जागनारा होय ते अभिनिष्क्रांत छे, त्यार पछी आचारांग सूत्र भणेला तथा तेनो अर्थ समजीने चारित्र पाळनारा अनुक्रमे प्रथम शिक्षक (शिष्य) गीतार्थ पछी क्षपक (तपस्त्री) पछी परिहारविशुद्धि चारित्रवाळो तथा एकलविहारी जिन कल्पिक सुधी ऊंचे चढनारा मुनिओ बने छे. अने कोइ अभिसंबुद्ध पुरुष दीक्षा लेवा तैयार यो होय तो तेन पोतानां समां जे करे ते कहे छे. तं परिकमंतं परिदेव माणा मा चयाहि इय ते वयंति ! छंदोवणीया अज्झोववन्ना अकंदकारी जणगारुति, अतारिसे मुण [य] ओहं तरए जणगा जेण विष्वजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रमइ ?, एयं नागं सया समणुवासिज्जासि तिबेमि (सू० १८०) धूताध्ययनोदेशकः ६-१ जे तत्व स्वरूप जाणीने गृहवासथी पराङमुख बनीने महा पुरुषोए आचरेला मार्गे जवा ( दीक्षा लेवा ) तैयार थयो होय तेने माता पिता पुत्र कलत्र वगेरे मळतां ते समां तेने रोइने कहे छे, के अमने तुं न त्यज, एम दया उपजावतां बोले छे, तथा बीजुं शुं बोले छे, ते कहे छे, ताराचंद (अभिप्राय) ने अमे अनुकुल छीए, तारा उपर अमारो पूर्ण विश्वास छे, तेथी अमने न छोड, एम आक्रंद करीने ते सगां रडे छे, वळी आ प्रमाणे बोले छे, के "तेवो मुनि संसार तरी शकतो नथी के जे पाखंड ( मुनिना बोध ) थी ठगाइने मात्रापने त्यजीने दीक्षा ले." आम कहे, तो पण जेणे संसारनुं तत्व जाण्युं छे, तेवां जे करे, ते कहे छे, जो के आ सगां मारा उपर पूर्ण प्रेमी छे, छतां पण ते खरे खते शरण आपतां नथी, अर्थात् तेमनुं शरण स्वीकारतो नथी, शा माटे आ शरण नथी ? ते कहे छे, ते गृहवास वधा तिरस्कारने योग्य नरकना प्रतिनिधि समान अने शुभद्वारने परिघ समान छे, तेमां कोण For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ६६४ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥६६५॥ आचालडायो माणस रमणता करे? वळी गृहवास बधा द्वंद्व (रागद्वेष विगेरेनां जोडलां) रुप छे, तेमां जेनुं मोह 'कपाट' घटी [ओर्छ थइ * गयेल छे, ते रति करे? [अर्थात् तेमनो मोह न करे] आ बधानो उपसंहार करे छे, के पूर्वे कहेलुं ज्ञान हमेशां आत्मानी अंदर ॥६६५॥ स्थापी राखजो, ए, सुधर्मास्वामी शिष्यने कहे छे. धृतअध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बीजो ऊद्देशो. प्रथम उद्देशो कयो, हवे, बीजो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशापां सगांनो मोह छोडवा मूचव्यु. ते जो, कर्मनुं विधुनन थाय; तो, सफळ थयु कहेवाय; माटे कर्मनुं विधुनन करवा आ उद्देशो कहेवाय छे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं मूत्र छे. आउरं लोगमायाए चइत्ता पुटवसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणितु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला (सू० १८१) लोक ते, मातापिता, पुत्र, कलत्र विगेरे स्नेहना संबधथी वियोग यतां पीडाय छे, अथवा तेमनुं बगडतां पीडाय छे, अथवा - संसारो-जीवोनो समूह कामरागमा पीडातो होय; तेने ज्ञानवडे ग्रहणकरीने (समजीने ) तथा पोतानां मातापिता विगेरेनो संबंध छोडीने तथा, उपशम मेळवीने ब्रह्मचर्यमां वसीने उत्तम साधु केवो होय ? ते कहे छ:-वसु ते, द्रव्य छे. ते द्रव्यवाळो अर्थात् | 18 कषायरूप-काळाश विगेरे मळने दूर करी पोते वीतराग बने छे, अने तेथी उलटो, अनुवमु सराग ले. अथवा वसु ते, साधु छे. अफसरुवाAA% For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥६६६॥ 18 अने अनुवसु ते, श्रावक छे. तेमज, का छे के:आचा०६ वीतरागो वसुइँयो, निनो वा संयतोऽथवा; सरागो ह्यऽनु वसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपिवा; वीतराग ते वसु जाणवो, पछी ते जिन होय अथवा संयत [ साधु ] होय, अने सराग होय, ते अनुवसु कयो छे, अथवा ॥६६६॥ बुट्टो अथवा श्रावक पण होय छे. ___तथा श्रुतचारित्ररुप-धर्म जाणीने पछी यथायोग्यपणे स्वीकारीने पण पछी केटलाक जीवो प्रबळ मोहना उदयथी तेवी भवितव्यताना योगे तेवा उत्तम धर्मने पाळवा शक्तिवान थता नथी, ते केवा छे ? उत्तर-कुशीला एटले खराब शील (आचार) वाळा छे, एटले जेओ धर्म पाळवामां अशक्त छे, तेथीन तेओ कुशीलवाला छे, एवा बनीने शुं करे छे ? ते कहे छे: वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीप्तहे दुराहियासए कामे ममायमाणस्स इयाणि वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं से अंतराएहि कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए (सू० १८२) करोडो भवे पण दुःखेथी मेळवाय, तेवो मनुष्य जन्म पामीने पूर्व कदीपण न मेळवेल एवी संसार समुद्रथी पार उतरवा हू समर्थ नाव समान बोधि (सम्यक्त्व) मेळवीने मोक्ष वृक्षना बीज समान सर्व विरति लक्षणवाळ चारित्र स्वीकारीने पाछा कामदेवनो K मार दुःखेथी निवारण थाय तेवो होवाथी, मन ढीलं थवाथी, इंद्रियोनो समूह लालचु थवाथी अनेक भवना अभ्यासथी मेळवेली वामनान % For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयनी मधुरताथी प्रबळ मोहनीय कर्मना उदयथी, अशुभ वेदनीयनो भाव एकदम प्रकट थवाथी, अयशःकीर्त्ति उत्कटपणे थवाथी, आयति (भविष्यनुं हित ) ने तरछोडीने कार्य अकार्यने विचार्या विना महादुःखनो सागर स्वीकारीने वर्त्तमान सुखने देखनारा कुलमां वर्तातो आचार नीचे नांखीने (उत्तम रत्नरुप) चारित्रने त्यजे छे !!! अने तेनो त्याग धर्मेपकरण त्यागवाथी थाय छे, ते बतावे छे. वस्त्र ए शब्दथी क्षौमिक [सूत्रां] कल्प (ख) लीधो छे, तथा पात्रां अने उननी कांबळ अथवा पात्रांनो नियोग तथा | रजोहरण ए धर्मोपकरणाने बेदरकारीथी त्यजीने कोइ साधु फरीथी देशविरति [श्रावकनां व्रत] स्वीकारे छे, कोइ तो फक्त सम्यक्दर्शनज राखे छे, कोइ तो तेनाथी पण भ्रष्ट थइ जाय छे, (वटली जाय छे .) प्र० आवं दुर्लभ चारित्र पामीने पाछु केम तजी दे छे ! उ - परीषहो दुःखे करीने सहन थाय छे, तेथी क्रमेकरीने अथवा सामटा परिषहो आवतां सहन न करी शकवाथी परिषहथी भागेला मोहना परवशपणाथी दुर्गतिने आगळ करीने मोक्षमार्ग (उत्तम चारित्र) ने त्यजे छे !!! ते रांकडाओ भोगो भोगवत्रा माटे | त्यजे छे, छतां पापना उदयथी शुं थाय? ते कहे छे. - fame कामोने पोताने वहाला मानी स्वीकारतो भोगना अध्ययवसायवाळो बनवा छतां, पोतानां अंतरायकर्मना उदयथी तेज | क्षणे प्रत्रज्या मुक्या पछी अथवा भोगो प्राप्त थया पछी, अंतर्मुहूर्त्तमां, अथवा कंडरीक राजर्षिनी माफक चारित्र मुक्या पछी एक रात दिवसमा अपरिमाण ( वधारे खावाने) लीघे शरीर भेदाय छे, आ प्रमाणे दुराचारना अध्यवसायथी, अथवा कुकर्म सेवीने शीघ्र मरण पामताने पोताना आत्मा साथे चारित्र पाळवारूप धर्म देहनो भेद थतां तेनुं शरीर अने पचेन्द्रियपणुं अनंतकाळे पण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६६७॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मळतुं नथी, (अर्थात् निगोदमां अनंतकाळ भ्रमण करे .) एज विषयनो उपसंहार करवा कहे छे. 'एवं' ए प्रमाणे भोगनो अभिआचालापी अंतरायवाळा काम भोगो जेमां अनेक प्रकारनां विघ्नो रहेलां छे, तेने चाहे छे, ते भोगो (न केवळ ते अकेवळ तेमांधी सूत्रम थाय ते.) अकेवळीक, (द्वंद्व-जोडकांबाळो) छे. जेमनो प्रतिपक्ष पण छे, अथवा असंपूर्ण भोगो छे. जेने मेळववा पाछा संसारमा ॥६६८॥ पडे छे, अथवा (कामभोगने बीजीना बदले त्रीजीनो अर्थ लइए; तो,) ते कामभोगावडे भोगना अभिलाषीओ अतृप्त बनीनेज ६॥६६८॥ (वधारे भोगसुख लेवा जतां) शरीरनो नाश करे छे ज्यारे, ते रांको आम मरण पामे छे त्यारे, वीजा उत्तम साधुओ जेमनो ही मोक्षसमीप छे, तेवा क्यांय पण, कोइपण रीते कोइपण वखत चरणनो परिणाम आवतां लघुकर्मनां कारणथी दरेकक्षणे चडताभाववाळा बने छे, ते बतावे छे. अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिन्नाय, एस पणए महामुणी, अइअच्च सबओ संगं न महं अस्थित्ति इय एगो अहं, अस्सि जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सवओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ ओमोयरियाऐ, से आकुठे वा हए वा लंचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा पकत्थ अतहेहिं सदफोसेहिं इय संखाए एगयरे अन्नयरे अभिन्नाय तितिक्खमाणे परिवए जे य हिरी जेय अहिरीमाणा (सू० १८३) सब-बबलवनॐ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥६६९॥ AAAAA ____ उपर बतावेला चडता परिणामवाळा साधुए चारित्र लीधापछी विशुद्ध परिणामथी तेमनो मोक्ष जलदी थवानो होवाथी श्रुत• चारित्ररुप-धर्म पामीने वस्त्र-पात्र विगेरे धर्मोपकरण स्वीकारीने धर्मकरणमा समाधिाळा बनी परिषह सहन करीने सर्वज्ञ-प्रभुए सूत्रम् कहेला धर्मने पाळे छे, अने पूर्वे बतावेलां प्रमादनां मूत्रो अप्रमादना अभिप्राय प्रमाणे कहेवा(अर्थात् ते दरेक प्रकारे चारित्र निर्मळ 81 पाळी ज्ञान भणीने सम्यक्त्वमा दृढ थइ अशुभकर्म ने क्षय करी नाखे छे.) कहां छे केः___ यत्र प्रमादेन तिरोऽप्रमादः, स्याद्वाऽपि यत्नेन पुनः प्रमादः। विपर्ययेणापि पठति तत्र, मूत्राण्यधीकारवशाद् विधिज्ञाः ॥ १॥ ज्या प्रमादवडे मूत्र कहेवायां होय; त्यां विरोधि अप्रमाद होवाथी अप्रमादना वर्णननां मूत्रो अधिकारना वशथी विधिने जाणला नारा विपर्ययवडे भणे छे (कहे छे.) अथवा, अप्रमादनां कही ते यत्नवडे पाछां प्रमादनां (मूत्रो) कहे छे:-ते उत्तम साधुओ वळी केवा थइने धर्म आचरे छे ? ते कहे छे:-कामभोगोमां अथवा मातपिता विगेरे लोकमां मोह न करनारा, अने धर्मचारित्रमा एटले तपसंयम विगेरेमा दृढता राखनारा धर्म आचरे छे. वळी, बधा प्रकारनी भोगाकांक्षाने ज्ञ-परिज्ञावडे दुःखरुप जाणीने प्रत्याख्यान-81 र परिज्ञावडे त्यागे छे, ते भोगाकांक्षा त्यागवाथी जे गुणो थाय; ते कहे छे:-'एष' ए काम पिपासानो त्यागनारो प्रकर्षथी नमेलो 'मह' पणमेलो संयममां, अथवा कर्म धोवामां (लीन ययेलो) महामुनि बने छे, पण तेवा गुणथी रहित होय; ते महामुनि बनतो नथी, 'किंच' वळी, सर्व प्रकारे पुत्रकलत्रादिनो संबंध, अथवा विषयाभिलाषनो मोह उल्लंघी (त्यागीने ) शुं भावना भावे ? ते कहे छ:-"आ संसारमा पडतां मारु अवलंबन (आधारभूत) थाय तेवू कंइपण नथी; अने तेना अभावथी उपर प्रमाणे हुं संसार-उद For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम / गारप-जष्ठान त्यागीने दंषण कोइनो नथी. आ भाव का॥६७०॥ यी झुंड बनीने 'शचना सूत्रमा को सौ । कोण याविनेवरना) पूनच ६ रमा एकलोज छु. तेम, हुँ पण कोइनो नथी. आ भावना भावनारो जे करे; ते कहे छे. 'अत्र' आ मौनींद्र (जिनेश्वरना) प्रवचनमा आचालान द सावद्य-अनुष्ठान त्यागीने दश प्रकारनी साधु-समाचारी पाळवामां यतनावाळो थाय. 'कोऽसौ ?' कोण थाय? ते कहे छे. अन | गार-प्रवर्जित [दीक्षा लीधेलो] होय; ते एकत्वभावना भावतो रहे. [ते पछीना मूत्रमा कहे छे. एटले, आ क्रिया जोडला मूत्रमा ॥६७०॥ 15 पण लेवी.] 'किंच' वळी, ते सर्व प्रकारे द्रव्यथी अने भावथी मुंड बनीने 'रीयमाणः' संयमअनुष्ठानमां वर्ने छे. मा-केवो बनेलो? उः-जे अचेल ते अल्प वस्त्रवाळो अथवा जिनकल्पिक संयममा रही योग्य विहार करनारो अंतप्रांत आहार खानारो बने छे, ४ ते पण वधारे प्रमाणमा नहि, ते कहे छे, अवमोदरी (ओर्छ भोजन) करे, अने उनोदरी तप करतां कदाच प्रत्यनीक [जैनधर्मना विरोधीओ जेओ ग्राम कंटक छे तेमनाथी पीडाय, ते बतावे छे, 'स' ते मुनि कुवचनोथी आक्रोश करायलो, दंडा विगेरेथी मरातो, Pवाळ खेची काढवाथी लुंचित करेलो (दुःखी थया छतां) पोते पोताना पूर्वकर्मथीज आ उदयमां आव्यु छे, एम मानतो सम्यक् प्रकारे 18/ सहन करतो विहार करे; तथा आवी भावना भावे, "पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुब्बिदुच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेदयित्ता मुक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" पोते पूर्वे दुष्ट रीते जे कृत्यो आचर्या होय, अने दुष्ट कृत्य कर्यापछी तेने आलोचना के तपश्चर्याथी खेरव्यां न होय, ते दुष्ट पापो कांतो भोगवतां छटे, अथवा तपश्चर्या करवाथी दर थाय छे. सबरAC% For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsul Gyanmandit %A आचा० प०-वचनो वडे केवी रीते आक्रोश करे छे ? | सूत्रम् उ-'पलिय' ति ते साधुए पोते गृहस्थावस्थामां वणकर विगेरेनुं नीच कृत्य (धंधो) को होय तो ते याद करीने तेनी निंदा है ॥६७१॥ करे छे, ते आ प्रमाणे-कोलिक ! हे साधु बनेला! तुं पण मारी सामे बोले छे! अथवा जकार चकार विगेरे शब्दोथी बीजी रीते ॥६७१॥ बोलीने निंदे छे! ते हवे बतावे छे.-'अतथ्यैः' तद्दन जुठां कलंकना शब्दोबडे तिरस्कार करे जेमके "तुं चोर छे! तुं परदार लंपट Kछे, आवां असत्य आळो जे साधने करवा योग्य नथी नो कानमा स्पर्श थतां (साधने क्रोध चढे) तथा कलंक चडाववा साथे हाथ पग छेदवा विगेरेथी [दुख थाय तेवा समये] आ मारा पोताना करेला दुष्ट कृत्योनुं फळ छे एम चितवीने विगेरे अथवा आबुं चिंतवे. पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उप्पन्ने उवसग्गे सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, तनहा-जक्खाइटे अयं पुरिसे १, उम्मायपत्ते B अयं पुरिसे २, दित्तचित्ते अयं पुरिसे ३, मम च णं तब्भवेअणीयाणि कम्माणि उदिन्नाणि भवंति जन्नं एस पुरिसे आउसइ बंधइ तिप्पइ पिट्टइ परितावेइ ४, ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगं तसो कम्मणिज्जग हवइ ५, पंचहि ठाणेहि iP केवली उदिन्ने परीसहे उबसग्गे जाव अहियासेज्जा, जाव ममं च णं अहियासेमाणस्स बहवे छउमत्था समणा निग्गंथा उदिन्ने 18 परिसहोवसग्गे सम्म सहिस्सति जाव अहियामिस्संति इत्यादि ॥ पांच स्थानमा छद्मस्थ साधुओ उपसर्गाने सहन करे क्षमा राखे क्रोध न करे हृदयमां शांति राखे, तेओ विचारे के आ3/ ल अपमान करनारो पुरुष यक्षथी घेरायलो छे, आ पुरुष उन्माद पामेलो छे. आ पुरुष अहंकारी छे, मारे ते भवमां वेदवानां कर्म For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६७२॥ Bउदीरणामां आववानां हे तेथी आ पुरुष मने आक्रोश करे छे, बांधे छे तपे छे पीटे छे, संतापे छे, पण मने सारी रीते सहन टू करवाथी एकांतथी सकाम निर्जरा थाय छे, केवली भगवान तेज पांच स्थानमां आवेला परीसह उपसर्ग सहन करे तेओ जाणे छे. के, केवली ज्यारे आवां दुःख सहन करे उठे, त्यारे घणा छमस्थ साधुओ निग्रंथो आवेला परीसह उपसर्गाने तेमना दृष्टांतथी सारी रीते सहन करशे अने आत्मामां शांति राखशे आ उपरथी साधुए सार ए लेवो के कोइ गांडो थयेलो बीजाने मारे तो तेना 18॥६७२॥ उपर दया आवे छे. तेज प्रमाणे साधुने दुःख देनार उपर साधुने दया लाववी जोइए, आ प्रमाणे जे परीसहो आवे ते अनुकूल प्रतिकूल एम बे भेदे छे. ते बन्नेमां रागद्वेष कर्या विना शांति राखीने विचरे, अथवा बीजी रीते परीसह बे प्रकारना बतावे छे. जे सत्कार अने पुरस्कार साधुने आनंदकारी छे अने प्रतिकूल मनने अनिष्ट छ, अथवा लज्जारुप याचना करची अने अचेल विगेरे छे, अने लज्जा विनाना ठंड ताप विगेरे छे, ए प्रमाणे बन्ने प्रकारना परीसहोने सम्यक् प्रकारे सहन करतो विचरे, बळी चिच्चा सवं विसुत्तियं फासे समियदंसणे, एए भो नगिणा वुत्ता जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिजं परिन्नाय यरियाएण विगिंचइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुखेसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिवए सभि अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किले For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir सूत्रम् 6॥६७३॥ आचा० संति ते फासे पुट्ठो धीरे अहियासिज्जासि तिबेमि (सू० १८४) धूताध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥६-२॥ बधा परिसहोनी थती वेदनाने सहन करी दुःखने अनुभवतो छतां चित्तमां शांति राखे. प्रश्न. केवो वनीने ? उ० सम्यक्प्रकारे ॥६७३॥ ददर्शन पामेलो ते समित दर्शनवाळो अर्थात सम्यादृष्टी बने. ते परिसहोने सहन करनार साधुओं केवा होय ते कहे छे, ते निष्किचन निम्रय (भावनग्र) जीनेश्वरे बतावेला छे. आ मनुष्य लोकमां आगमन धर्मरहित छे. अर्थात् घर छोडीने दीक्षा लीधा पछी पाछा Bघेर जवानो इच्छा करता नथी, पण पोतानी दीक्षामां लीधेली प्रतिज्ञा पूरीपाळी पंच महाव्रतनो भार वहन करे छे, बळी जेनावडे & आज्ञा कराय ते जिनेश्वरनु वचन तेज मारो धर्म छे. तेथी तेने बरोबर पाळे. अथवा धर्मनुं अनुष्ठान पूरेपुरुं करे, अने विचारे के धर्म तेज मारे सार छे, बाकी बधु पारकुं [असार] छे, एथी हुँ तीर्थकरना उपदेश वडे विधि अनुसारे बरोबर क्रिया करुं प्र-धर्म केवीरीते आज्ञाथी पळाय ? ते कहे छे, 'एष.' आ बतावेलो उत्तर (उत्कृष्ट) वाद अहिं मनुष्योने कहेलो छे. 'किंच' वळी आ कर्म ६ दूर करवाना उपायरूप संयममा समीप (अंदर) रत (लीन) थइने आठ प्रकारना कर्मने झोपतो [दूर करतो] धर्मने पाळे बळी से बीजं शुं करे? ते कहे छे.। जेनावडे ग्रहण कराय ते आदानीय (कर्म) छे. तेने जाणीने मूळ उत्तर प्रकृतिनुं विवेचन करे, अर्थात् साधुपणुं निर्मळ पाळीने 15 क्षय करे, अहीं संपूर्ण कर्म दर करवामां असमर्थ जे बाह्यतप छे, तेने आश्रयी कहे छे, आ जैनसिद्धांतमा केटलाक शिथील [ओछां] कर्मवाळाने एकचर्या एटले एकल विहारनी प्रतिमा अंगीकार करेली होय छे, तेमां जुदी जुदी जातीना अभिग्रहो तप तथा चारित्र PERSSESSASASAREAAABAR कवलव For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 संबंधी धारण करेला होय छे. तथी भाभृतिकाने आश्रयी कहे छे, ते एकाकी विहारमा बोजा सामान्य साधुथी विशेष प्रकारे अंत-18 आचार प्रांत कुलोमां दश प्रकारनी एपणा दोषरहित आहार विगेरेनी शुद्ध एपणावडे तथा सर्व एषणा ते बधी एषणा. आहार विगेरे व सत्रम | संबंधी उद्गम उत्पाद तथा ग्रास एपणा संबंधी परिशुद्ध विधिए संयममां वर्ने छे, बहुपणामां एक देशपणाने कहे छे, ते मर्यादामा ॥६७४॥ 10 रहेलो मेधावी साधु संयममा वर्ते वळी ते तेवां बीजां फुलोमा आहार सुगंधवाळो के दुर्गधवाळो होय, त्यां रागद्वेष न करे वळी18 ॥६७४॥ त्यां एकलविहार करतां मसाणमा प्रतिमा ए रहेतां यातुधान (राक्षस) विगेरेए करेला शब्दो भयकारक लागे; अथवा बीभत्स प्राणीओ दीप्त जीभवाळां [वाघ विगेरे] बीजा जीवोने पीडे; संतापे छे अने तेने पण संतापे तो, तुं तेवा विषय-दुःखना स्पर्शाने सम्यक्पकारे धैर्य राखीने सहन कर; एबुं सुधर्मास्वामि जंबूस्वामिने कहे छे: बीजो ऊद्देशो समाप्त थयो. त्रीजो ऊद्देशो कहे छे. बीजो उद्देशो कही त्रीजो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. बीजामा कर्मधोवानुं बताव्यु: अने ते उपकरण शरीरना विधूनन विना न थाय. माटे हवे, उपकरण विगेरेनुं विधूनन कहे छे. आवा संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं मूत्र छे. एयं खु मुणी आयाणं सया सुयक्खायधम्मे विहयकप्पे निज्झोसइत्ता, जे अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुत्तं जाइस्सामि सुइं जाइस्सामि EAR For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सूत्रम् ॥६७५॥ आचा० संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिमसामि बुकसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसग ॥६७५॥ फाप्ता फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ अचेले लाघवं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सवओ सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिररायं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाण पास अहियासियं (सू० १८५) आ उपर बतावेलु अथवा हवे पछी, कहेवातुं (जे ग्रहण कराय ते आदान.) ते कर्मन उपादान छे, अने ते कर्म उपादान का थवानुं कारण साधुने जोइतां धर्मउपकरणथी अधिक प्रमाणमां हवे पछी कहेवातां वस्त्र विगेरे छे, ते वधारानां वख विगेरेने मुनिटू ए त्याग करी देवा. M प्रः-ते मुनि केवो होय छे.-:-ते सदाए सारी रीते वर्णवेला धर्मवालो छे. एटले, तेने संसार-भ्रमणनो डर होवाथी पोताने अर्पण करेलां महाव्रतनो भारवाही छे, तथा विधृत (क्षुणण) एटले, सारी रीते जेणे कल्प-(साधुनो आचार ) आत्मामां 18 फरस्यो छे, तेवो मुनि आदान-(कर्मने) खेरवशे. ॐॐार For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६७६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रः - ते वस्त्र विगेरे आदान केवां होय; के ते दूर करवां पडे ? उ:- (अल्प - अर्थमा नकार छे. जेमके - आ साधु अज्ञान छे. एटले, अल्पज्ञानवाळो छे, ते प्रमाणे अर्थ लेतi) साधु अचेल एटले, अल्प वस्त्र राखनारो संयममा रहेलो छे, तेवा साधु (भिक्षु) ने आवुं विचारखुं न कल्पे के, मारुं वख जीर्ग थड़ गयुं छे. हुं अचेलक थइश. मने शरीरनुं रक्षक वस्त्र नथी; तेथी, ठंड विगेरेथी मारुं रक्षण केम थशे ? तेथी हुं बिना वस्त्रनो थयो हुं. तेथी कोइ श्रावकने त्यां जइ वस्त्र याचीलावु अथवा ते जीर्णवस्त्रने सांधवाने सोय-दोरो याचीश; अथवा ज्यारे सोय-दोरो मळ; त्यारे, जीर्णवखनां काणांने सांधीश; फाटेलांने सीवीशः अथवा दुकां वस्त्रने जोडी मोडुं बनावीशः अथवा लांबानो टुकडो फाडी सरखं अथवा, नानुं बनावीश एम योग्य बनावीने हु परीश; तथा, शरीर ढांकोश. विगेरे, आर्त्तध्यानथी हणायलो अंतःकरणानी वृत्ति धर्ममां एकचित्त | राखनार आत्मार्थी साधुने वस्त्र जीर्ण थवा छतां, अथवा होय नहीं; तोपण भविष्य संबंधी (चिंता) न थाय. अथवा आ मूत्र जिनकल्पीओने आश्रयी कहेलुं छे. एम व्याख्या करवी कारण के ते मुनिओ अचेल (वस्त्र रहित) होय छे. तथा तेमना हाथमांथी तेमनी तपोवळनी लब्धिने लोघे पाणीतुं बिंदु पण न गळतुं होवाथी तेओ पाणिपात्र कहेवाय छे, पाटले, हाथ, अने हाथमांज भोजन लइने करे छे. तेमने पात्रां विगेरेनो सात प्रकारनो नियोग होतो नथी; [कारण के तेवो तेमनो अभिग्रह छे.] तथा, कल्पत्रय पण त्यागेल छे. फक्त, तेमने रजोहरण, तथा मुखत्रत्रिका ( ओघो, अने मुहुपत्ति) मात्र होय छे तेवा अचेल जिन - कल्पीमुनिने उपर कहेल आर्त्तध्यान वस्त्र फाटवा - सांघवा विगेरे संबंधी न होय. (कारण के, धर्मीवस्त्र For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥६७६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा तेना अभावथी धर्म-फाटq विगेरेनो अभाव छे. ज्यारे, धर्मी होय; त्यारे, धर्म शोधयो; ए न्यायनो उत्तम मार्ग छे. तथा जिन-कल्पी IR मुनिने आवू पण न होय. के हुँ बीजु नवु वस्त्र याचीश; ए बधुं पूर्वमाफक जाणवु. 18 सूत्रम् ॥६७७॥ वळी, जेने जिन-कल्पी जेवी लब्धि न होय; तेवो स्थविर कल्पि-साधु हाथमांथी पाणी विगेरेनें बिंदु नीचे पडे छे. तेथी,18॥६७७॥ ४ तेओ पात्रना नियोगयुक्त होय छे, अने वस्त्रनां कल्प प्रमाणे त्रणमाथी कोइपण एक वस्त्र होय; तेवो मुनि पण वस्त्र विगेरे जीर्ण थवाथी के, नाश थवाथी नवु न मळे त्यां सुधी आर्तध्यान न करे; तथा, जे अल्पपरिकर्मी (निस्पृही) होय; तेवाने सोय-दोरो फाटेलाने सांधवा माटे पण शोधवानुं न होय, (जेने उपदेश माटे परोपकारनी विशेष लागणी करतां आत्मार्थ साधवा माटे एकातवास होय; तेवाने फाटेलु के, वस्त्र न होय; तेनी शुं परवाह छे ? जेमके: धैय यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्चिरंगेहिनी। सत्यं मूनुरयं दया च भगीनी भ्राता मनः संयमः॥ - शय्या भूमितलं दिशोपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं । एते यस्य कुटुंबिनो वद सखे कस्माद्भयं योगिनां ॥१॥ धैर्य पिता, क्षमा माता, घणा काळनी शांति बहु, सत्य पुत्र, दया बेन, मन संयम भाइ छ, पथारी जमीनमा छे, दिशा वस्त्रो छे. ज्ञानअमृत भोजन छे, तेवा कुटुंबवाळा योगीने कोनो भय छे ? ए, एक मित्र बीजा मित्रने पूछे छे. IN अचेल अथवा वस्त्रवाळाने तृण (डाभना कांटा) वीगेरे लागतां शुं करे ते कहे छे. तेवो अचेलपणे रहेतां जीर्णवस्त्र आत-रौद्र [अप]ध्यान न थाय; अथवा आ थाय. ते अचेलपणे वर्णतां; ते साधुने अचेलपणाना कारणथी कोइ गामडां विगेरेमां शरीरना रक्षणना अभावथी घासना संथारे मुतां घासना कांटानो कडवो अनुभव दुःख देनारो थाय; अथवा घास पोते खुंचे तेवू होय; तो, AAAAAE For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥६७८॥ ॥६७८॥ AADAV www.kobatirth.org शरीरमा दुःख दे, तेवा समये साधु दीनतारहित मन राखीने तेने सहे. दू तेज प्रमाणे शियाळामा टंडा देशमा वस्त्रविना ठंड सहेवी पडे; तथा, गग्म देशमां उनाळामां वस्त्रविना तडको सहेवो पडे; में तथा डांस -मच्छरोना डंख लागे. आ बधा परिसहो एकसाथे डांस-मच्छर, तथा घासना कडवा फरसनां दुःख साथे आवे छे. अथवा ठंड-ताप विगेरे परस्पर विरुद्ध दुःख छे. तेमांथी कोइएक अनुक्रमे आवे. (बहुवचननो मूत्रमा प्रयोग छे, तेथी जाणवु के, ४ ते दरेक तीवमंद के, मध्यम अवस्थावाळो फरस छे.) ते हवे बतावे छे. विरुप [ बीभत्स ] ते, मनने दुःख देनार, अथवा जुदी जुदो जातना मंद विगेरे भेदना स्वरुपवाळा विरुपरुप जे फरसो छ, तेनाथी थतां दुःखो पडे; अथवा, ते दुःख आफ्नार घास विगेरेना स्पर्शी होय; ते बधांने चित्त स्थिर करोने दुर्ध्यान छोडीने सहन करे. प्रः-कोण सहन करे.-उ:-उपर बतावेल वस्त्ररहित अल्प-वस्त्रवाळो, अथवा अचलन-स्वरुपवाळो (प्रतिमाधारी) सम्यक्प्रकारे सहे. म:-शुं विचारीने सहे ? उ. जे लघु गुण छ तेनो भाव लघुता छे. ते द्रव्यथी अने भावथी वे प्रकारे लाघवपणुं छे. तेने जाणनारो समताथी परिसहो तथा उपसर्गाने सहे छे. आ संबंधे नागार्जुनीया कहे छे. “एवं खलु से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खय कारणं करेइ" ए प्रमाणे उपकरणना लाघवपणाथी कर्मने क्षय करनारो तप निश्चयथी उत्तम साधु करे छे. ए प्रमाणे कहेला कर्म बडे भाव लाघव माटे उपकरण लाघवनो तप करे छे, ए कहेवानो सार छे. ৰে-০-নে-সে । For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०18 वळी ते उपकरणना लाघवथी कर्म ओछां थाय छे, अने कर्म ओछां थवाथी उपकरण लाघव मेळवतां तृण विगेरेना स्पर्शी | सूत्रम् - सहेतां काय कलेशरुप बाह्य तप पण थाय छे. तेथी ते साधु सारी रीते सहे छे. आ मारूं कहेलुं नथी, एवं सुधर्मास्वामो कहे छे. ॥६७९॥ के जे में कह्यं अने हवे पछी कहीश. ते बधुं भगवान महावीरे पोते प्रकर्षथी अथवा शरुआतमां कहेलुं छे. प्र-जो भगवान महा-8/॥६७९॥ वीरे कमु छे. तेथी भुं समजवू? उ--उपकरण लायव अथवा आहार लाघव तपरुप छे. एq जाणीने शुं करवू ते कहे छे. द्रव्यथी । क्षेत्रथी काळथी अने भावथी तेमां लघुता राखवी जेमके द्रव्यथी आहार उपकरणमा लाघवपणु राखg (एटले जरुर जेटलांज | राखबां) क्षेत्रथी बधां गाम विगेरेमा बोजारुप न थबु. काळथी दीवस अथवा रातमा अथवा दुकाळ विगेरे खराब वखतमां शांति राखनी तथा भावथी कृत्रिम अने मलिन विगेरे कुभाव त्यागवा (अर्थात् पोते कष्ट सहन करीने मनमा कुभाव न करतां चारित्र निर्मळ पाळवं. तथा गृहस्थोने के बीजा जीवोने कोइपण रीते पीडाकारक न थq.) सम्यक्त्व एटले प्रशस्त अथवा शोभन तत्व अथवा एक संगतवाळु (जेनाथी एकांत हित थाय तेवू)तत्व ते सम्यक्त्व छे. कडुं छे केः “प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुप सृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते" ॥१॥ प्रशस्त शोभन एक संगतवाळो जे भाव थाय ते सम्यक्त्व छे (भावार्थ उपर आवेल छे.) आवं सम्यक्त्वज अथवा समत्वज सारी रीते समजे विचारे, के पोते अचेल होय अने बीजो एक वस्त्र विगेरे राखनारो होय, 15 तेने पोते निंदे नहि. कडुं छे केः ____“जोऽवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते हीलंति परं सब्वेऽवि य ते जिणाणाए" ॥१॥ -US-SecE For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम जे बे वस्त्र धारण करे, त्रण वस्त्र धारण करे, अथवा एक वस्त्र राखे, अथवा अचेलक फरे, पण ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञामां आचाट वर्ने छे, तेथी एक बीजाने निंदे नहीं. “जे खलु विसरसकप्पा संघयणधियादिकारणं पप्प | णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ २ ॥ ॥६८०॥ 18 जेभो जुदा जुदा कल्पवाळा छे, तेओ शरीर संघयण तथा ओछी वधती धैर्यताने लीधे छे तेथी एक बीजाने अपमान न करे, 8॥६८०॥ तेम ओछापण न माने, (एटले पोतानी शक्ति वधारे होय तो ओछां वस्तथी निभाव करे, पण वधारे राखनारने निदे नहीं, तेम कारण पडतां वधारे वस्त्र राखवां पडे तो पोते दीनता न लावे के हुँ पतित छं. पण जरुर जेटली वारज मंदवाड विगेरेमां वधारे 15 वस्त्र वापरे.) सव्वेवि जिणाणाए, जहाविहिं कम्मखवणट्ठाए; विहरंति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं ॥ ३॥ ते बधा जिनेश्वरनी आज्ञामा कर्मक्षय करवाने यथाविधि रहेला छे, पण तेओ योग्य विहार करता विचरे छे, एवं निश्चयथी टू पोते मनमा उत्तम साधु जाणे छे. IF अथवा तेज लाघवपणाने समजीने सर्व प्रकारे द्रव्यक्षेत्र काळ भाव विचारीने आत्मावडे सर्वथा नाम विगेरे ( चार-निक्षे पाथी) सम्यक्त्वनेज सारी रीते जाणे. अर्थात् तीर्थकर गणधरोना उपदेशथी दरेक क्रिया बरोबर करे. आ बधां अनुष्ठानो जेम ५ तावने दुर करवा माटे तक्षक नागनां माथा उपर रहेल मणीरत्न लावचा रुप अशक्य उपदेश नथी; पण बीजा घणा उत्तम साधुए ५ लघणो काळ सुधी एवं उत्तम संयम पाळ्युं छे. ते बतावे छे के आ प्रमाणे ओछां वस्त्र अथवा बीलकुल वस्र विना रहीने घासल स्वबाब्वावर For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६८१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | विगेरेना कठोर फरसोनां दुःखोने सहन करनार महावीर ( बळवान योद्धा ) पुरुषोए वधा लोकने चमत्कार पमाडनारा घणो काळ आखी जींदगी सुधी अनुष्ठान कर्यु छे. तेज विशेषथी कहेछे. ( चोराशी लाख, ने चोराशी लाखे गुणतां जे संख्या थायः तेलां वरसोनुं पूर्व धाय छे.) तेवां घणां पूर्व सुधी संयम - अनुष्ठान पाळता मुनिओ विचर्या छे. पूर्वनी संख्खा ७०, ५६०००००००००० वर्षनी छे. आ वात रिखवदेव भगवानना वखतथी ते दशमा शीतळनाथ सुधी पूर्वेनां आउखा हतां; तेने आश्रयी छे. ( आठ वर्ष उपरनी उमरना शिष्यने दीक्षा अशय; अने तेनुं लांबु आयुष्य होय तेने आश्रयो छे.) त्यारपछी, श्रेयांसनाथ भगवानथी वर्षनी संख्यानी प्रवृत्ति जाणत्री तथा भव्य जीवो जे मुक्ति जवाने योग्य छे, तेमने तुं जो, अने जे घासना कठोर फरसो विगेरे उपर बताव्या; ते तमारे सारी रीते सहेवां. जेम तेमणे सथा; तेम, बीजा उत्तम साधुओ सहन करे छे. आ प्रमाणे जे उत्तम साधु सहन करे; तेने शुं लाभ थाय ने कहे : आपन्नाणा किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेणि कट्टु परिन्नाय, एस तिष्णो मुरिए वियाहि तिबेमि (सू० १८६) आगत ते मेळवे छे. प्रज्ञान जेमणे तेवा गीतार्थ साधुओ तप करीने तथा परीसहो सहीने कुश (पातळी) वाहु वाळा बने छे, अथवा महान् उपसर्ग तथा परीसह विगेरेमां तेओ ज्ञान मेळवेला होवाथी तेमने पीडा ओछी होय छे. कारण के कर्म खानवा तैयार थयेल साधुने शरीर मात्रने पीडा करनारा परीसह उपसर्गो मने सहाय करनारा छे. एवं मानवाथी तेने मननी पीडा नथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ६८१ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६८२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थती. तेज कां छे के: " णिम्माणे परो चिय अध्याण उ ण वेयणं सरीराणं । अप्पाणी चिअ हिअयस्स ण उण दुक्खं परो देइ ॥ १ ॥ बोजो माणस आत्माने पीडा नथीज आपतो पण शरीरने दुःख आपे छे, पण आत्याना ह्रदयनुं दुःख पोतानुं मानेलुं छे. पण पारको ते दुःख आपतो नथी. शरीरनी पीडा तो थाय छेज ते बतावे छे. ज्यारे शरीर सुकाय भने पातळु थाय, त्यारे मांसने लोही सुकाय, तेवा उत्तम | साधुने लुखो तथा अल्प आहार होवाथी माये खलपणे परिणमे छे. पण रस पणे नहीं. कारणना अभावथीज थोडंज लोही अने | तेज शरीरपणे होवाथी मांस पण थोडुज दोय छे, तेज प्रमाणे मेद विगेरे पण ओछां होय छे. अथवा रुक्ष [लुखं] होय ते प्राये वाल (वायु करनार) होय छे. अने वायु प्रधान थवाथी मांस अने लोहीनुं प्रमाण ओकुंज होय छे. तथा अचेलपणुं होवाथी शीरने घासना कठोर फरस विगेरे थतां शरीरमां दुःख थवाथी पण मांस अने लोही ओछां थाय छे. संसारश्रेणी जे रागद्वेषरुप कषायनी संतति छे, तेने क्षांति विगेरे गुणो धारीने विश्रेणी [ नष्ट ] करीने तथा समत्व भावपणुं जाणीने ते प्रमाणे वर्ते जेमके जिनकल्पी कोइ एक कल्प [व] धारी कोइ बे, अने कोइ ऋण पण धारण करे छे, अथवा स्थविर कल्पी मुनि मास क्षपण होय, कोइ पंदर दिवसना उपवास करनारो होय, तथा कोइ विकृष्ट अने कोइ अविष्ट तप करनारो होय. अथवा कोइ क्रूरगड जेवो रोज़नो पण खानारो होय, तो ते बधाए तीर्थकरना वचन अनुसारे वर्ते छे, अने परस्पर निंदा करनारा न होवाथी समत्वदर्शी छे, कथुं छे केः For Private and Personal Use Only सूत्रम ।।६८२ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो दुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ नहुने हिलेति परं सव्वेवि हु ते जिणाणाः ॥ १ ॥ जे वे, ऋण, एक अथवा वस्त्र रहित निभाव करे, ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी परस्पर निंदा करता नथी; तथा जिनकल्पिक, अथवा प्रतिमा धारण करेल, कोइ मुनि कदाचित् छ महिना सुधी पण पोताना कल्पमां भिक्षा न मेळवे, वो उत्कृष्ट तप करना छतां पोते रोज खानार क्रूरगड जेवा मुनिने एम न कहे के हे भात खावा माटे दीक्षा लेनारा मुंड! तें खात्रा माटेज मात्र दीक्षा लोधी छे ! [एवं कहीने अपमान न करे. ] तेथी आ प्रमाणे समत्व दृष्टिनी प्रज्ञावडे संसार भ्रमण रूप कपायने दूर करी समता धारण करीने ते मुनि संसार सागर तरेलो छे तेज सर्व संगथी मुक्त छे, तेज सर्व सावध अनुष्ठानथी छुटेल जिनेश्वरे वर्णव्यो छे, पण बीजो नहिं. एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. म० - हवे ते प्रमाणे जे संसार श्रेणीने त्यागी संसारसागर तरेलो मुक्त वरणच्यो तेत्रा उत्तम साधुने अरति पराभव करे के नहि ? उ - कर्मना अचित्य ( विचित्र) सामर्थ्यथी परिभवे पण खरी ! तेज कहे छे. - ari भिक्खु तं चिरा ओसियं अरई तत्थ किं विधारए ?, संधेमाणे समुद्दिए, जहा असंदीण एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणत्रकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जड़या मेहात्रिणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुट्टाणे जहा से दिया पोए एवंते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि (सू० १८७) धूताध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ ६-३ ।। For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ६८३ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम CE% % -0 असंयमथी बचेल भिक्षाथी निर्वाह करनार तथा अप्रशस्त स्थान रुप असंयमथी नीकळी गुणोने उत्कृष्टपणे प्राप्त करवाथी उपरी आचा०1४ उपरना प्रशस्त गुण स्थान रुप संयममां वर्तता साधुने शुं स्खलायमान करे ? अर्थात् तेवा उत्तम साधुने अरति मोक्षमा जतां जतां अटकावी शके के? उ. हा दुर्बळ अने अविनय वाली इंद्रियो छे. तेने अचिंत्य मोह शक्ति अने विचित्र कर्म परिणति शुं न करे ? ॥६८४॥ (अर्थात् कुमार्गे लइ जायज) कह्यु छे के: ॥६८४॥ “कम्माणि णं घणचिक्कणाइ गरुयाई वइरसाराई । णाणटिअंपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं णिति" ॥१॥ निश्चे कर्म घणां चीकणां वधारे प्रमाणमां वज्रसार जेवां भारे होय; तो, ज्ञानथी भूषित होय; तेवा पुरुषने पण सारा मार्गथी कुमार्गे लइ जाय छे. अथवा आक्षेपमां आ 'किम्' शब्द छे तेनो परमार्थ आ छे के, अरति तेवा उत्तम साधुने धारी शके के? उ. नज धारी शके? कारण के, आ उत्तम साधु क्षणे क्षणे वधारे वधारे निर्मळ चारित्रना परिणामथी मोहना उदयने रोकेलो होवाथी लघुकर्मचाळो छ, तेथी तेने अरति कुमार्गे न दोरी शके ते बतावे छे. क्षणे क्षणे विनाविलंबे संयमस्थानना चडता चडता कंडकने धारण करतो | सम्यगप्रकारे चारित्र पाळतो रह्यो छे. अथवा, चडता चडता गुणस्थानने पहोंचतो यथाख्यात-चारित्रना संमुख जतो होवाथी तेने A अरति केवी रीते अटकावी शके ? (न अटकावे.) अने आवो साधु पोताना आत्मानोज अरतिथी रक्षण करनार छे. एम नहीं पण, बीजाओनी पण अरति दूर करनार होवाथी रक्षक छे, ते बतावे छे. बन्ने बाजुए जेमां पाणी छे ते द्वीप छे; ते द्रव्य, अने भाव एम वे भेदे छे ते द्रव्यद्वीपमां आश्वास पवनवा ARIS A--- % C For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥६८५॥ (विश्रांति ) ले छे. तेथी ते आश्वास लेवाने माटे जे द्वीप होय; ते आवासद्वीप छे, ते नदी समुद्रना घणा मध्यभागमा [ नदीनी आचा० & पहोळाइ विशेष होय तेमा बन्ने बाजुए पाणी वहेतुं होय अने वचमां खाली जग्या होय; तो, बेट कहेवाय छे. तेज प्रमाणे समुद्रमां ॥६८५॥ जग्या उपसेली होय तो वरसाद लीधे ते उपसेली जग्याना मेदानमां फळ द्रुप जग्या थाय छे, त्यां] वहाण कोइ पण कारणे नदी ४. समुद्रमां भांगी जतां डूबतां माणसो आश्रय ले छे. आ बेट पण वे प्रकारे छे. जे परववाडीए अथवा महीने पाणीथी भराइ जाय ते संदीन कहेवाय, अने तेवो बेट जो भरतीना पाणीथी भराइ न जाय तो असंदीन कहेवाय. जेमके सिंहलद्वीप विगेरे छे. अने बहाPणवाळा ते द्वीपनो आश्रय ले छे. अने पाणी विगेरेनो उपयोग करे छे. अने ते बेटथी तेमने आश्रय मळे छे. तेवीज रीते उत्तम रीते वर्तता साधुने जोइने भव्य जीवो तेनो आश्रय ले छे. ____ अथवा द्वीपने बदले दीप [दीवो] प्रकाश आफ्नार लइए तो ते प्रकाशने माटे होवाथी प्रकाश द्वीप छे. अने ते मूर्य चंद्रमणि विगेरे असंदीन छे. अने बीजो विजळी उल्कापात विगेरेनो संदीन छे. [मूर्य चंद्र प्रकाश आपे पण ते प्रकाश स्थायी अने उपकारक होवाथी लोको आश्रय ले छे. पण तेवा गुणथी रहित विजळीनो प्रकाश नकामो छे अथवा दुःखदायी छे. तेवीन रीते कुसाधु अस्थिर चारित्रवाळो लोकोने धर्मथी भ्रष्ट बनावे छे.] अथवा घणां लाकडां एकठां करी सळगाव्याथी इच्छित रसोइ विगेरे बनाववामा उपयोगी होवाथी असंदीन छे. अने घासना भडका जेवो अग्निनो प्रकाश संदीन छे. [तेज प्रमाणे सुसाधु अने कुसाधुना दृष्टांत समजवां.] जेम आ स्थपुट विगेरेना बताववाथी हेय उपादेयने छोडयु, गृहण करवू, एवा विवेकने वांच्छनारा भव्य जीवोने खुल्लु बताववाथी ते उत्तम साधु उपयोगी छे. ते प्रमाणे कोइ समुद्रना अंदर रहेला प्राणीओने विश्रांति आपनार छे. तेज ISRAECRECARE SEARCARE For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CA सूत्रम ॥६८६॥ प्रमाणे ज्ञान मेळववा उद्यत थयेलो परीसह उपसर्गमां दीनता न लाववाथी असंदीन छे. ते साधु विशेष प्रकारे उत्तम बोध आप-12 आचा० वाना कारणे बीजा जीवोने पण उपकार माटे थाय छे. वीजा आचार्यो भारद्वीप अथवा भावदीपने बीजी रीते वर्णवे छे; ते आ प्रमाणे भावद्वीप ते सम्यक्त्व छे. अने ते पार्छ ॥६८६॥ जवान बताच वार्थी औपशमिक अने क्षायोपशमिक संदीन भावद्वीप छे, अने क्षायिक सम्यक्त्वने मेळवीने संसार भ्रमणनी हद आवो जवाथी प्राणोओने धैर्य आवे छे (के हवे आ दुःख अमुक काळ सुधीमुंज हे.) पण संदीन भाव दीप तो श्रुतज्ञान छे, अने असंदीन ते केवळज्ञान छे, तेने मेळवीने पाणीओ अवश्ये धैर्य मेळवे छे, अथवा Hधर्मने सारी रीते धारण करी चारित्र पाळतो छनो अरतिना वशमा ते साधु जतो नथी एवं वर्णन करतां कोइ वादी पूछे केकेत्रो आ धर्म छे के जेना संधानने माटे आ साधु उठ्यो छे? नो उत्तर जैनाचार्य आपे छे. जेम आ असंदीन द्वीप पाणीथी न भींजायलो भागेलां वहाणना माणसो तथा बीजा घणा जीवोने शरण आपवाथी विश्रांति 8 आपवा योग्य छे, तेम आ जिनेश्वरे कहेलो धर्म कप ताप छेद निर्घटित एम चार प्रकारे परीक्षा करतां असंदीन द्वीप समान आश्रय आपनार छे, [सोनानी परीक्षा कष लेवाथी सारो कष आपे, तापमां नाखवाथी काळ न पडे, पण विशेष चळकाट आपे, छीणीथी कपातां अंदरथी पण उत्तम जाति ओळखावे, तथा घडवाथी भांगी न जतां चीकणाशथी हथोडीना घा पडवा छतां विशाळ | | यतुं चाले. तेम जैन धर्मी जीवने कोइ तिरस्कार करे, संतापे, हाथ पग छेदे, घाणीमां घालीने पीले, अथवा अणघटतो अतिशय १ IS मार मारे, प्राण ले, तोपण उत्तम साधु पोताना आत्मधर्मथी विमुख थतो नथी.] T EG-% AAAAAAEWAS % For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६८७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा कुतर्कवडे पोते गमरातो नथी. पण योग्य उत्तर आपवाथी प्राणीओने रक्षण माटे आश्वास भूमि है. प्र० - ते धर्म आर्य पुरुषोए कहेलो होवाथी ते प्रमाणे वर्तनारा शुं बरोबर अनुष्ठान करनारा छे ? उ-हा, अमे कडीए डीए, प्र० - जो ते होय तो ते केवा छे ? उ. ते साधुओ निर्मळ भाव चालु राखवा संयममां अरतिना प्रणोदक ( दूर करनार ) छे. मोक्षनी समीपमा रही भांगनी इच्छा छोडीने धर्ममां सारी ते उद्यम करे छे. आ प्रभाणे बधे समजवुं के तेओ प्राणीओने हणता नथी. तेम बीजां महाव्रत पाळनारा जाणवा तथा कुशळ अनुष्ठान करवाथी सर्व लोकोना दयित (रक्षका) ले तथा मेधावी एटले साधुनी मर्यादामां रहेला छे, पापना कारणाने छोडवाथी सम्यग् रीते | पदार्थने जाणनारा पंडित साधुओ धर्म चारित्र पाळवा माटे उठेला छे. पण जेओ ते निर्मळ ज्ञान धरावता नथी. तेओ सम्यग् विवेकना अभावथी हजु सुधी पण तेओ तेनुं चारित्र पाळवा तैयार नथी. | तेवा ज्ञान रहित साधुओने पूर्वे बतावेला निर्मळ बोधवाळा आचार्य विगेरेए सुबोध आपीने ज्यांसुधी तेओ ज्ञाने करीने विवेकवाळा थाय त्यांसुधी पाळवा जोइए, ते बतावे छे. उपर बतावेली विधिए ओछु ज्ञान मेळवेला अस्थिर मति वालाने भगवान | महावीरना धर्ममां सारी रीते तेओ न जोडाया होय; तो, सुबोधनां उपदेश वडे तेमनुं पालन करीने स्थिरमति वाळा बनाववा अहीं दृष्टांत कहे : जेमके :- द्विज ते पक्षी छे, तेनुं पोत (बच्चुं) ते द्वीजपोत छे, ते बच्चांने तेनी मा गर्भना प्रसवथी लइने इंडुं मुके, त्यारपछी, अनेक अवस्थाओं आवे; ते बधामां ज्यांसुधी ते बच्चुं पुरुं उडवायोग्य मजबुत पांखोवाळं थायः त्यांसुधी पाळे छे. तेज प्रमाणे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६८७॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥૮॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य पण नवा चेलाने दीक्षा आपीने तेज दिवसथी साधुनी दश प्रकारनी समाचारीनो उपदेश, तथा अध्यापन ( भणाववावडे) ज्यांसुधी ते गीतार्थ थाय; त्यांसुधी पाळे; पण जे चेलो आचार्यना उपदेशने उल्लंघोने पोतानी इच्छा प्रमाणे स्वतंत्र त्रिचरी कंपण क्रिया करे; तो ते (लाभ मेळववाने बदले) उज्यन नगरना राजकुमारनी माफक दुःख पामे ते बतावे छे. उज्यन नामनुं नगर छे, तेमां जीतशत्रु नामनो राजा छे तेने वे पुत्रो छे. मोटा पुत्रे धर्मघोष आचार्य पासे संसारनी असारता समजीने दीक्षा लोधो, अनुक्रमे आचारांग विगेरे शास्त्रो भणीने तेनो परमार्थ समजीने जिनकल्पने स्वीकारवानी इच्छाथी बीजी सत्वभावनाने भावे छे, ते भावना पांच प्रकारनी छे. (१) उपाश्रयमां (२) तेनी बहार (३) त्रीजो तथा चोथो शून्यघरमां, तथा पांची भावना मसाणमां छे, ते पांचमी भावनाने भावतो हतो. ते समये मोटाभाइना प्रेमथी नानोभाइ खचाइने, आचार्य पासे आवीने बोल्यो केः मारो मोटोभाइ कयां छे ? साधुए कं तोरे भुं काम छे? तेणे कछु के:-मारे दीक्षा लेवी छे. आचार्य कः - तुं प्रथम दीक्षा ले, पछी तारो भाइ देखीश. तेणे दीक्षा | लोधी; अने पूछयुं. मोटो भाइ क्यां छे ? आचार्ये कथुं : — देखवानी शुं जरुर छे ? कारण के, ते कोइथी बोलतो नथी, अने ते | जिनकल्प धारण करवा इच्छे छे. नानाभाइए कः तोपण, हुं तेने जोश, घणो आग्रह करवाथी मोटोभाइ बताव्यो, ते चुप बैठेलो नानाभाइए वांद्यो. पछी, मोटाभाइ उपर घणो प्रेम होवाथी आचार्ये ना पाडी, उपाध्याये रोक्यो; साधुओए पकडी राख्यो; अने ते नानाभाइने बोल्या:-- के आ स्मशानमा रहेवानुं, तारे अमुक समय सुधी थोभवानुं छे. कारण के, तारा जेवाने ए कठण अने विचारमां पडवानुं छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम દ્રા Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - आचा सूत्रम् ॥६८९॥ ॥६८ SSASSAGAR आवं समजाव्या छतां पण, तेणे कां:-ई पण, तेज बापथी जन्म्यो छ (मारामां पण तेटलोज हीमत केले. ) एवं ओठु लइने । । मोहथी ते पण, तेमज मसाणमां मोटाभाइ माफक बेठो. मोटाभाइने देवीए वांद्यो, पण नवा साधुने न वांद्यो, तेथी अस्थिर । । मतिना कारणे ते देवी उपर कोपायमान थयो. देवताए पण तेना अविधिना कृत्यथी कोपायमान थइने लात मारीने तेनी बे आंखोना डोळा बहार काढी नारूया. तेथी मोटोभाइ हृदयीज (प्रेमथी) देवताने कहेवा लाग्यो, के आ अज्ञान छे, तेने शा माटे दुःख दीधं तेनी आंखो नवी बनाव. देवीए का, जीवना प्रदेशोथी जुदा पडेला आ डोळा जोडाय तेम नथी, साधुए का नवा बनाव, तेमनुं वचन ओलंघाय तेवू नथी, एम विचारीने देवीए तेज क्षगे चंडाडे मारेला एल [बकरा]नी आंखोना बे डोळा लावीने तेनी आंखो नवी बनावी. आ प्रमाणे उपदेशथी वहार वर्तनारने दुःख थाय छे, तेम विचारीने शिष्ये हमेशां आचार्थनी आज्ञामां वर्तवू. आचार्ये पण हमेशां परोपकारनी वृत्ति राखीने पोताना शिष्यो यथोक्त विधिए पाळवा तेज बतावे . के जेम पक्षीना बच्चाने मावाप पाळे तेम आचार्य पण रातदिवस शिष्योने पाळवा अनुक्रमे वाचना आपवी, शिखामण आपत्री, वधा कार्यमां धैर्यतावाला करवा के जेथी तेओ ते प्रमाणे वर्तीने संसारथी पार उतरवा समर्थ थाय छे. एबु सुधर्मास्वामि कहे छे. त्रीजो उद्देशो समाप्त. BARAAKAL RAMES For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥६९०॥ ॥६९०॥ चोथो उद्देशो कहे छे. __त्रीनो उद्देशो कह्या पछी चोथो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां शरीर उपकरणनो ममत्व त्याग बताव्यो से अने ने त्रग गौरवने धारण करनारने संपूर्ण न होय, तेथी ते गौरव त्यागवा आ उद्देशो कहे छे. तेना आ संबंधी आवेला उद्देशानुं पहेलु मूत्र आ छे. एवं ते पिस्मा दिया य राओ य अणुपुट्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्नेहि तेसिमंतिए पन्नाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं नोत्ति, मन्नमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामो पगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववन्ना समाहिमाधायमजोसयंता सत्यारमेव फरुसं वयंति (सू० १८८) उपर बतावेल पक्षीना बच्चाना वधवाना क्रमथीन ते शिष्यो पोताने हाथे दीक्षा आपेला अथवा बडी दीक्षा आपेला तथा भणवा आवेला साधुओने दीवस अने रात्रे क्रमथीज भणावेला होय. तेमां कालिक मूत्र दिवसनी पहेली तथा चोथी पोरसीमां भणावाय छे. पण जे उत्कालिक छे ते संध्यासायनी काळ वेळा | छोडीने आखो दिवस रात गमे त्यारे भणाय छे. ते अध्यापन आचारांग विगेरे क्रमथी कराय छे, अने आचारांगमूत्र भणाववान Acालन For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ६९९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रण वरसना पर्यायवाळाने छे. विगेरे क्रमथी भणावेला चारित्र लीला साधुओ होय छे, तेमने उपदेश आपेलो छे के, युग मात्र दृष्टिए ज. काचवा माफक अंगने संकोची राखवां आ प्रमाणे शिखामण आपेला, अने भणावी तैयार करेलां साधुओ होय छे. मः - कोणे भणावेला है. उ:- ते तीर्थकर गणधर आचार्य विगेरे महावीर पुरुषोए भणाव्या छे. प्रः - ते भगावनार केवा छे? उ:- ज्ञानीओ छे. कारण के, तेमनो कहेलो उपदेशज असर करे छे. (माटे, ज्ञानीनुं विशेपण आपल छे.) अने ते शिष्यो बन्ने प्रकारे प्रेक्षा पूर्वकारी छे. तेओ आचार्य पासे रहीने ( प्रकर्षथी जणायः प्रज्ञान. ) श्रुतज्ञान भणे छे. कारण के, ते श्रुतज्ञानना प्रतापथीज नवो नत्रो बोध थाय छे, तेथी ते बहुश्रुत वनीने प्रबळ मोहना उदयने लोघे आचा|ना सदुपदेशने उत्कट मदथी दूर करीने उपशम छोडीने दुःखी थाय छे. ते उपशम द्रव्य, अने भाव एम वे भेदे छे. द्रव्यथी उपशम ते, कतक नामनी वनस्पति एक जातनुं बीज आवे छे. ते) तेने चुरीने जो गारावाळा पाणीमां नांखेल होय; तो, पाणी गारो नीचे बेसतां निर्मळ थाय छे, भाव उप म ते, ज्ञान विगेरेथी ऋण प्रकारनुं छे. (१) ज्ञानवडे जे क्रोध न करे; ते ज्ञानउपशम छे. ते आ प्रमाणे आक्षेपणी विगेरे कोपण प्रकारनी धर्मकथावडे कोइ जीव शांति धारण करे ते, ज्ञानउपशम छे. (२) शुद्ध शम्यग्दर्शनथी तेवा क्रोधीने शांति पमाडे. जेमके — श्रेणिक राजाए जे देवता अश्रद्वावाळो हतो, तेने बोध करीने शांत माड्यो. ( पोताना दृढ सम्यक्त्वथी ते देवता श्रद्धावाळो थयो ) अथवा आठ दर्शनप्रभावकोथी कोइ जीव संमती विगेरेथी शांत पाये है, अने चारित्र-उपशम तो क्रोध विगेरेना उपशम छे, तेनामां विनयथी नम्रता होय छे. मां केटला क्षुद्र साधुओ ज्ञानसमुद्रमां अंदरनुं रहस्य न जाणवाथी समुद्रना उपरज डुबकी मारनारा होय छे. तेओ उपर For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ।। ६९१ ।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %a 1४ कहेल उपशम छोडीने ते ज्ञाननो लेश हाथमा आवतां अहंकारी वनीने कठोरता ग्रहण करे छे (अहंकारी बने छे,) ते बतावे छे.181 आचा० दिपरस्पर मूत्र तथा गाथा गणतां; अथवा अर्थ विचारतां एक बीजाने कहे छे. “जे तें का, ते अर्थ आ शब्दनो नथी. तेथी हुँदा सूत्रम जाणतो नथी वळी. बोले छे के–मारा जेवा शब्दना अर्थनो निर्णय करवामां समर्थ कोइकज होय छे, पण वधा नहीं, " पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षित निश्चितं पुनरिदम् नः ॥ वादिनि च यल्लमुख्ये च मागेवान्तरं गच्छेत् ॥ १॥ ॥६९२॥ गुरुओने पूछेल, अने पोते पण आ निश्चय करेलो छे एg अमारं आ कथन छे. तथा वादिओमां विद्वान्, अने मुभटमां महारा जेवो कोइकन बीजो हशे. बीजो साधु कहे छे के. खरेखर, हशे (पण) अमारा आचार्य ता, आ प्रमाणे कई छे. तेथी ते फरीथी बाले छे के, ते आचार्य बोलवामां कुंठ [बुठा] जेवो बुद्धिहीण शुं जाणे? तुं पण, पोपटनी माफक भणावेलो विचार कर्या नविनानो छ, आ प्रमाणे बीजा केटलांक वाक्यो ते दुष्ट बुद्धिए ग्रहण करेल थोडा अक्षरनुं ज्ञान धरावनार साधु बोले छे, नेथी एम जाणवू के, महान् उपशमनु कारण जे ज्ञान छे, तेने विपरीतपणे परिणामतां ते आq बोले छे. का छे के: “अन्यैः स्वेच्छारवित्तानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्न वायमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण" ॥१॥ बीजाओए इच्छानुसार रचेला कोइपण अर्थने श्रमथी जाणीने पोते जाणे के, संपूर्ण सिद्धांतना पारंगामि होय; तेम, अहंकारवडे अंगोने खाय छे. [वीजा अपमान करे ..] "क्रोडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवालभ्यः । शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा क्षुलको नयति" ॥२॥ श्रीमतोनी क्रीडा समान वस्तुने कुकडाना लावक समान जेवो बनीने पवित्र शस्त्रोने पण, हास्य कथा जेवी लघुताने क्षुद्र साधु CHAARA 4 % For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AS आचा पमाडे छे. (उत्तम जातीनुं मोती जे श्रीमंतोनुं मन रीझावे; तेवा मोतीने न समजनार कुकडानुं बच्चु जुवारनो दाणो समजी लेवाला सूत्रम् जतां; कदर न थवाथी फेंकी दे छे. तेज प्रमाणे क्षुद्र साधु गंभीर मूत्रना परमार्थने न समजवाथी हांसीना वाक्य तरीके मानी ले ॥६९३॥ छे.) विगेरे. अथवा बीजी प्रतिमा 'हेच्चा उवसमं अहगे पारुसियं समारुहति' पाठ छे, तेनो अर्थ आ छे के-उपशम छोडीने बहु६| ॥६९३॥ श्रुत बनेला केटलाक (बधा नहीं) कठोरताने स्वीकारे ले, तेथी, तेमने बोलावतो, अथवा पूछवा जतां कां तो, चुप रहे छे. अ-1ळू Wथवा हुंकार शब्द बोलीने माथु विगेरे हलावीने जवाब आपे छे. वळी, केटलाक ब्रह्मचर्य जे संयम रुप छे, तेमा रहीने अथवा, आचारांगमूत्र भणीने तेनो अर्थ ब्रह्मचर्य छे, तेमां रहीने आ-15 चारांगना विषयने अनुसार अनुष्ठान करवा छतां पण तेनो तिरस्कार करीने तीर्थकरना उपदेश रुप आज्ञाने कंइक माने कइक न माने; परंतु, सातागौरवनां बाहुल्यपणाथी तीर्थकरनां वचनने बहु मान आपता नथी; पण शरीरनी बकुशपणाने अवलंबे छे. (शरीरनी शोभा करवामां वीतरागनी आज्ञा उलंघे हे.) अथवा, अपवादने ओलंबीने वर्ततां उत्सर्ग मार्गनो उपदेश आपतां तेओ एकांत पकडे ळे के, 'ते उत्सर्ग मार्ग जिनेश्वरनो18 कहेलो नथी.' हवे, समजवा माटे अपवाद बतावे छे. कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिय निरोगी भिक्षु (साधु ) मांदा साधुनी समाधि माटे योग्य रीते वेयावच्च करे. जे कारणे (रोगे ) साधु मांदो होय; ते रोग छादर करवा आधाकर्मी आहार विगेरे पण लावी आपे. S AGAR For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र०-ठीक तेम हशे; पण कुशील साधुओ जेओ तीर्थकरना वचननी आशातना करे तेमने दीर्घ संसार थाय छे, तेमने आचात थवानां भविष्यना दुःखो केम बताव्यां नथी ? उ०-एज अमे बताव्यु, के जे शरीर शोभा विगेरे माटे कुशीलता सेवे छे, तेमने ६ मत्रम थवाना कडवा विषाक विगेरे सूचव्या ते, हितशिक्षानुं वचन गुरु पासे सांभळीने ते कुशीलीया साधुओ ते गुरुनेज कडवां वचन ॥६९४॥ संभळावे छे. १०-त्यारे कुशीलीआ साधु शा माटे गुरु पासे सिद्धांत सांभळता हशे? ॥६९४॥ उ०-समनोज्ञ ( लोकमां संमत ) बनीने मान मेळवी अमे जोवन गुजारी , आवा हेतुथी सिद्धांतना गुढ रहस्यना प्रश्नोना Mखुलासा माटेज शब्द शास्त्रादि (व्याकरण विगेरे ) शास्त्रो भणे छे. अथवा आ उपायवडे लोकमां मानीता थइने अमे जीवीरों, एटला माटेज केटलाक दीक्षा लइने, पछवाडे कुशीलीया बने छे. अथवा समनोज्ञ ते प्रथम दीक्षा लेतां विचारे के अमे उद्युक्त विहारी बनीने संयम जीवितवडे जीवीरों, अने दीक्षा लइ पाछ18ळथी मोहना उदयथी चारित्र बरोबर न पाळे, तेओ गौरवत्रिक (ऋदि रस साता)ना कारणे अथवा तेमांथी कोइपण एकना कारणे ज्ञानादिक मोक्षमार्गमां सारी रीते वर्त्तता नथी, तेम गुरुना उपदेशमां वर्तता नथी, अने जुदी जुदी जातनी इच्छाओथी गृद्ध थइने चित्तमां बळता गौरवत्रिकमां ध्यान राखीने विषयोमा रक्त बनी इन्द्रियोने स्थिर करवा रुप जे तीर्थकर विगेरेए पांच यमो [महा व्रतो] बतावेला के तेने बरोबर न पाळीने पोतानी मेळे पंडित मानी बनीने आचार्य विगेरेए वीतरागना शास्त्र प्रमाणे प्रेरणा कर्या ४ छतां ते कुसाधुभो ते गुरुने कडवां वचन संभळावे छे. अने बोले छ के 'आ विषयमा तमे भुं जाणो' कारण के जेवीरीते मूत्रना अर्थने व्याकरणने गणितने अथवा निमित्तने हुँ जाणुं छ. तेवी रीते बीजो कोण जाणे छे? आ Aॐॐॐ वसावाकालवाल For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६९५॥ R-54 लप्रमाणे आचार्य विगेरेने कुसाधु कडवां वचन कहे छे. आचा० अथवा धर्मोपदेशक तीर्थकर विगेरे छे. तेमने पण कडवां वचन कहे छे. ते बतावे छे. कोइ वखत ते साधु भूल करे, त्यारे ॥६९५॥ म आचार्य ठपको आपे त्यारे कुसाधु कहे, के तीर्थङ्कर अमारूं गळं कापवाथी वधारे बीजु शुं कहेनार छ ? विगेरे अनुचित वचन बोले छे. अने विद्याना खोटा मदना अवलेपथी मदांध बनीने शाख रचनार गणधर भगवंतोने पण दुपण आपे छे. वळी, आचार्योने I दूषण आपे छे, एटलुंज नहि; पण, बीजा साधुओने पण कडवा म्हेणां संभळावे छे. सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया (सू० १८९) ४ शील ते अढार हजार भेदवाळं छे, अथवा महाव्रतो पाळवार्नु छे, तथा पांच इन्द्रियोनो जय करवानुं छे. कषायनो निग्रह छे, त्रण गुप्ति पाळवानी के. ए, निर्मळ शीळ पाळे ते शीळवंत छे, तथा कषायने शांत करवाथी उपशांत छे. शंका-शीळवान ग्रहण करवाथी उपशांत तेमां समाइ गया. त्यारे फरी केम का ? उत्तर-कपायना निग्रहन प्रधानपणुं बताक्वा माटे, सम्यक्रीते जेनावडे कहेवाय; ते संख्या अथवा प्रज्ञा छे, तेना वडे संयम अनुष्ठानमा पराक्रम करनारा आचार्यो होय; छतां, कोइ साधुना नबळा भाग्यथी सदाचार रहित ए आचार्यों छे. एवी निदा करनारा, अथवा पछवाडे निंदा करनारा, अथवा मिथ्या दृष्टि विगेरे बोले के तेओ कुशील छे, एवं कहेतां पासत्था विगेरेनी आचार्यने खोटां वचन कहेवा रुप आ बीजी मूर्खता छे. एटले, कुसाधु प्रथम तो, पोते सारा चारित्रथी रहित छे, अने पोते सारा चारित्र पाळनार उद्युक्त विहारी उत्तम साधुने निंदे 19U SESEARE -%AAAE For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६९६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे. आ तेमनी बीजी मूर्खता छे. अथवा, जे शीळवन्तो छे ते उपशांत छे. एवं बीजाए कहे छते, ते कुसाधु बोले के “ ए घणो उपकार करनारा आचार्य विगेरेमां तमारा कहेवा मुजब क्यां शील अने उपशांतता छे ?” आ प्रमाणे बोलता दुराचारी साधुनी बीजी मूर्खता थाय छे. पण, बीजा केटलाक साधुआं वीर्योतराय कर्मना उदयथी जो के पोते पुरुं चारित्र न पाळता होय; छतां पण बजा उत्तम साधुओनी प्रशंसा करता रहने पोते पण बीजाने सारा आचार बतावे छे. ते कहे छे:नियमाणा वेगे आयारगोयर माइक्खंति, नाणभट्टा दसणलूसिणो ( सू० १९० ) अशुभ कर्मना उदयथी सयमथी दूर थाय, अथवा लिंग मुकी दे, अर्थात् केटलाक साधुओ मोहना उदयथी चारित्र न पाळी शके, त्यारे को साधुनो वेष मुकी दे, अथवा वेष राखे तो पण पोते साधुनो जेवो आचार होय, तेवो लोकोने बतावे छे. अने पोतानी निंदा करता कहे छे, के तेवो उत्तम आचार पाळवाने अमे समर्थ नथी, आ कारणथी चारित्र न पाळयुं, तेज तेमनी मूर्खता छे. पण वचन साधुं बोलवाथी बीजी मूर्खता थती नथी, तेओ एवं खोडं नथी बोलता, " के अमे जे करीए छीए तेवोज अमागे आचार छे. " ( पोतानी भूल कबुल करे छे.) वळी आम न बोले के ' हवे आ दुःखम काळना अनुभावधी वळ विगेरे ओ | श्रवाथी मध्यम वर्तन एज कल्याणं कारण छे. हमणा उत्सर्गनो अवसर नथी ( आबुं खोदुं न बोले ) कछु छे के:" नात्यायतं न शिथिलं यथा युञ्जीत सारथिः । तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः ||१|| " न जोरथी, न धीरे, एम सारो डाकनार घोडा विगेरेने हाके ते हाकनारो डाह्यो गणाय, तथा घोडा पण ते प्रमाणे मध्यम चाळे तो ते योग बधे माननीय थाय छे. बळीः For Private and Personal Use Only सूत्रम ||६९६॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा० ॥६९७॥ AGRAWARA जो जत्थ होइ भग्गो, ओवास सी परं अविदंतो । गतुं सत्यऽचयंतो, इम पहाणंति घोसेति जे ज्यां भांग्यो होय तो ते बीजा अवकाशने न जाणतो अने त्यां जवाने असमर्थ होवाथी पोते पोतानी कुटेवने पण प्रधान सूत्रम् B बतावे छे. ( आq कुसाधन वर्तन हे, ते तेनी बेवडी मूर्खता छे.) ॥६९७॥ प्र०-तेओ शामाटे आवा कुशीळनुं समर्थन करता हशे? उ०-सारा माठाना विवेकनू जे ज्ञान छे, तेनाथी तेओ भ्रष्टला येल छ, तथा सम्यक्दर्शनथी दर रही असत (खोटुं) अनुष्ठान करवा वडे पोते नाश पामेला छे, अने शंका उत्पन्न करावीने तेओ | बीजाने सारा मार्गथी भ्रष्ट करे छे. वळी वीजा केटलाक पोते बाद्य क्रिया करवा छतां पण (अंदरनी श्रद्धा विना) पोताना आत्मानुं अहित करे ले, ते बतावे छे. नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति पुट्ठा वेगे नियटुंति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतंपि तेसिं दुन्निक्खतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा पुणो पुणो जाई पकप्पिति अहे संभवंता विदायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति पलियं पकथे अदुवा पकथो अ तहेहिं तं वा मेहावी जाणिजा धम्म (सू० १९१) ते कुसाधुओ आचार्य विगेरेने श्रुत ज्ञान मेळववा माटे द्रव्यथी देखवा मात्र ज्ञान विगेरेना भाव विनय शिवाय नमवा छतां पण, तेओमांना केटलाक अशुभ कर्मना उदयथी संयय जीवितने विराधे छे. अर्थात् उत्तम चारित्रथी आत्माने दर राखे छे. वळी & For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजुं शुं छे ? ते कहे है:-चारित्रमा अस्थिर मतिवाळा ऋण गौरवना बन्धायला बनी परीषहोथी फरसातां संयम अथवा साधु आचा०६ वेषथी तेओ दुर थाय छे. प्र०-शा माटे? 18 सूत्रम उ०-असंयम नाम्ना जीवितना निमिक्तान अर्थात् हवे, अमे सुखेथी संसारमा जीवीy, एम वीचारीने सावध अनुष्ठान ॥६९८४ करीने संयमथी दुर थाय छ, तवा जीवोनु थाय छे ? ते कहे छे. ते कुसाधुओ घरवासथी नीकळ्या छतां ज्ञान दर्शन चारित्रना ॥६९८॥ & मूळ उत्तर गुणमां कंइ पण खामी आववाथी तेने दीक्षा पाळवी मुश्केल थाय छे, तेवा भ्रष्ट साधुओनु जे थाय; ते कहे छे (हु अव्यय हेतुना अर्थमां छे.) जेथी असम्यग्अनुष्ठानथी दीक्षा छोडेला साधु बाळ बुद्धिवाळ। जे सामान्य पुरुषो छे, तेमनाथी पण दनिंदाय छे. (ज्यां होय; त्यां तिरस्कार पामे छे.) वळी, तेओ संयम मुकवाथी कुवाना अरहट्टना न्याये वारंवार नवी जाति [जन्म ] मेळवे छे. DI -तेओ केवा छे ? उ०-अधःसंयम स्थानमा वखते रहेला होय; अथवा अविद्याथी नीचे [कुमागें] वर्तता होय; छतां II 3 पोते पोताने विद्वान मानता लघुताथी आत्माने उंचे चडावे छे. ( पोताने हाथे पोतानी स्तुति करे छे.) वळी, पोते थोडु भणेलो18 M होय; तोपण, मानथी उंचो बनीने रस अने साता गौरवनी बहुलताथी माने छे. के, हुं बहुश्रुत छु, अने आचार्य जे जाणे छे ते में त MI तत्वने थोडाज काळमां जाणी लीधुं छे. एबुं मानीने आत्माने अहंकारी बनावे छे. ते आत्मश्लाघाथीज संतोष पामतो नथी; पण, बीजा उत्तम साधुआंनी निंदा करे के ते बतावे छे. उदासीन ते रागद्वेष रहित मध्यस्थ साधुओ घणुं भणेला होवाथी शांत होय हे, तेवा आचार्य विगेरे ज्यारे ते साधुनी भूल वालय नधी; पण, आत्माने अहवाशी माने हे कान For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।।६९९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पडे, त्यारे कहे तो, तेमनी पण निंदा करे छे अने बोले छे के, तमे तो, प्रथम कृत्य अकृत्यने जाणो; अने पछी बीजाने उपदेश आपजो. वळी ते कडं बोले छे ते सूत्र वडे बतावे छे. 'पलिये' अनुष्ठान हे तेना वडे तृण हार विगेरेथी बोले, (तुं आ तणखला जेवो छे.) अथवा कुंट, मंट, विगेरे गुणोथी अथवा मुखना विकार वगेरेथी कुचेष्टा करीने गुरुनुं अपमान करे, तथा खोटां आळ चडावीने गुरुनो तिरस्कार करे. हवे समाप्त करतां कहे छे, ते वाच्य अवाच्य अथवा श्रुत चारित्र नामनो धर्म उत्तम साधु जे गुरु आज्ञामां रहेल होय ते सारी रीते जाणे. अने जे असभ्यवादमां बाळ साधु वर्ततो होय तो गुरु विगेरे ए तेने शिखामण आपको ते बतावे छे. अहम्मट्ठी तुमंस नाम बाले आरंभट्टो अणुत्रयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यात्रि समणुजायमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसन्ने वियद्दे वियाहिए तिबेमि ( सू० १९२ ) अर्थ जेने हाय, ते अर्थी अने ते अधर्मनेा अर्थी ते अधर्मार्थी छे, एवा अधर्मार्थीने पण शीखामण देवाय छे, प्र० - ते अधर्मार्थी केवी रीते छे, ? उ०- ते बाळ छे. १० शा माटे बाळ छे ? उ०- सावध आरंभमां वर्त्ते छे. प्र० – केवी रीते आरंभमां वर्त्ते छे ? उ० - प्राणीओने दुःख देवारुप वादोने बोलतो आ प्रमाणे कहे छे. "जीवो ने हणो" ए प्रमाणे बीजा पासे हणावी अने हणताने अनुमोदतो त्रण गौरवथी बन्धायलो रांधवा रंधाववानी क्रियामां प्रवर्त्तेला गृहस्थीओ आगळ तेमना पिंडनो वांछक बनीने आ प्रमाणे कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।६९९ ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ECO- सूत्रम ७००॥ 'आमां शुं दोष छे! कारणके शरीर विना धर्म बनी शके नहीं; माटे धर्मना आधाररुष शरीरने यत्नाथी पाळg जोइए' को छे के. आचा शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धर्मो, यथा बोजात्सदंकुरः ॥१॥ धर्मथी जोडायलं शरीर प्रयत्नथी बचाव, कारणके जेम बीज होय, तो सारो अंकुरो थाय, तेम शरीर ( सारं ) होय, तो ॥७००॥ धर्म थाय छे, (त्यारे आचार्य ने शीखामण आपे के हे भव्य !) तुं शा माटे एबुं बोले छे ? 8 सांभळ ! धर्म छे, ते घोर भयानक छे, कारण के बधा आश्रवोनो तेमां निरोध छे, अने तेथी ते दुरनुचर छे, एवं तीर्थकर विगेरेए उदीरित (कहेलु) छे, तेवा अध्यवसायवालो तुं बन, अने एवा उत्तम संयम अनुष्ठाननी अवगणना जे करे छे (णं वाक्यनी चोभा माटे छे) अने सावध अनुष्ठान करे, ते तीर्थकर गणधरना उपदेशथी बहार जइ स्वेच्छाथी वर्ते छे... H -कोण एवो होय ? उ०-उपर बतावेलो अधर्मार्थी बाळ आरंभनो अर्थी बनीने प्राणीओनो घात करे, करावे हणनारने IP अनुमोदनारो धर्मनी अवगणना करनागे, तथा काम भोगनां खेद पामेलो (कामांध) विविध प्रकारे तर्द (हिंसा) करनारो (तर्द धा8/तुनो अर्थ हिंसा छे) अथवा संयममा प्रतिकूल ते वितर्द छे. एवा स्वरुपवाळो बाळ साधु जिनेश्वरे कहेलो छे. एवं मुधर्मास्वामी पोताना शिष्योने कहे छे. के तुं मेधावी छे. माटे धर्मने जाण, वळी हवे पछी- पण हुं कहुं छुः ते बतावे छे. किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ यपरिग्गहं वीरायमाणा समुहाए अविहिंसा सत्वया दंता पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे बार CAROORS For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् RS ॥७०१॥ आचा वसहा कायरा जणा लूसगा भवंति अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता विब्भते २ पासहेगे समन्नागएहि सह असमन्नागए नममाणेहि अनममाणे विरएहिं अवि॥७०१॥ रए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठियह वीरे आगमेणं सया परिक्कमि जासि तिबेमि ( सू० १९३ ) इति धूताध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ ६-४ ॥ केटलाक साधुओ तत्व समजीने सम्यग उत्थानथी तैयार थइ वीर माफक वर्त्तता पाछळथी पाणीनी हिंसा करनारा थाय छे. प०-ते केवी रीते तैयार थयेल हता ? उ०-ते विचारे छे के हे भाइ! मारे आ स्वार्थमां तत्पर एवा माता पिता पुत्र कलत्र &(स्त्री) विगेरे जेओ परमार्थ द्रष्टिए जोता अनर्थ रुप छे. तेमनी जोडे हुं शुं करीश ? कारण के तेओ मारुं कांइपण काय करवू के P रोग दूर करवामां समर्थ नथी, तेथी तेनावडे हुं शुं करीश ? एम जाणीने दीक्षा ले छे. अथवा कोइ दीक्षा लेनारने कोइए कयु. के हे भाइ ! रेतीना कोळीआ खावाजेवी निःसार दीक्षा लेवा वढे शुं करीश ? पण पूर्वना भाग्ये मळेलु भोजन विगेरे (सुखेथी) भोगव एम कहेतां ते दीक्षा लेनार वैराग्यथी रंगायलो होवाथी बोले, के हे बन्धो ! हुं आ भोजन विगेरेथी हवे शुं करीश ? में आ संसारमा भमतां अनेकवार भोगव्यु, तो पण तृप्ति न थइ, तो हमणां आ भवमा शुं थवानुं छे ? ए प्रमाणे विचारता केटलाक पुरुषो संसार स्वभावने जाणनारा दीक्षा लेवा तैयार थइने मावाप तथा बीजां सगांने तथा धन धान्य हिरण्य बे पगवाळां दास दासी तथा 8 ट्रचार पगवाळां पशु विगेरेने छोडवामां (सिंह माफक) वीर माफक आचरण करनारा बनीने योग्य रीते संयम अनुष्ठानमां तत्पर ANA UALCUGE For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७०२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थयेला होय छे, अने हिंसा त्यागी विहिंस [दयाळु ] तथा शोभन व्रत धारण करीने सुत्रत बनेला छे, तथा इन्द्रियो दमीने दांत छे, आ निर्मळ वर्तन करनारा छे. आना संबन्धमां नागार्जुनीया कहे छे: समणा भविसामो अणगारा अकिंचना अपुत्ता अपम्या अविहिंसगा सुब्वया दंता परदत्तभोइणो पावं कम्मं न करेस्सामो समुहाए ॥ अमे आगार (घर) रहित अणगार थइशुं; तेम, अकिंचन अपुत्र अप्रसूत ( स्त्री विनाना ) दयाळु सारा व्रतवाळा, इन्द्रि दमन करनारा गोचरीथी निर्वाह करनारा बनीने पाप कर्म नहीं करशुं. एम जाणीने दीक्षा ले छे. [सुगम सूत्र होवाथी टीका नथी.] आ प्रमाणे प्रथम सिंह जेवा बनी दीक्षा ले छे, अने पछी दीन (रांक) शीयाळीया जेवा विहार करवामां ढीला बनीने त्यागेला भोगोने पाछा ग्रहण करी पतित थयेलाने तुं जो. प्रथम तेओ दीक्षा ले छे, अने पछी पापना उदयथी दीक्षा मुकी दे छे. [ गुरुए पोताना शिष्यने स्थिर करवा शिथिलतानो आवो दृष्टांत आपेल हे. प्र० - तेओ शा माटे दीन थाय छे ? उ० – तेओ इन्द्रियोना विषयो तथा कषायोथी परवश थवाथी वशा छे, तेवा शिथिलने कर्मनो बन्ध थाय छे. ते कहे छे:सोइंदियवसणं भंते! कइ कम्म पगडीओ बन्ध ? गोयमा ! आउअवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ जाव अणुपरिअट्टर, कोह वसट्टेणं भंते! जीवे एवं तं चैव ॥ गौतमनो प्रश्न - हे भगवन् ! कानने वश थइने जीव केटली कर्म प्रकृतिओ बांधे ? उ० – आयु छोडीने सात प्र० - क्रोधने वश थइने केटली ? उ० एन प्रमाणे. आ प्रमाणे मान विगेरेमां पण समजनुं, वळी ते ढीला साधुओ परीसह उपसर्ग भवतां For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७०२ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा०18 कातर बने छ, अथवा विषयना रसीआ कातर (बीकण) बने छे. प्र०-तेओ कोण ठे ? अने शुं करे छे ? उ-तेओ ढीला मनवाळा बनीने व्रतोना विध्वंसक बने छे, आq अढार हजार सूत्रम् ॥७०३॥ शीलांगवाळु ब्रह्मचर्य कोण धारी शके! आQ विचारीने द्रव्य लिंग अथवा भावलिंग त्यजीने जीवोना विराधक बने छे, ते लिंग ॥७०३॥ 8 त्यजेलानु पछी शुं थाय छे ते कहे छे. (अथनो अर्थ पछी छे) केटलाक व्रत लइने भांगी नांखे छे, तेमने (पापना उदयथी) वखतेल | अंतर्मुहुर्त्तमांज मरण आवे छे, केटलाकनी पापरुप निंदा थाय छे, पोताना साधु के बीजा साधुओमां तेनी अपकीर्ति थाय छे, ते कहे छे, ते आ पतित साधु मसाणना लाकडा जेवो भोगनो अभिलाषी दीक्षा ले छे, अने मुकी दे छे माटे तेनो विश्वास न करवो 31 कारणके तेने अकर्तव्यनुं भान नथी ? कां छे केः परलोक विरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ आत्मानं यो न सधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात् कथं हितः ॥१॥ जे परलोक विरुद्ध अकृत्य करे छे, तेने दूरथी त्यजबो, जे आत्माने चारित्रमा स्थिर नथी राखतो, ते बीजाने हितकारक केवी रीते थाय ? विगेरे समजवु.. वा अथवा मूत्र वडेज तेनी अश्लाघा बताववा कहे छे, ते आ साधु बनीने विविध रीते भमतो साधुपणाथी भ्रष्ट थयेलो छे. | वीप्सा वडे अत्यंत जुगुप्सा (निंदा) बतावे छे. वळी, (गुरु शिष्यने कहे छे.) तमे जुओ. कर्मनी प्रबळता केवी छ ? के, जेमन नशीब फुटेलुं छे, तेवा उद्युतविहारी (उत्तम साधु) साथे रहेचा छतां पण, हजु तेओ शिथिळ विहार बनी रह्या छे, तथा संयम अ-18 नुष्ठान वडे विनयशील बनेला साथे रहीने तेश्रो निर्दय बनेला पाप अनुष्ठान करनारा छे, तथा विरत साथे अविरत,, द्रव्य, भूत साथे । BARASARSA AKAR For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 11806111 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्रव्य भूत पापनां कलंकथी अंकित थवाथी एवा उत्तम साधुओ साथे वसतां पण सुधरता नथी. (अर्थात् जगत्मां सारा साधुओ | नजरे जोवा छतां पण, ढीला साधु सुधरता नथी) आवा ढीला साधुने जाणीने शुं कर ? ते कहे छे: - हे साधु ! तुं पंडित छे. ज्ञाता ज्ञेय छे, मर्यादामां रहेल मेधावी छे, विषय सुखनी तृष्णा तें दूर करी है, तथा तुं वीर होवाथी कर्म विदारण करवामां शक्तिवान् छे, तेथी सर्वज्ञप्रणीत उपदेशना अनुसारे सर्वदा संयम अनुष्ठानमां वर्त्तजे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे: धृत अध्ययननो चोथो उद्देशो समाप्त. धृत अध्ययन पंचम उद्देशो. चोथो कहीने पांचमो कहे छे. तेनो आ संबंध छे. गया उद्देशामां कर्म दूर करवा ऋण गौरव छोडवानुं बतान्युं अने ते कर्म विधूनन उपसर्ग विधूनन विना संपूर्ण भावने अनुभवतुं नथी, तथा सत्कार पुरस्काररूप सन्मानना विधूनन विना गौरव त्रिकनी विधूनना संपूर्णताने न पामे; एथी उपसर्ग सन्मानने विधूनन करना आ उद्देशो कहे छे. आ संबन्धे - आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. अस्खलितादि गुण युक्त उच्चारखुं ते कहे छे: सेगिसु वा गितरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जणवयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणत्रयंतरे वा नगरत्रणवयंतरे वा संतेगइया For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७०४ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥७०५॥ आचा० जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वीरो अहियासए, ओए समिय॥७०५॥ दंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्टिएसु वा अणुटिएसु वा सुस्सूममाणंसु पवेयए संतिं विरई उवसमं निवाणं सोयं अजवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणाणं सवेसि भृयाणं सव्वेसि सत्ताणं सव्वेसि जोवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा (सू. १९४) ने पंडित मेधावी निष्ठित अर्थवाळो वीर साधु सदा सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश प्रमाणे वर्तनारी गौरवत्रिकथी अप्रतिबद्ध निर्मम निद किचन निराश एकाकी विहारपणे [जीनकल्पी जेबो] गाम गाम विचरतो क्षुद्र तीर्यच नर, देवे करेला उपसर्ग परिसहोथी दुःखना IM स्पर्शो भोगवतो छतां निर्जरानो अर्थी बनीने सारी रीते सहन करे. -कई जग्याए तेने तेवा परिसह उपसर्गो दुःख दे ? ते कहे छे. आहार विगेरे माटे घरमा जतां (उंच नीच मध्यम जातिनां घरो होय माटे बहु वचन मूत्रमा छे) तथा घरोना वचमां जतां तथा (बुद्धि विगेरे गुणोने खाइ जाय ते गाम) गाममां गामांतरमां तथा कर विनानां नगरोमां अथवा अंतराळे जतां थाय छे, तथा ज्यां लोकोने रहेवानां स्थान ते जनपद छे, ते अवति AAEAR RECAUSAGE For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७०६ ।। www.kobatirth.org ( माळवो ) विगेरे छे, ते देशो साधुने विहार योग्य २५ देश छे ( ते आर्य देश छे बाकीना ३१९७४ अनार्य छे. ) नीचे टीप- 18 मां वीजा सूत्रनो पाठ मुक्यो छे. ते समये साधुओने विचरवा योग्य क्षेत्रनी बन्धायली हद नीचे प्रमाणे हती. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्व दिशामा साधु साध्वीने मगध देश सुधी विचरनुं कल्पे, दक्षिणमां कोशंबी, पश्चिममां थुणा देश सुधी अने उत्तरमां जाव कुणाला देश सुधी आर्य क्षेत्र छे, तेनी बहार जत्रुं साधु साध्वीने न कल्पे, उपर बतावेल हदमां आर्य भूमिमां २५ || देश छे, ते जिनेश्वरे धर्म क्षेत्र तरिके वर्णव्या छे. ते देशोनी वचमांना भागमां साधु विचरे, अथवा गाम नगरना अंतराले अथवा गाम देशना वचमां तेज प्रमाणे नगर देशना वचमां अथवा उद्यानमा अथवा तेना आंतरे विचरतां अथवा जतां भवतां अथवा ते भिक्षुने गाम विगेरेमां रहेतां कायोत्सर्ग विगेरे करतां केटलाक पापरूप काळाशथी मलिन अंतःकरणवाळा जे माणसो लूषक (हिंसक ) होय; ते साधुने दुःख दे छे. (चार गतिमां | भमता जीवोमां ) साधुने नारकी दुःख देवाने अशक्त छे. तिर्येच अने देवतानो उपसर्ग कोइकज वार थाय; तेथी मनुष्योथीज प्राये साधुने उपसर्ग थाय छे. माटे, जन [ माणस ] शब्द लीधो छे. अथवा, जेओ जन्मे ते जन छे, अने तेथी जन शब्दनो अर्थ ति* पुरच्छिभेणं कप्प निन्गंथाण वा निग्गंधीण वा जाव मगहाओ पत्तर, दक्खिणेणं कप्पर निग्गंथीण वा निग्गंथीण वा जाव कोसंबीओ एत्तए, पच्छिमेणं जाय धूणाविसओ उत्तरेणं जाव कुणालाविसओ, ताब आरिए खित्ते, नो कप्पर इत्तो बहि ति अस्यां च आर्यभूमिकायां सार्धपञ्चविंशतिर्जनपदा धर्मक्षेत्राण्यर्हदि भरुतानि ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७०६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७०७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिर्येच नर, अने अमर लीधो छे. एटले, साधुओने बिहार विगेरेमां आ त्रणे अनुकूल तथा प्रतिकूळ एक अथवा बन्ने प्रकारे उपसर्ग करे छे, तेमां देवताना उपसर्ग चार प्रकारना छे. (१) हास्यथी. (२) द्वेषथी. (३) विमर्शथी. (४) प्रथक् विमात्रथी छे. तेमां प्रथमनो क्रीडामा तत्पर कोइ व्यंतर देव हास्यथीज विविध उपसर्गाने करे. जेमके - भिक्षा माटे आवेला नाना साधुओए भिक्षाना लाभने माटे पलल विकट तर्पण विगेरेथी याचता व्यंतरने मळ्या, पछी, भिक्षा प्राप्त थया पछी तेणे ते चीजो मागी; तेथी, ते व्यंतरने खुशी करवा क्यांयथी ते चीज लावीने तेमणे आपी ते व्यंतरे पण क्रीडामांज ते नाना साधुओ क्षीवा माफक बनव्या. [२] द्वेपथी भगवान महावीरने महा महिनामां खरी ठंडमां तापसीनुं रुप धारीने व्यंतरीए पोताना चोटलामां झाडनी छालं वस्त्र पाणीथी भींजावीने तेना वडे पाणीनो ठंडो छंटकाव कर्यो. [३] विमर्शथी आ साधु धर्ममां दृढ छे के नहि ? ते जोवा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गोथी परीक्षा करे ते बतावे छे. जेमके - संविन साधुनी भक्त बनेली कोइ व्यंतरीए स्त्रीनो वेष धारीने उज्जड देवळमां बेठेला साधुने अनुकूळ उपसर्गोथी चलायमान करवा धा पण ते चलायमान न थवाथी आ दृढ धर्मीं छे. एम जाणीने भक्तिथी बांधा. (४) जुदी जुदी रीते हास्यथी, द्वेषथी के, विमर्शथी कोइपण एकथी परिक्षा करे. जेमके - भगवान महावीरने संगम नामना एक देवता विमर्शथी शरु कर्या, अने द्वेषथी परिषद पुरा कर्या. एटले, आ उपसर्गमां प्रारंभ अने अंत जुदी जुदी रीते थाय छे. माणसथी पण साधुने चार प्रकारे उपसर्ग थाय छे. [१] हास्यथी (२) द्वेषथी, [३] विमर्शथी, (४) कुशीळताना सेवन माटे. मां हाथी देवसेनागणीकाये नाना युवक साधुने कुमार्गे दोरवा सताव्यो; त्यारे साधुए दांडाथी ताडना करी, वेश्याए राजा पासे फरीयादी करी. नाना साधने राजाए बोलाव्यो युवके श्रीगृहनां दृष्टांतथी समजाव्यो. के हे राजन् ! तारो खजानो लुंटे तो तुं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७०७ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 11206111 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुं करे ? उत्तर—शिक्षा करूँ. साधुए क के:- तेवी रीते में घणी समजावी के, साधुओतुं धन निर्मळ शीळ हे. माटे, तुं दूर था. पण, तेणे कोइ रीते न मान्युं. माटे, जरा शिक्षा करवी पडि छे. (२) द्वेषथी सोमभूति ससराए गजसुकुमारने माथा उपर वळता अंगारा मर्या. [३] विमर्शथी चाणाक्य मंत्रीनी प्रेरणाथी चंद्रगुप्त राजाए धर्मनी परीक्षा करवा पोतानी राणाओ पासे धर्म संभळाबता साधुने उपसर्ग कराव्यो. साधुए पण बीजो कोइ उपाय छेवट सुधी न जोवाथी थोडी ताडनाथी दूर करी, राणीओए फरीयाद करी. साधुए राजना भंडारनो दाखलो आपी राजाने प्रतिबोध्या. [४] कोइ दुराचार माटे प्रार्थना करे. जेम के इर्ष्यालु शेठना घरमा घणीना अभावमा कोइ पण संजोगोधी त्यां एक साधु रात रह्यो. तेमने चार जुवान स्त्रीओए घणीना अभावे वाराफरती तेमने आखी रात पजव्या; पण दरेक पहोरमां ते न लोभातां मेरु पर्वत माफक निवळ रह्यां तिर्यचना पण भय, द्वेष, आहार अने बाळक रक्षणना माटे चार प्रकारेज उपसर्ग छे. (१) भयथी साप विगेरे चमकीने करडे छे. दूवेशथी भगवान महावीरने चंडकोशीए उपसर्ग कये. आहारमाटे सिंह वाघ विगेरे मारे छे. अने अपत्य रक्षण माटे काकी [ ] विगेरे पीछे छे. परबताच्या प्रमाणे उपसर्ग करवाथी (उपर बतावेला अर्थ प्रमाणे जनो साधुओना लूपक ( दुःख देनारा ) छे. अथवा तेवा तेवा गाम विगेरे स्थानमां जतां दुःखना स्पर्शो आत्माने पीडनारा थाय छे. ते चार प्रकारना छे. जेमके आंखमां कणु विगेरे पडवाथी घट्टनता थाय छे। अने भमेलनी मूर्छा विगेरेथी पतनता [9डबुं] थाय छे. वायु विगेरेथी स्तंभनता ( रोकाण ) थाय छे अने ताळवा विगेरेमां अंगुळी विगेरे घालवाथी श्लेपणता ( ) थाय छे. अथवा वात पित्तश्लेष्म विगेरेना क्षोभयी कडवा स्पर्शो थाय छे. अथवा निष्किंचनपणाथी तृण स्पर्श डांस मच्छर तथा ठंड For Private and Personal Use Only सूत्रम 1120611 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥७०९॥ OBC आचा ताप विगेरेना पीडारुप स्पों कोइ वखत बाय छे. - सूत्रम् HI तेवा कोइ पण परीसहो आवे तो तेना दाखना स्पर्शाथी साधु पोते धीर पनीने सहन करे, मनमां चिंतवे, के आथी पण || ॥७०९:। वधारे दुःखो नारकी विगेरेमा कर्मना अर्वध्यपणाथी बांधेलां उदयमा आवतां पछी पण भोगववानां रहेशे, माटे इमणांज भागववा ठीक छे, एम विचारी सहे. M केवो मुनि सहन करे ? उ०-कहे छे. अथवा उपर बतावेल साधु पोताना उत्तम गुणोथी परीसहो सहीने पोतानोज रक्षक छे. Pएम नहीं पण सुबोध बडे बीजाओनो पण रक्षक छे. ते बतावे छे. 'ओजः' एकलो राग विगेरेथी रहित सारी रीते दर्शनने पामेलो ४ ते समित दर्शन छे अथवा सम्यग्दृष्टि छे, अथवा उपशमने पामेला दर्शनवाळो, अर्थात् दृष्टि ते ज्ञान छे. ते समित दर्शन छे. एटले & उपशांत अध्यवसायवाळो जाणवो. अथवा समताने पामेला दर्शनवाळो अर्थ दृष्टि लेतां समष्टि जाणवो एटले एवा उत्तम गुणोने धारण करनार साधु परीस8/ होने सहे अथवा (पछीना क्रीयापद साथे संबन्ध लेतां ) ते धर्मने कहे. प्र-आलंबन लइने ? उ०-कहे छे. ते जंतुलोक (जीवमात्र) उपर द्रव्यथी दया जाणीने धर्म कहे. [के ए जीवो कोइपण रीते तरो] क्षेत्रथी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर तथा बीजी पण दीशाना विभागोमां (बधी जग्याए) जोइने सर्वत्र दया करतो ते | 8 साधु धर्म उपदेश करे छे. काळथी आखी जींदगी सुधी दया पाळे छे. भावथी रागद्वेष त्यागीने मध्यस्थ पणे धर्म कहे छे. । ____प्र०-केवी दीते कहे ? उ०-बधा जीबो दुःखना द्वेषी सुखना चाहनार पोताना आत्मानी माफक सदा जाणी लेवा कार्य छे के. । For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा ॥७१०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न तत्परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः । एष सङ्ग्राहिको धर्म्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ १ ॥ जे पोताने गमतुं नथी, तेनुं बीजाने न कर. एज संग्राहिक (सार रुप) धर्म छे ते काम (इच्छाओ) थी जुदो प्रवर्त्ते छे. (पोते दुःख भोगवीने पण बोजाने सुख आप) विगेरे छे. ते प्रमाणे धर्मने कहेतां पोते पण द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावना भेदावडे अथवा आक्षेपणी विगेरे चार प्रकारनी कथाओं बडे पोते पण जीव हिंसा जुठ चोरी कुसंग परिग्रह अने रात्री भोजन विगेरे अकार्यथी दूर रही धर्म पाळे. अथवा आ पुरुष कोण छे ? क्या दवने माने छे ? तेनो अभिप्राय केवा छे ? अथवा अभिप्राय विनानो छे ? एवं वधुं विचारीने सांभळनारनी योग्यता प्रमाणे त्रतो तथा संयम अनुष्ठाननुं फळ बतावे. प्र० - आवो धर्म कोण कहे ? उ० – वेद [जैन आगम ] जागनारो होय ते. आ संबंधां नागार्जुनीया आ प्रमाणे कहे छे. जे खलु समणे बहुस्सुए वज्झागमे आहरणहेउकुसले धम्महालद्धिसम्पन्ने खेत्तं कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे कं वा दरिसणमभिसम्पन्नो ? एवं गुणजाइए पभू धम्मस्स आय वित्तए । जे निश्चये साधु बहुश्रुत आगमनो जाण दृष्टांत हेतु बताववामां कुशळ धर्म कथानी लब्धिवाळो क्षेत्रकाळ पुरुष ए-बधानो विचार करे के आ पुरुष कोण छे. तेनुं मंतव्य शुं छे. ए प्रमाणे गुणोनी जातिए युक्त होय तेज धर्म कहेवाने समर्थ छे. प्र० - ते केवा निमित्तोमां धर्म कहे ? उ०ते आगमनो जाण पोताना तथा बीजा मतना सिद्धांतने जाणनारो भावउत्थान वडे उठेला साधुओमां धर्म कहे. (वा शब्दनो संबंध बीजा पक्षनो प्रकाश करे छे.) एटले पार्श्वनाथ भगवानना मोक्ष गया पछी पण तेमना साधुओ ते समयना रिवाज प्रमाणे चार महाव्रत पाळता विचरे, तेमने समय बदलातां महावीर प्रभुना शासनमा रहेल गण For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७१०॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवा० ॥७११॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धरो पांच महाव्रतनो धर्म बतावे (जेम केशी गणधरना शिष्योने गौतमस्वामिना शिष्योनो मेळाप थयो, अने बन्नेमा शंका थतां बन्ना गुरुओ भेगा थतां गौतमस्वामिए केशीगणधरने पंच महाव्रतनो धर्म समजाव्यो. अने तेमणे स्वीकार्यो.) अथवा पोताना शिष्यो जेओ विनयथी सांभळवा उभा थया होय तेमने नवं तत्व जाणवा माटे धर्म संभळावे, अथवा दीक्षा न लीघेला श्रावक विगेरे जेओ धर्म सांभळवानी इच्छावाळा बनी गुरु विगेरेनी सेवा (वैयावच्य ) करता होय; तेमने संसारथी पार उतारवा गुरु धर्म कहे छे. मः - केवो धर्म कहे ? उः शमन [शांति अहिंसा] तेवा जीव दयाना धर्मने कहे; तथा जीव रक्षा करवा विरति समजावे. आ विरतिना सूचनथी जुठ विगेरेनी विरति जाणवी. एटले, पांचे महात्रत समजावे; तथा उपशम क्रोधना जयनुं स्वरूप बतावे; तेथी उत्तर गुणोनो पण उपदेश करे एम जाणवु तथा निर्वृत्ति (निर्माण) मोक्षनुं स्वरुप बतावे. के, मूळ गुण अने उत्तर गुण बरोबर पाळवाथी आ लोकमां बहु मान, अपूर्व शांति, अने पर भवमां स्वर्गनुं सुख, अने छेवटे मोक्ष मळे छे.. तथा शोच एटले बधी उपाधीथी रहित पवित्र व्रतनुं धारबु, तथा मायानी वक्रता त्यागवाथी आर्जव छे, तथा मान स्तब्धपणुं त्यागवाथी कोमळता छे, तथा बाह्य अभ्यंतर ग्रन्थ त्यागवाथी लाघव छे, ते केवी रीते कहे छे. ते बतावे छे यथावस्थित वस्तु जेवी रीते आगममां कही होय तेवी रीते ओलंघ्या विना कहे छे. प्रः- कोने कहे छे ? उ:-दश प्रकारना प्राणने धारनारा प्राणीओ ते सामान्यथी संज्ञी पंचेन्द्रियोने कहे छे. तथा मुक्ति गमन योग्य जे भव्यपणे भूत [ रहेला] छे, तेमने कहे छे. तथा संयम जीवितवडे जीवे छे. अने जीववानी इच्छावाळा जीवो छे. तथा तिर्यच नर, अमर, जेओ संसारमां दुःख पामता रहेला छे. अने दयाने पात्र छे, तेवा बधा सत्वोने धर्म कहे छे. अथवा प्राणी भूत जीव सत्व ए चारे एक अर्थवाळा छे. तेवा जीवोने तेमनी योग्यता प्रमाणे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७११। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम 18 शांति विगेरे दश प्रकारनो धर्म पूर्वे बतावेलो छ, ते कहे छे. अने शांति विगेरे पदोमा बतावेल तत्वने विचारीने स्त्र अने परना आचा उपकार माटे भिक्षु जे धर्म कथानी लब्धिवाळी होय ते कहे छे. अने ते धर्म जेबी रीते कहे छे, ते बतावे छे. अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइजा नो परं आसाइजा नो अन्नई ॥७१२॥ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई आसाइजा, से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जोवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणं एवं से भवइ सरणं महामुणी एवं से उहिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिवए संक्खाय पेसलं धम्म दिट्टिमं परिनिव्वुडे, तम्हा संगति पासह गंथेहि गढिया नरा विसन्ना कामकंता तम्हा लूहाओ नो परिवित्तसिजा, जस्सिमे आरंभा सबओ सबप्पयाए सुपरिन्नाया भवंति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, सेवंता कोहंच माणंय मायं च लोभं च एस तुढे वियाहिए तिबेमि (सू० १९५) ते मुमुक्षु भिक्षु-धर्मने पूर्वापर विचार करीने, अथवा सांभळनार पुरुषनी पूर्वा पर स्थिति विचारी जेने जेयूँ कथन योग्य होय, तेवो धर्म तेने कहे छे. (आ उपसर्ग मर्यादाना अर्थमा छे तेथी,) मर्यादावडे सम्यग् दर्शन विगेरेनुं जेईं अनुष्ठान होय, तेथी शातना (विरुद्ध) करतां अशातना थाय छे माटे, तेवी अशातनार्थी आत्माने दोषित न करे. अर्थात् जेम आशातना न थाय; तेम BRECEMरान्स ॥७१२॥ रु For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म कहे; अथवा आत्मानी अशातना वे प्रकारे छे. द्रव्यथी तथा भावथी, द्रन्यथी जेम, आहार उपकरण विगेरे द्रव्यनी काल अति सूत्रम् पातादि संबंधी आशातना (बाधा) न थाय; तेम कहे. (लोकोने जमवानो वखत होय; तेटली मोडी वार सुधी कथा कहे; तो, लो॥७१३॥॥कोमे शरमथी न उठतां जमतां अंतराय थाय; अथवा शिष्योने गोचरी लावतां बचतां मोडु थतां, पोताने तथा वाळवृद्ध तपस्वी 8/॥७१३॥ 4 मांदाने काळ उल्लंघतां बाधा थाय) ते आहार विगेरे द्रव्यती बाधायी पोताना शरीरने पण पीडा थाय; तेथी भाव मलिन थता | भावाशातना पण थाय, अथवा कहेतां गात्र भंग रुप भाव आशातना न थाय तेम कहे; तथा सांभळनारनी हीलना (निंदा) न करे; ४ के, सांभळनारने क्रोध चडतां आहार उपकरण अथवा साधुना शरीरनी कोइ पण रीते पीडा करवामां तत्पर थाय तेम कथा न करे, एथीज सांभळनारनी आशातना वर्जीने धर्म कहे, अथवा अन्य पाणी भूत जीव सत्वोने बाधा न करे, ते मुनि पोतानी मेळे पोतानो रक्षक होवाथी अनाशातक छे. तेम बीजा क्रोधी न बनाववाथी पोते बीजामी आशातना करतो नथी. तेम कोइ आशातना भी करे तो तेनी अनुमोदना न करतो (बीजा) मराता पाणीओ भूतो जीवो सत्वोने पोताना तरफथी के पारका तरफथी पीडा न थाय ६ तेवो धर्म कहे. जेमके कोइ लौकिक कुमावचनीक पासत्था विगेरेने दान आपवानी प्रशंसा करे, अथवा कुवा तळाव बनाववानी प्र शंसा करे तो पृथ्वीकाय विगेरेने दुःख थाय, तेनो दोष साधुने लागे, तथा ते दाननी मिंदा करे तो ते बीजा जीवोने दान न IP मलवाथी साधुने अंतराय कर्म बन्धावानो विपाक भोगवत्रो पडे. का छे के: जे उ दाणं पसंसंति, वह मिच्छंति पाणिणं । जे उणं पडिसेहिति, वित्तिच्छेअं करिति ते ॥१॥ जेओ साधु थइने असाधुना दाननी प्रशंसा करे छे, ते सावध होवाथी साधुओने प्राणीोना वधनो दोष लागे छे. अने ते HSGछन्वतन्त्र For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम ॥७१४॥ दाननी निंदा करे तो दान लेनारनी वृत्तिनो छेद करे छे. आचा० तेथी ते दान तथा कुवा तळाव संबंधी विधि निषेधमां मध्यस्थ भाव राखीने यथावस्थित शुद्ध दाननी प्ररुपणा करे, तथा । Pसावद्य अनुष्ठानन स्वरुप बतावे, (के आ पाप न करवां नंइए.) आ प्रमाणे उपयोग राखी बालनारों साधु बन्ने दोषने त्यागनारो ॥७१४|| | जीवोने आश्वास भूमि आफ्नारो थाय छे. आ बाबनने दृष्टांतथी समजावे छे. के पूर्वे बतावेल असंदीन द्वीप (भरतीना पाणीथी न डुबतो) शरण रुप थाय छे. तेम आ महामुनी जीवोना रक्षणनो उपाय बताववाथी मारनारा जोवोना रक्षा करनार तथा मरनार हिंस कने तेना पापी विचारथी बचाववाथी विशिष्ट गुण स्थान मेळववाथी शरण लेवा योग्य थाय छे. ते कहे छे.(पूर्वे कह्या प्रमाणे विसधिए जे धर्म कथाने कई, ने केटलाक जोबोने दीक्षा अपावे छे. केटलाकने श्रावको बनावे छे. केटलाकने सम्यग्दर्शनवाळा करे छे, Mअने केटलाकने मिथ्यात्वथी हठावी भद्र परिणामवाळा बनावे छे.. -केवा गुणवाळो आ साधु द्विप माफक शरण योग्य थाय छे ? उ०-हवे पछी कहेवाता भाव उत्थानवडे संयम अनुष्ठान करतो उत्कृष्टथी तैयार होय; तथा ज्ञानादिकरुप मोक्षना मार्गमा स्थित होय तथा स्नेह रहित होय तथा रागद्वेष छोडवाथी अप्रतिबद्ध होय, तथा परिसह उपसर्गमां चलायमान न थाय, माटे अचळ छे. अने एक जग्याए पडी न रहेतां योग्य विहार करवाथी चल पण छे तथा संयमथी जेनी लेश्या [अध्यवसाय] बहार न होय, ते । अबहिर्लेश्यावाळो कद्देवाय. एवो मुनी बधी रीते संयम अनुष्ठानमा वर्ते. पण कोइ जग्याए फसाय नहि, प्र. ते शा माटे संयम अनु-१ धानमा वर्ते 'संरव्याय' एटले शोभन धर्मने विचारी अविपरीत दर्शन [दृष्टि]वाळो थाय अथवा सदनुष्ठानरुप दृष्टिवाळो [दृष्टिमान] AAAA5% For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org स मालाबने, अने तेनुं कारण तेमा कपायो कांतो शांत होय हे, कांतो क्षय होय छे, तेवी पोते परिनिवृत शीतीभूत (ठंडा स्वभावनो) छे, पण & । तवा गुणवाळो न होय, ते मिथ्याटि जीव पेशल धर्मने पामतो नथी, ते बताने. (इति अव्यय हेतुना अर्थमां छे) जेथी मिथ्या | ॥७१५:म दृष्टिर्नु विपरीत दर्शन होवाथी संग (मेम) वाळो मोक्षमा न जाय, तेथी तेना माता पिता पुत्र स्त्री संबंधी अथवा धन धान्य विगेरथी ॥७१५॥ थता संग विपाक ने तमे जुभो ! विवेकथी हृदयमा विचारो! मूत्रथीज संग कहे छे, ते संगवाळा नरो वाद्य अभ्यंतर ग्रन्थथी गुंथायेला गृद्ध थयेला ग्रन्थना संगमां इच्छित न यतां खेद पामता छता संग्रह निमग्न इच्छा मदन कामयी आकांत (अवष्टब्ध, खुचेला) बनेला मोक्षमा जता नथी. प्र-जो एम छे तो शुं करवु ? उ०-जे कामथी आसक्त (प्रेमी) चित्त थइने सगां तथ धन धान्य विगेरेमा मूळ पामेला काम संबंधी शरीर मन विगेरेनां दाखोथी पीडायेला ठे, नाथी हे शिष्य ! लखा देखाता संग दर करवा रुप संयमथी त्रास नही पामीश, संयम अनुष्ठानथी कंटाळतो नहि, कारणके संयमना दु:ख करतां प्रभूत (अतिशे) दुःख भोगवनारा संसार संगी जीवो छे. प्र०-क्या साधुने संयमथी न डरवानो संभव छ ? उ०-जे महामुनिए सारी रीते संसार मोक्षनां पूर्वे कहेलां कारणो जाण्यां छे, तेने आ संग रुप आरंभो अविगान (एक सरखा) पणे बधा माणसे आचरेल छे, अने ते प्रत्यक्ष होवाथी इदम् [आ) शब्दवडे P बताच्या छे, ते आरंभो सर्वे प्रकारे जाणीता छे. -ते आरंभो केवा छे ? उ०-जेमां ग्रन्थना गुंथायेला विषण्ण चित्तवाला काम [इच्छा] ओना भारथी फसायेला मागिसो हिंसक बनेला अज्ञान मोहना उदयथी पाप करतां त्रास पामता नथी, पण जे उपर बतावेला आरंभोने ज्ञ परिज्ञावडे जाणीने । उपवस्वस्तछ For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECERCOISSECRE www.kcbatirth.org प्रत्याक्यानपरिज्ञावडे त्यागे हे, नेणेज आरंभो सारीरीते जाणेला समजवा. आचा०ला प०-जे आरंभोनो परिज्ञाता छे, ते बीजुं शुं करे ? ते कहे छे. सुत्रम ते महा मुनी पूर्वे बतावेला उत्तम गुणवाळो छे, ते क्रोध मान माया लोभने त्यागीने मोहनीय कर्म तोडे; ('त्यागीने' ए अ॥७१६।। व्यय प्रथम लेवानुं कारण ए छे के ते क्रोध विगेरे चारे कमायो बधा भेद सहित त्यागवाना छे. अने क्रोधने प्रथम लेवानुं कारण सा॥७१६॥ ल| तेना संबन्ध मान साथे छे. एटले मानीने क्रोध थाय छे. तथा लोभने माटे माया थाय, माटे प्रथम माया लीधी छे. अने बधा दोषांना आश्रय तथा सौथी मोटो अने छेवट सुधी रहेता होवाथी लोभने छेलो लीधी छे. ____ अथवा क्षपणा ते कर्मनी निर्जरामां ते प्रमाणे क्रम छे. 'चकार' निश्चयथी जुदी जुदी अपेक्षा माटे समुच्य अर्थमां छे) तेथी। नए प्रमाणे क्रोध विगेरे मोहने त्यागनारो संसार संतति (भवभ्रमण) थी तुट्ट (छुटेलो) तीर्थकर विगेरेए वर्णव्यो छे. एबुं सुधर्मास्वामि कहे छे. अथवा हवे पछीनुं पण तेओ कहे छे, ते बतावे छे. कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए सेहु पारंगमे मुणी, अविहम्माणे फलगावयही कालोवणीए कंखिज कालं जाव सरोरभेउत्तिबेमि धूताध्ययनम् (सू० १९६) ६-५॥ औदारिक विगेरे त्रण शरीर अथवा चार घाति कर्मनो नाश करवा माटे ते मुनी संग्रामना मथाळे उभेलो वर्णव्यो छे. अथवा ५ चि धातुनो अर्थ एकटुं करवानो के ते एकटु थाय छे. ते कायने आयुष्यना क्षय सुधी घात करनारो बने, [कायानो ममत्व मूकील वरना G IBRA For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् BABAS ७१७॥ आचा. / कर्म तोडवा जींदगी सुधी प्रयास करे. तेज मुनि पारंगामी जाणवो.] जेम संग्रामने मोखरे शत्रुना सैन्य सामे तिक्षण तलवारनी प्रभावी उगता सुरजनी माफक विजळीना चमकारा माफक देखाव । ॥७१७॥ न करी जोनारनी आंखोमां चमत्कार करावनार अने पोताचें कार्य करवा छतां पण,ते सुभट चित्तनो विकार (कोइ बखत) करे छे.तेज 18 प्रमाणे मरण समय आवे छते, स्थिर मनवाळो होय; तो पण, कोइ वखत संजोगीने आधारे तेनो भाव बगडी पण जाय; तेथी कहे छे केः-जे मरण काळे अनेक दुःख आवे छते पण मोह पामतो नथी. तेज मुनि संसारनो पारंगामी अथवा कर्मनो, अथवा पोते लीधेला महाव्रतना भारनो पर्यंत पामी (छेवट सुधी पहोंचनारो विजयी) छे. P वळी, जुदा जुदा परिषह उपसर्गो वडे हणयलो छतां, कंटाळो न खाता उंचेथी पडीने अथवा गाईपृष्ठ ( आपघात ) अथवा बीजी कोइ पण रीते आपघात न करे. ____अथवा हणातां पण बाह्य अभ्यंतर तप तथा परिषह उपसर्गो वडे धैर्य राखी पाटीया माफक स्थिर रहे; पण, मरवाना भयथी | दीनता न लावे. तेज प्रमाणे काळे परवशता पमाडेलो (जीर्ण शरीर थतां) बार वरसनी संलेखना वडे आत्माने दुर्बळ करी पहाडनी गुफा विगेरेमा जग्या निरवद्य जोइने पादपोपगमन गित मरण अथवा भक्त परिज्ञा ए त्रणमाथी कोइ पण अवस्थावाळू अणसण 2 18 करीने मरणनी अवस्था सुधी आयुनो क्षय थाय; अने शरीरथी जीव जुदो पडे; त्यां सुधी स्थिरता राखे आज खरी रीते मृत्युनो ल समय छे. अथवा शरीरनो भेद छे. आज जीवनो विनाश छे. पण, सर्वथा जीवनो विनाश नथी; एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. AALAS ARE For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७९८ ॥ www.kobatirth.org आ प्रमाणे - पांचमो उद्देशो समाप्त थतां, धूताख्य नामनुं छहुँ अध्ययन पण समाप्त थयुं. (टीकाना श्लोक ८३५ छे.) छ अध्ययन समाप्त छट्टा पछी सात अध्ययन कहेनुं जोइए, पण ते विच्छेद जवाथी आठमुं विमोक्ष नामनुं अध्ययन कहे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथाष्टमं विमोक्षाध्ययनम् सातसुं अध्ययन महापरिज्ञा नामनुं हतुं, ते विच्छेद जवाथी तेने मुकी छट्टा साथै आठमानो संबंध कहेवो जोइए, ते आ प्रमाणे छे, छट्टा अध्ययनमां पोतानां कर्म शरीर, उपकरण तथा गौरवत्रिक तथा उपसर्ग सन्मानना विधूनन बडे निःसंगता बतावी, पण जो अंतकाळे सम्यग् निर्वाण श्राय तोज ते सफळता पाये तेथी सम्यग् निर्याण (समाधि मरण) बताववा माटे आ आरंभ करे छे. अथवा निःसंग बिहारी साधुए अनेक प्रकारना परिसह उपसर्गे सहन करवा, एवं छट्टामां बतान्युं, तेमां मारणांतिक उपसर्ग आवे छते अदीन मनवाळा बनीने सम्यग् निर्याणज कर, ए विषय बतावत्रा आ आठमुं अध्ययन छे; आ संबंधे आवेला आ अध्ययनना उपक्रम विगेरे चार अनुयोग द्वार थाय छे, तेमां उपक्रम द्वारमां आवेलो अर्थ अधिकार वे प्रकारनो छे, तेमां अध्ययननो पूर्वे को छे, अने उद्देशानो अर्थाधिकार नियुक्तिकार कहे छे. असमणुन्नस्स विमुक्खो, पढमे विइए अकप्पियविमुक्खो; पडिसेहणा य रुट्ठस्स, चेव सन्भावकहणा यः ॥ २५३ ॥ तइयंमि अंगचिट्ठाभासिय आसंकिए य कहणा यः सेसेसु अहीगारो उबगरणसरीरमुक्खेमु || २५४ || For Private and Personal Use Only KIRJA सूत्रम ॥७१८॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७१९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देसंमि चत्थे, वेहाणसगिद्धपिट्टमरणं च । पंचमए गेलन्नं, भत्तपरिना य बोधव्वा ||२५५ ।। छमि उ एगतं, इंगिणिमरणं च होइ बोधव्वं । सत्तमए पडिमाओ, पायवगपणं च नायव्वं ॥ २५६ ॥ अणुपुन्विविहारीणं, भत्तपरिना य इंगिणिमरणं । पायव गमणं च तहा अहिगारो होइ अनुमए ॥ २५७॥ पहेला उद्देशामां आ प्रमाणे अर्थाधिकार छे: असमनुज्ञा (पासत्था) वाळा असमनोज्ञ [स्वछंदाचारी] अथवा त्रणसो त्रेसठ अन्यवादीओनो विमोक्ष [परित्याग ] करवो, तेज प्रमाणे तेमनो आहार उपधि शय्या तथा तेमनुं मंतव्य त्यागनुं, तेमां प्रथम भगवाननी आज्ञा बहार वर्ते ते पासत्था विगेरे छे, अने असंमनोज्ञ ते चारित्र तप अने विनयमां हीन तथा यथाच्छंद साधु ते ज्ञानविगेरे पांचे आचारमां हीन होय, तेवानी संगति न करवी [त्रणसेवेसठ एकांत वादीनो पण त्याग करवो] बीजा उद्देशामां अकल्पनीय ते आधाकर्मी विगेरे दोषित वस्तुनो त्याग करवो, अथवा आधाकर्मी आहारवडे कोइ निमंत्रणा करे, तो तेनो निषेध करवो अने तेनो निषेध करतां दान देनारने क्रोध चडे, तो तेने सिद्धांतनुं तत्व समजाब के आवा निर्दोष आहार अमने दान आपे तो तने तथा अमने गुणकारी छे. त्रीजा उद्देशानो अधिकार गोचरी गयेला साधुने ठंड विगेरेथी अंग धूजतां गृहस्थने आवी शंका याय के, इन्द्रियोनी उन्मत्तताथी पीडायेला अने शृंगार भावमां रमेला चित्तवाळा आ साधुने कंपारो थाय छे, आवुं बोले, अथवा तेने शंका पडे, तो ते शंका दूर करवा खरी बात समजा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७१९ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Rec-माला ६ वी (अने तेने शांत उरवो) आचा० बीजा पांचमा उद्देशानो अधिकार-उपकरण तथा शरीरनो मोक्ष (त्याग) करवो, ते संक्षेपथी तथा खुलासाथी कहे छे, 18 सूत्रम एटले चोथा उद्देशामां आ अधिकार छे, के वैहानस ते उद्बन्धन (फांसो खावो) गार्द्ध पृष्ठ ते बोनाने मांस विगेरेना हृदयना ॥७२०॥ ४ न्यासथी (बीजाने पोतानुं मांस अर्पण कर ते) गृद्ध (गीध) विगेरेथी पोतानो नाश कराववो. ७२०॥ ए वे प्रकारना मरण [आपघात] नुं वर्णन-पांचमा उद्देशामां-लानता अने भक्त परिज्ञा समजवी, छठ्ठामा एकत्व भावना है तथा इंगित मरण जाणवू. सातमामां मास विगेरेनी भिक्षुकनी प्रतिमाओ बतावी छे तथा पादपोपगमननं वर्णन छे, आठमामा अनु पूर्वे विहार करनारा दीर्घ संयम पाळनारा शास्त्रार्थ ग्रहणना स्वीकार पछी तेनाथी निवृत्ति लेवा संयम अध्ययन तथा अध्यापन द। (शीखव) तथा निर्मळ क्रिया करनारा साधुओ तैयार थया पछी (उत्कृष्ट तप वडे) कायाने दुर्वल बनावीनी (आचार्य के गच्छनायक) IN भक्त परिज्ञा, इंगित मरण अथवा पादपउगमन ए त्रणमांथी कोइ पण स्वीकारे तेनुं वर्णन छे. आ प्रमाणे पांच गाथानो संक्षेपथी अर्थ कयो, अने विस्तारथी तो दरेक उद्देशामां कहेवाशे, निक्षेप त्रण प्रकारे छे, ओघ निष्पन्न नाम निष्पन्न अने मूत्रालापक निष्पन्न छे, ओघमा अध्ययन छे; नाममा विमोक्ष छे, ते विमोक्षना निक्षेपा नियुक्तिकार कहे छे. नामंठवणविमुक्खो, दव्वे खित्ते य काल भावे य; एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छविहो होइ ।।२५८ नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काळ अने भाव विमोक्ष एम छ प्रकारे छे, संक्षेपथी कह्या, अने विशेपथी कहेवा नाम स्थापना मुगडूमने छोडी द्रव्यादि विमोक्ष बताववा कहे छे. BISGAR For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दवविमुक्खो नियलाइएमु खित्तमि चारयाईमुकाले चेइयमहिमाइएसु अणघायमाईओ । २५९॥ आचा० सूत्रम् द्रव्य विमोक्ष आगम अने नो आगम एम बे भेदे छे, आगमथी ज्ञाता पण तेमां तेनो उपयोग न होय. ॥७२१।। नो आगमथी ज्ञ शरीर भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त (जुदो) निगडादिक विषयभूत (बेडीमांथी) जे छुटकारो थाय ते द्रव्य विमोक्ष'11१२१ छे, (अथवा मागधीमां सातमी विभक्ति छे तेनो अर्थ पांचमी विभक्तिमां लइए तो) बेडी विगेरे द्रव्यथी छुटवू, ते द्रव्य विमोक्ष छे, (अपर कारक वचननो संभवतो अर्थ भणेलाए पोतानी मेळे विचारीने योजवो ते बतावे छे जेमके) द्रव्य बडे, के द्रव्यथी, एटले सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्यथी मोक्ष ते द्रव्य विमोक्ष विगेरे समजवो. क्षेत्र विमोक्ष ते जे क्षेत्रमा पोते चारक विगेरेयी पकडाएलो होय, तेमांथी छुटकारो थाय, ते क्षेत्र विमोक्ष छे. अथवा क्षेत्रना दानथी अथवा जे क्षेत्रमा मोक्षनुं वर्णन चाले ते क्षेत्र विमोक्ष छे. अने काळ विमोक्ष चैत्य महिमा विगेरेमा जेटलो काळ अमारी पटह वगडावे. अने आरंभ जीवहिंसा विगेरे बन्ध थाय ते अथवा जे काळे मोक्षनुं वर्णन चाले, तेने आश्रयी काळ मोक्ष छे. आ गाथानो अर्थ छे. हवे भाव विमोक्ष बतवे छे. दुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खो य सव्वमुक्खो य । देसविमुक्खा साहू सबविमुक्खा भवे सिद्धा ॥२६०॥ भाव विमोक्ष वे प्रकारे छे. आगमथी ज्ञाता अने उपयाग राखनार छे. अने नोआगमथी वे प्रकारे छे. देशथी तथा सर्वथी छे. ४ देशथी अविरत सम्यग्र दृष्टि जीवोने अनंतानुबंधीनी चोकडी क्षय उपशम थवाथी तथा देश विरतीने अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानी । चोकडीओ क्षय उपशम थवाथी छे. अने साधुओने प्रथमना बार कषायो (संज्वलननी चोकडी सिवाय) क्षय उपशम थवाथी अने CANCECE014 क-कलाव For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13ासत्रम UCERTIE% ॥७२२॥ 18"क्षपक श्रेणीमां जेने जेटलो काळ कषायो क्षीण थाय, तेने तेटलानोक्षय थवाथी देश विमुक्ति छे, तेथी साधुओ देश विमुक्त छे. भवस्थ आचा05 केवली साधुओं पण भव उपग्राहिक कर्मना सद्भावथी देश विमुक्तज छे, अने सर्वथा विमुक्त तो सिद्ध भगतंज थाय छे. (गाथार्थ) शंका-मोक्षनी पूर्वे बंधपणुं होय छे, जेमके निगड (हेड) विगेरे बन्ध होय तो तेना मोक्षनो संभव थाय, ते शंका दूर करवा ॥७२॥ माटे बन्ध अभिधान पूर्वक मोक्ष बतावे छे. कम्मयदव्बेहिसम, संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बन्धो नायबो, तस्स विगो भवे मुक्खा ॥२६॥ कर्म वर्गणाना द्रव्य (पुद्गलो) साथे जे जीवनो संयोग छे, ते प्रकृति स्थिति अनुभाव अने प्रदेश रुप बद्ध स्पृष्ट निधन निकाचन अवस्थावाळो बन्ध जाणवो. कारण के आत्मानो एकेक प्रदेश अनंत अनंत कर्म पुद्रलं वडे बन्धायला छे, अने अनत अनंत नवा बन्धाइज रह्या छे, कारणके बाकीना अग्रहण योग्य छे. प्र०-आठ प्रकारनां कर्म केवी रीते बन्धाय छे ? उ०-मिथ्यात्वना उदयथी-कधुं छे, के. " कहं णं भंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधति ?, गोअमा ? णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज कम्म निअच्छन्ति, दंसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तणं उइनेणं एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बन्धइ" यदि, वा-"णेहतुप्पिअगत्तस्स; रेणुओ लग्गई जहा अंगे। तह रागदोसणेहालियस्स कम्मपि जीवस्स ॥१॥" प्र०-हे भगवन् जीवो आठ प्रकारन' कर्मो केवी रीते बांधे छे ? , For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७२३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ०- हे गौतम! ज्ञानावरणीय कर्मना उदयथी दर्शनावरणीय कर्म बन्धाय छे, तेथी मिध्यात्वनो उदय थाय छे। अने तेथी आठे कर्म प्रकृति बन्धाय छे. अथवा स्नेह (घी तेल) श्री चीकणा बनेला शरीरवाळाने जेम शरीरमां झीणी रेती चाटे छे. तेवी रीते रागद्वेषनी चीकणासथी जीवोने कर्म चोंटे छे, ए आठे प्रकारना कर्मना आस्रवना निरोधथी अथवा तप वडे अपूर्वकरण क्षपकश्रेणीना अनुक्रमथी अथवा शैलेशी अवस्थामां जे कर्मनो वियोग थाय छे, तेज कर्मक्षय रूप मोक्ष छे. एनुं पुरुषना बधा अर्थोमां प्रधानपं होवाथी प्रारंभेल तलवारनी धारा माफक महाव्रतोना अनुष्ठाननुं मुख्य फळ होवाथी तथा बीजा मतत्राळानी साथे तेनो भेद होवाथी जेवुं मोक्षनुं स्वरुप जिनेश्वरे साचुं बतान्युं छे. ते कहे छे. अथवा प्रथम कर्मना वियोगना उद्देश वडे मोक्षनुं स्वरुप बनायुं. हवे ta योगना उद्देश वडे मोक्षनं स्वरूप बतावे छे. जीवस्स अत्तजणिएहि चैत्र कम्मेहिं पुव्वबद्धस्स । सव्वविवेगो जो तेण तस्स अह इत्तिओ मुक्खो || २६२ || जीव असंख्यात प्रदेशवाळो छे. तेने पोतानी मेळे (पोतानुंज) अनंतुंज्ञान स्वभावथीज छे, तेने पोतानो आत्मा जे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपाय योगमा परिणत थवाथी जे कर्मों पोतानाथी बन्धाय छे, ते कर्मने पूर्वे बांधेल होवाथी तेनो प्रवाह अनादि काळनी अपेक्षाथी चालु छे. ते कर्मनो सर्वथा अभाव रूप विवेक करवो, अर्थात् आत्माने तेनाथी निर्लेप करवो, तेज जीवने तेटलोज मोक्ष छे. पण बीजा निर्वाण प्रदीप (बुझाएला दीवा) माफक कल्पेलो मोक्ष नथी, भाव विमोक्ष कह्यो, अने जेने ते मोक्ष थाय छे, तेणे सर्वथा मोक्ष प्राप्त करवा अवश्ये भक्त परिज्ञा विगेरे त्रण मरण (अणसण) मांथी काइपण स्वीकारखं जोइए. अने कार्यमां कारणनो उपचार करवाथी ते मरणज भावविमोक्ष छे. ते बतावे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७२३ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम ॥७२४॥ भत्त परिना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायव्वं । जो मरइ चरिममरणं भावविमुक्ख वियाणाहि ॥२६६।। आचा० भक्त (भोजन)नी परिज्ञा [पञ्चख्खाण) अणसण ते भक्त परिज्ञा छे, तेमां त्रण प्रकारनो आहार त्यागीने फक्त अचित्त पाणीनी छुट राखीने अणसण करे, पण ते शरीरनी वैयावच्य करवा दे, अने ते धैर्यता तथा मजबूत संघयणवाळो होय, ते जेम पोताने । ॥७२४॥ समाधि रहे तेम अणसण करे. द तथा इंगित प्रदेशमा मरण पाम, ते इंगित मरण छे. ते चार प्रक्रारना आहारनी निवृत्ति रुप छे. अने ते जेतुं संघयण मजबुत होय, ते पोतानी मेळेज पासु फेरवर्बु विगेरे क्रिया करे, एम जाणवू. ते प्रमाणे चारे प्रकारनो आहार छोडीने तथा बधी क्रियाओ है तथा चेष्टाओ छोडीने एकांतमा शरीरनी वैयावच्च कराव्या विना झाडनी माफक स्थिर शरीर करवू. ते पादप उपगमन जाणवु. पण जे भव सिद्धिक जीव छे. ते छेल्ला अणसणने आश्रयीने मरे छे. अने तेथी उत्तम साधु जे मोक्षनी इच्छावाळो छे ते उपर Piबतावेला त्रण अणसणमांथी कोइ पण एक स्वीकारे छे, पण ते वैहानस विगेरे बाळ मरण (आपघात)थी मरतो नथी अने त्रण अणसणमां थोडो भेद होवाथी त्रण प्रकारचं भावमोक्ष एबुं तुं जाण, हवे तेज मरणने सपराक्रम अने अपराक्रम एवा बे भेदे बतावे छे. सपरिक्कमे य अपरिक्कमए य वाघाय आणुपुब्बीए । मुत्तत्यजाणएणं समाहिमरणं तु कायव्वं ॥२६४॥ पराक्रम [सामर्थ्य बळ] जेने होय ते सपराक्रमी कहेवाय, अने तेवी रीते मरे तो सपराक्रम मरण छे, तेना उलटापणामां अप-2 राक्रम छे. एटले जंघा बळ क्षीण यतां भक्तपरिज्ञा इंगित मरण अने पादप उपगमन एम त्रण भेदवाळु अणसण छे. छतां पण ते उपराक्रम सहित अने पराक्रम रहित एम दरेक वे प्रकारनुं छे. अने ते दरेक भेद पण व्याघात अने ते रहित छे. तेमां सिंह अनेर वाचावाGAR - - - For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माचा सुत्रम् ॥७२५॥ -% ल वाघ विगेरेथी जे नाश थाय ते व्याघात छे. अने ते सिवायनो अव्याघात छे. एटले दीक्षा लीधा पछा सूत्र अर्थ ग्रहण करीने अ नुक्रमे विपकित्रम [मरण न आवेलं] एवी अवस्थाने भोगवतो जे छे. ते अव्याघात छे. ॥७२५, म अहींया अनुपूर्वी शब्द छे तेनो परमार्थ बतावतां समाप्त करे छे. व्याघात बडे अनुक्रमे अथवा सपराक्रम अथवा अपराक्रमवाळा साधुने मरण आवे छते सूत्र अर्थना जाणनारे काळ आवेलो जाणीने समाधि मरणे मावू. भक्त परिज्ञा इङ्गित मरण पादप उपगमन भए त्रणमांथी कोइ पण एक मरण पोताने जेम समाधि रहे म कर. पण बाळ मरण न कर. (गाथा अर्थ) तेमां सपराक्रम मरण दृष्टांत बडे बतावे छे. सपरकममाएसो जह मरणं होइ अजवइराणं पायवगमणं च तहा एयं सपरकम मरणं ॥२६५।। पराक्रम सहित ते सपराक्रम मरणनो आदेश आचार्यनी परंपरामां संभळातो आवेलो वृद्ध वाद आ प्रमाणे छे. ते कहे छे, H( यथा शब्द उदाहरणना उपन्यास माटे छे) एटले आ प्रमाणे ते आदेश जाणवो. आर्य वज्रस्वामिनुं मरण पादप उपगमन छे 3 अने ते सपराक्रम मरण छे. ते प्रमाणे बीजे पण समजवु [गाथा अर्थ] तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो, अने ते कथा प्रसिद्धज छे. जेम आर्य वज्रस्वामिए पोते दवा माटे सुंठनो गांगडो कानमा राखेलो, ते वापरवो भूली जवाथी पोते जाण्यु के आवो प्रमाद मने थयो छे. तेथी तेमणे मरण नजीक आवेलुं जाणीने सपराक्रमी बनीने स्थावर्त पर्वत उपर पादप उपगमन अणसण कयु. हवे अ. | पराक्रम मरण बतावे छे. अपरकममाएसो जह मरणं होइ उदहिनामाणं । पाओवगमेऽवि तहा ण्यं अपरकम मरणं ॥२६६॥ AC- A AECSS AGES For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbadirth.org आचा० ॥७२६॥ JERIORSERY Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit पराक्रम न होय तो अपराक्रम कहेवाय तेवू मरण जेने जंघावळ सर्वथा क्षीण थयेलं होय तेवा उदधि [सागर] नामना ते || आर्य समुद्र मुनि, मरण थयेलुं छे. तेनो वृद्धावाद आ प्रमाणे छे. ते प्रमाणे पादप उपगमन अणसण वडे तेमनु मरण थयेल छे. सूत्रम जेवी रीते आर्य समुद्रन अपराक्रम मरण छे. तेवू बीजी जग्याए पण जाणवू. (गाथा अर्थ) तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो. आर्य समुद्र नामना आचार्य स्वभावथीज दुर्बळ हता, पछीथी जंघा चळे सर्वथा क्षीण थतां 8/॥७२६॥ शरीरथी बीजो लाभ न जाणीने तेने तजवानी इच्छाथी पोताना गच्छमां रहीने उपाश्रयना एक भागमा आहार रहीत पादप उपM गमन अणसण कर्यु, हवे व्याघातबाळ अणसण कहे छे.. वाघाइयमाएसो अवरद्धो हुन्ज अनतरएणं । तोसलि महिसीइ हओ, एयं वाघाइयं मरणं ॥२६७।। विशेषथी आघात ते सिंह विगेरेए करेलो व्याघात छे एटले शरीरनो नाश थाय छे. तेना वडे जे अणसण समाप्त थाय अथवा व तेवू मरण थाय तो ते व्याघातिम अणसण छे. एटले कोइ साधुने सिंह विगेरेए घेयों होय, अने तेनाथी मरण थाय, ते व्याघातिम छे तेना माटे वृद्धवाद आ प्रमाणे छे. के तोसली नामना आचार्यने भेंसोए धेर्यो, अने मरण वखते तेमणे चार प्रकारनो आहार त्यागीने अणसण कयु ते व्याघातिम मरण छे. तेनो भावार्थ कथाथी जाणवो ते कहे छे. ते देशमा भेसो घणी थाय छे. तोसली नामना आचार्यने जंगली भेंसोए घेर्यो, तेमणे पीडातां बीजो उपाय न जोइने चार प्रकारना आहार त्यागवानु अणसण कयु हवे अव्याघातिम अणसण बताववा कहे छे. अणुपुचिगमाएसो पन्चज्जासुत्तभत्थकरणं च । वीसज्जिो (य) निन्तो, मुक्का तिवहस्स नीयस्स ॥२६८। कलानावर For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७२७॥ www.kobatirth.org अनुपूर्वी (क्रम) ने पामे, ते अनुपूर्वीग छे. म० ते आदेश क्यो छे ? (आ देशनो अर्थ वृद्धवाद छे.) ते वृद्धवाद आ प्रमाणे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम आत्मार्थी जीवने दीक्षा आपवी, पछी सूत्र भणाववां छेवटे अर्थ आपवो. ते बन्नेमां प्रविण थयेलो अने गुरुए सुपात्र जोइने सूत्रार्थ भणाव्या पछी तेने आज्ञा आपे तो पोते कोइपण जातनुं अगसण करवा तैयार थइने नीकळे, ते प्रथम आहार उपि शय्या एम त्रणेनो त्याग करे छे. अने पोते प्रथम रोज भोगवतो तेनाथी पोते मुकाय छे. तेमां जो आचार्य होय तो तेनुं अणसण करवा पहेला शिष्योने तैयार करीने बीजो आचार्य स्थापीने पोते निवृत थइने बार वरसनी (उत्कृष्ट तपस्या) संलेखना वडे अनुभव करीने पोते गच्छनी अणुज्ञा [संमति] लड़ने गच्छने छोडीने अथवा पोते नीमेला आचार्यनी समति लइने अणसण करवा बीजा आचार्यनी पासे जाय छे, तेज प्रमाणे उपाध्याय प्रवर्त्तक स्थविर गणावच्छेदक, अथवा सामान्य साधु हाय ते आचार्यनी रजा ल|इने संलेखना बडे परिकर्म करीने भक्त परिज्ञा विगेरे अणसण न स्वीकारे. तेमां पण, भात्र संलेखना करे कारण के द्रव्य संलेखना जो, एकली होय; तो, दोषनो संभव छे, ते कहे छे: पडिचोइओ य कुविओ, रण्णो जह तिक्ख सीयला आणा । तंबोले य विवेगो घट्टणया जा पसाओ य || २६९ ॥ आचार्य प्रेरणा करेलो के तुं फरी संलेखना कर, एवं कद्देवाथी क्रोधायमान थपला शिष्यने जेम राजानी आज्ञा तीक्ष्ण होय छे पछी शीतळ थाय छे. तेम आचार्ये पण बीजाओना रक्षण माटे प्रथम त्याग करवो जोइए. वळी नागरवेलनुं सडेलं पान जेम बीजां पान बचाववा माटे दूर कर जोइए. तेम कुशिष्यने प्रथम शिक्षा करी पछी ते माफी मागे तो तेना उपर दया लावी राखत्रो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७२७॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७२८ ।। · 1961 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोइए. ( गाथा अर्थ ) भावार्थ कथाथी जाणवो. एक साधुए बार वरसनी उकृष्ट तपस्याथी संलेखना करी, अने आचार्य पासे अणसणनी याचना करी आचार्य कं, तुं हजु पण संलेखना कर, तेथी आ शिष्ये कोपायमान थइने फक्त चामडी अने हाडकुं रहेल एवी मांस लोही विनानी आंगळी भांगीने देखाडी, के हवे शुं अशुद्ध वाकी र छे ? आचार्ये पोताना हृदयनो अभिप्राय प्रगट कर्यो, के तुं क्रोधने लीधे अशुद्ध छे. के वचननी कडवासथी शीघ्र तारी आंगळी तें भांगीने भावनी अशुद्धता देखाडी छे. तेथी तेने बोध करवाने माटे दृष्टांत कां, के को राजानी वे आंखो रोज पाणीथी झरती हती, राजाना वैद्योए घणी दवा करी पण सारुं न धर्यु. एक बखत कोइ परदेशी वैद्य आव्यो तेणे कर्छु, जो तुं एक मुहुर्त सुधी वेदना सहन करे, अने मने न धरावे, तो तने सारो करुं राजाए कबुल कर्यु. अंजन ( सुरमो) आंखमां नाख्या पछी उत्पन्न थयेली तीव्र वेदनाथी मारी आंखो गई, एवी वाणी बोलीने राजाए मारवानी आज्ञा करी; तेथी राजानी आज्ञा तीक्ष्ण थइ; अने पूर्वे न मारवानुं वचन आपवाथी शीतळ आज्ञा करवी पडी; पण ज्यारे मुहुर्त पछी वेदना दूर थतां सारी आंखोवाळो थतां तेज राजाए खुश थइ वैद्यनी पूजा करी. ए प्रमाणे आचार्यनी आज्ञा पण तीक्ष्ण छे, एटले, शिष्यनी भूल देखतां वडवां वचननी आज्ञा करे, पण शिष्यनुं अंतरंग तपासी तेनां कार्यश्री प्रसन्न थाय; एटले, परिणामे शिष्यने हितकर होवाथी ते आज्ञा शीतळ छे. आवुं समजाव्या छतां पण क्रोधथी शिष्य शांत न थाय; तो, बीजाओना रक्षण माटे सडेला पाननी माफक तेने दूर करवो. जो, गुरुनी आज्ञा शिष्य माने तो, गच्छमांज रहेवा दइने दुर्बचनथी तेनो तिरस्कार करी परीक्षा करवी. जो, तेम करतां न For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७२८॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सुत्रम् ॥७२९॥ आचा० ट्रकोपे, तो ने शुद्ध छे, एम जाणीने तेने अणसणनी आज्ञा आपे; तथा तेने आर्तध्यान विगेरे न थाय; माटे तेनी खबर, राखी गुरु प्रसाद करे. प्र०-आ प्रमाणे केवो, अने केटलो काळ, अने केवी रीते आत्माने संलेखे ? तेथी, हृदयमा विचारने कहे छे:॥७२९॥ निष्फाईया य सीसा सउणी जह अंडगं पयत्तेणं । वारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेइ ।।२७०॥ चत्तारि विचित्ताई विगई निहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दुन्नि उ एगं तरियं तु आयाम ॥२७१।। नाइविगिट्ठो उ तवो, छम्मासे परिमियं तु आयामं । अन्नेवि य छम्मसे होइ विगिटुं तवो कम्मं ॥२७२।। वासं कोडीसहिय आयाम काउ आणुपुब्बीए । गिरिकंदरमि गंतुं, पायवगमणं अह करेइ ॥२७३।। सूत्र अर्थ तथा बन्ने प्रकारे पोताना शिष्योने तथा भणवा आवेला बीजा साधुने भणावीने जेम शकुनी पक्षी इंडाने सेवीने & तैयार करे, तेम प्रयत्नथी तैयार करवा जोइए. त्यारपछी आचार्य बार वरपनी संलेखना करे ते आ प्रमाणे. चार वरस सुधी जुदा जुदा तपना अनुष्ठान करे छे. एटले एक बे त्रण चार पांच उपवास विगेरे करीने पारणुं करे छे. पारजाणामां वखते विगय वापरे. अने नपण वापरे, पांचमा वरसथी बीजां चार वरस तेवो तप करीने पारणामां वीगइ न वापरे नवमा दशमा वरसमां उपवासने पारणे आंबेल एम करे अग्यारमा वरसमा पहेला छ महीना सुधी अति विकृष्ट तप न करे अथवा एक बे | उपवास करीने परिमित आंबेलथी पारणुं करे (उणोदरी तप करे) बीजा छ मासमां विकृष्ट तप अने पारणामां आंबेलमा उणोदरी तप करे बारमा वरसे कोटी सहित आंबेल करे एटले रोज आंबेलथी खाय. एटले आंबेलनी कोटी कोटी मळे माटे कोटी सहित 8 का छे चार मास बाकी रहे त्यारे तेलना कोगळा अस्खलित नमस्कार विगेरे शिखवा माटे वायु दूर करीने मुख यंत्रना प्रचार माटे CSC-AAAECE For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥७३०॥ ६ वारंवार करे. आ प्रमाणे चार वरस सुधी अनुक्रमे बधुं करीने सामर्थ्य होय तो गुरुनी आज्ञा लइने पहाडनी गुफामां जइने निर्दोष Talaजग्या जोइने पादप उपगमन अणसण करे इङ्गित मरण अथवा भक्त प्रत्याख्यान जेम समाधि रहे तेम करे आ प्रमाणे बार वर सनी संलेखना कर्म बडे आहार ओछो करता आहारनी अभिलाषानो उच्छेद थाय छे ते वे गाथा वडे बतावे छे. ॥७३०॥ ___ कह नाम सो तवोकम्मपंडिओ जो निच्चुजुत्तप्पा । लहुवित्तीपरिक्खेवं वच्चइ जे मंतओ चेव ? ॥२७४|| ____ आहारेण विरहिओ, अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासतो हासतो, एवाहारं निरंभिज्जा ॥२७५।। केवी रीते ए साधु तप करवामां पंडित थाय ? जे नित्य उद्युक्त आत्मा बनीने बत्रिस कोळियाना परिणामवाळी वृत्ति न राखे? Pएटले दिवसे दिवसे लघु वृत्तिनो परीक्षेप न करे; तो, तप कर्ममां पंडित केवी रीते थाय (जो, गोचरीमा लोलुपता राखी वधारे। वधारे खाय; तो, ते तप करवामां निपुण न थाय;) तथा आहार वडे बेत्रण दिवस मुधी वियोग करे. अर्थात् बेत्रण पांच छ उप5 वास करी; पछी पारणुं करे तो, शा माटे अल्पाहारी न थाय ? (थायज) प्र-शा माटे तप करे ? उ०-अणसण करवा माटे, आ प्रमाणे उपवास करतो तथा दरेक पारणामां अल्पाहारने लीधे 5 ओछो ओछो करतां टेव पडतां उपर बतावेली विधिए भक्त पचरुखाणर्नु अणसण करे. नाम निक्षेपो कहो. हवे मूत्र अनुगममा अस्खलित विगेरे गुणयुक्त मूत्र कहेवू. ते कहे छे: से बेमि समणुन्नस्स वा असमणुन्नस्स वा असग वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं GEOGRAPES बाबाबालक CERIES For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie आचा सूत्रम् ॥७३१॥ ७३१॥ 2SSARAS वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंच्छणं वा नो पादेजा नों निमंतिजा नो कुजा वेयावडियं पर आढायमाणे तिबेमि (सू० १९७) मुधर्मास्वामि कहे छे. जे-में भगवान पासे सांभळ्यु; ते कई छ, अने हवे कहेवातुं पण भगवाननु वचन छे. एटले समनोज्ञ, & अथवा अमनोज्ञ होय; एटले, दृष्टि (सम्यग्दर्शन,) तथा लिंगथी समनोज्ञ एटले उत्तम श्रद्धावाळो होय; पण, भोजन विगेरेमा त्यागी न होय, अने अमनोज्ञ ते चौद्ध मत विगेरेना साधुने चार प्रकारना आहार विगेरेनी निमंत्रणा न करे; ते कहे छे. अशन [भोजन ते, भात विगेरेनुं छे, अने पाणी ते, द्राख विगेरेनुं छे, अने थोडा टेका रुप नाळीयेर (कोपरु) विगेरे छे, अने स्वाद माटे कपुर, लवंग, विगेरे छे. तेज प्रमाणे वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, आ वां पोताना उपकरण कुसाधुने वापरवा न आपे. तेज प्रमाणे 8 तेमनी वैयावच्य न करे; अने घणां आदरवाळो बनीने तेमने तेवी वस्तुन आमंत्रण न करे। तेम थोडी घणी बयावच्य पण न करे. हवे, पछीनुं पण हुं कहुं छु.. धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुछणं वा लभिया नो लभिया भुंजिया नो भुंजिया पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्म जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा वा निमंतिज वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि (सू० १९८) ते बौद्ध विगेरे मतना कुशीळवाळा साधुओ अशन विगेरे बतावीने एबुं बोले के,आ निश्चय जाणो के, अमारा मठमां रोज तमे | RECORGES For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18/ भोजन विगेरे मेळवशो एटले बीजी जग्याए मळे न मळे अथवा खाइने अथवा विना खाधे अमारी धीरजने माटे तमारे अवश्य | आचा० + आवq, जो न मळे तो लेवा माटे अने मळे तो वधारे खावा माटे वारंवार भोजन माटे न खाधुं होय ते वखते सवारनो नास्तो क सत्रम परवा अमारी धीरज माटे कोइ वखत पण आवर्बु अथवा ज्यारे तमने जे कल्पे तेवु अमे तमने आपशुं वळी अमारो मठ तमारा रस्ता॥७३॥ मांज छे कदाच तमे बीजे रस्ते जता हो तो थोडो फेरो खाइने पण आडा मार्गे बीजे घेरे जइने पण अमारे त्यां आवq आ आगम- 5॥७३॥ ६ नमां खेद मानवो नहीं (आ प्रमाणे प्रेम धरावी जैन साधुने बौद्ध विगेरेना साधु आमंत्रण करे.) प्र-शा माटे आq बौद्ध साधु । करे छे ? उ०-ते कहे छे विभक्त (जुदा) धर्मने पाळता अने कदाच जैन साधुना उपाश्रयमां आवीने अथवा रस्तामा जतां निमंत्रण B करे अथवा पोतानी पासेनुं भोजन विगेरे आपे अथवा भोजन आपवानी निमंत्रणा करे अथवा भक्त माफक वैयावच्च करे आ बधु जैन साधुने कुशील साधुनुं न कल्पे तेम तेनो परिचय पण न करे केवी रीते जैन साधु रहे ? उ०-ते कुशील साधु बहु मानथी साधु नो आदर करे तोपण पोते तेमां गृद्ध न थाय तोज दर्शनशुद्धि साधुनी रहे छे, (जो तेवा कुशीलनी सोबत करे तो जैन साधुने पोताना कठण संयममा अनादर थाय अने पोते पण तेवू कुशील आचरे.) अथवा हवे पछी- पण सुधर्मास्वामी कहे छे. इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठो अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिनमाययंति अदुवा वायाउ विउजति, तंजहा-अस्थि लोए नस्थि लोए धुवे लोए अधुवे लोए साइए लोए अणाइए लोए सप SAIRECAPTA-मान हवाबाबत For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie ४ सूत्रम् AA ॥७३३॥ आचा० जवसिए लोए अपज्जवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा कल्लाणेति वा पावेत्ति वा सा हृत्ति वा असाहत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा, जमिणं ॥७३३॥ विप्पढिवन्ना मामगं धम्मं पन्नवेमाणा इत्थवि जाणह अकस्मात् एवं तेर्सिनों सुयक्खाए धम्मे नो सुपन्नत्ते धम्मे भवइ (सू० १९९) आ मनुष्य लोकमां केटलाक पूर्वे करेल अशुभ कर्मनो विपाक जेमने छे. तेवा निर्भागी जीवोने मोक्ष माटे जे अनुष्ठान रुप आचार छे, सारी रीते हृदयमा ठस्यो नथी, ते अपरिणत आचारवाळा जेवा होय, ते कहे छे: ते आचारनुं स्वरुप न जाणनारा गोचरीमा नाद्या विना परसेवान। मेलना परिषहथी कंटाळेला जे साधुओ छे; तेमने सुख विहार करनारा बौद्ध मत विगेरेना साधुबोए पोताना जेवा विचारवाळा बनावेला छे. तेथी, जैनसाधुओ पण, तेनी सोबतथी संय-12 ममा शिथिळ थइ आरंभना अर्थी बने छ, अथवा ते शक्य विगेरेना साधु, अथवा जे कुशीळ छे, तेओ सावध आरंभना अर्थी छे. ६ तेज प्रमाणे मठ, आराम, तळाव. कुवा बनाववा पोताने माटे रांधेलं खानारा विगेरे साधुओ बोले छे के, पाणीोने मारो, आ प्रमाणे बीजा पासे मरावता; अने मारनारनी अनुमोदना करता;अथवा बीजार्नु द्रव्य लेवाथी कडवं फळ छे. तेने विसरीने, तथा जेना शुभ अध्यवसायो ढकाइ गया छे. तेओ चोरीनु द्रव्य ले छे. वळी, पहेला त्रीजा व्रतमां थोडुं कहेवार्नु होवाथी तेने प्रथम कहीने बीजा महाबतनुं वधारे कहेवानु होवाथी बीजा व्रतनो उपन्यास हवे करे छे. [अथवा ए अव्यय बीजो पक्ष बतावे छे. ते कहे छे.] बाaas. For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एटले, अदत्त ले छे. अथवा, नाना प्रकारनी युक्तिओ योजे छे. ते बतावे छे के, स्थावर जंगम स्वरूपवाळो लोक छे, तेमां नव खंडवाळी पृथ्वी छे अथवा सात द्वीपवाळी पृथ्वी छे. वीजा मतनां माने छे के, ब्रह्माना अंडामा पृथ्वी अंदर रहेली छे. वळी बीजा मतवाळा कहे छे के ब्रह्माना अंडा जेवी पाणीमां रहेली भींजाती एवी सेंकडो पृथ्वीओ पाणीमां रहे छे तथा जेओ पोताना कर्मना | फळ भोगवनारा छे परलोक हे बंध मोक्ष छे पांच महाभूत छे (आवा जुदा जुदा अनेक मत छे.) तो कहे छे के आ बधो लोक जे देखाय छे ते बधुं माया [जुठ] नी इन्द्र जळ जेवुं तथा स्वप्नमां देख्या जेबुं छे अने अविचारीत रमणीयपणे भूतनो अभ्युगम [ स्वीकार ] करवा छतां परलोकनो अनुयायी जीव पण नथी, शुभ अशुभ फळ - नथी पण जेम किणु विगेरेमांथी जेम नसो उत्पन्न थाय छे, तेम भूतोमांथी चैतन्य थाय छे. आ वधुं मायाकार गंधर्व नगरना जेवुं छे. कारण के पून्य पाप विगेरे युक्तिथी सिद्ध थतां नथी. बळी चार्वाक कहे छे: यथा यथाऽर्थांश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यथेतत्स्वयमर्थे भ्यो रोचते तत्र के वयम्। १ ।। भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च । तथापि मन्दैरन्यस्य तत्त्वं समुपदिश्यते ॥ २ ॥ I जेम जेम अर्थो विचारीए तेनुं विवेचन करीए तेम तेम जे जे अर्थ तरफ रुचे तेमां आपणे कइ गणत्रीमां (जेम जेम विचार करीये तेम तेम आ बधुं विषय तरफ खचाइ जाय त्यारे आपणे विचार करवानी शुं जरुर . ) आ शरीर तथा विषय अने इन्द्रियो वधुं भूतमांथी वनेलुं छे. तोपण मंद बुद्धिवाळाए बीजा जीवोने फसाववा तत्व तरिके ठसावी दीधुं छे.. वळी सांख्य विगेरे मतवाला कहे छे, लोक नित्य छे. कारण के प्रकट थर्पु, लय थवं एटलुंज मात्र उत्पात अने विनाश स्वरुप For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७३४ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७३५॥ www.kobatirth.org छे. कारण के जे नथी तेनुं उत्पादन नथी. तथा जे छे तेनो नाश नथी. अथवा ध्रुव ते नदी समुद्र पृथ्वी पर्वत आकाश ए बधांतुं निश्चयपर्ण होवथी ते ध्रुव छे (माटे तेमना मत प्रपाणे बधुं नित्य छे) बौद्ध विगेरे कहे छे लोक अनित्य छे कारण के दरेक क्षणे तेनो स्वभाव क्षय थवारूप छे. विनाशना हेतुना अभावथी अने नित्य वस्तुना अनुक्रमथी के एक साथे अर्थ क्रियामां असामर्थ्यपणुं छे. (आ प्रमाणे तेमनुं मानवु छे के बधुं अनित्य छे.) अथवा अध्रुव ते चल छे जेमके भूगोल (पृथ्वीनो गोळी) केटलाक न कहेवा प्रमाणे नित्य चलायमान छे. (तेओ माने छे के पृथ्वी फरे छे) अने सूर्य स्थिर छे तेमां सूर्य मंडळ दूर होवाथी जेओ पूर्वमांथी जुए छे तेमने सूर्यनो उदय देखाय छे। अने सूर्यना मंडळना निचे रहेलाने मध्यान्ह देखाय छे। अने जेओने सूर्य दूर थवाथी न देखाय तेओने आयमेलो जणाय छे. वळी बीजा मतबाळा एवं माने छे के लोकनी आदि छे. तेओ कहे छे. आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तभित्र सर्वतः ॥ १ ॥ आ वधुं पूर्वे अंधारारूप, अजाण्युं, लक्षण रहित विचाराय नहीं तेवु, न जणाय तेनुं, बधी रीते मूतेला जेवुं हतुं. तस्मिनेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजंगमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोरगराक्षसे ॥ २ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ते एक समुद्ररूप बनेलुं स्थावर जंगमनो तथा देवता मनुष्यनो नाश हतो तेम नाग तथा राक्षसनो पण नाश हतो (त्यारे के हतुं ते कहे छे) केवलं गहरीभूते, महाभूत विवज्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृदं काञ्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७३५॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥७३६॥ AAKAA तस्मिन् पोतु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ।। ५ ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिर सुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६॥ सूत्रम कद्रुः शरीरमृपाणां मुलसा मात तु नागजातीनाम् । मुरभिचतुष्पदानामिला पुनः सर्व बीजानाम् ॥ ७ ॥ फक्त गहवर (पोलाण) ना आकारवाळु महाभूतोथी रहित हतुं तेमां अचिंत्य आत्मा विभु (इश्वर) पोते सुतेलो तप करे छे. ३5॥७३६॥ ते त्यां सुतेला विभुनी नाभीमाथी एक कमळ उत्पन्न थयु ते उगता मूर्यना भंडळ जेवू सोनानी कणिकावाळु रमणिक हतुं (४) ते पद्ममांथी भगवान दंड धारण करेल जनाइ पहेरेला ब्रह्मा उत्पन्न थयो तेणे जगतनी माताओने रची छे. (५) देवताओना समूहनी माता अदिति छे, अने अमूरोनी माता दिति छे. मनुष्यनो मनु छे. पक्षीओनी माता विनता छे. आप माणे विश्वना प्रकारोनी माताओ ब्रह्माए बनावी.(६) सरीसृपनी माता कद्र छे. अने नागनी जातीओनी माता सुलसा छे. तेम बधां चोपगां प्राणीनी मा सुरभि छे. अने सर्व बीजोनी माता इला छे. [आ प्रमाणे पुराणवादीओ बोले छे, तेम बीजाधर्मवाळा पण पोतानी बुद्धि प्रमाणे कल्पना करे छे, तेम समजवं18 बीजा मतवाळा केटलाक अनादि लोक माननारा छे जेमकेशाक्य मतवाला कहे छे हे भिक्षुओ! अनव दन [अनादि] आ संसार छे तेनी पूर्व कोटी जणाती नथी, निवारण सत्वोने अविद्या नथी, तेम जीवोनो उत्पाद नथी, वळी अंतवाळो आ लोक छे जगतना प्रलयमां बधानो नाश थाय छे, तथा अंत विनानो लोक छे कारण के विद्यमान वस्तुनो सर्वथा नाशमो असंभव छे. कारण के एवं नथी [अर्थात् छेज] केटलाक तो बन्नेने पण माने छे ते बतावे छे. हवामानावरकर For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७३७॥ www.kobatirth.org द्वावेव पुरुषौ लोके, क्षरश्वाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १ ॥ बेज पुरुषो लोकमां पूर्वे हता, एक क्षर ( नाशवंत ) बीजो अक्षर [अनाशवंत ] तेमां क्षरमां सर्व भूतो छे. अने अक्षर ते कूटस्थ कहेवाय छे. आ प्रमाणे परमार्थने नहीं जाणनारा लोक छे. विगेरे स्वीकारवा वडे विवाद करता जुदी जुदी वाणी काढे छे तेज प्रमाणे आत्माने पण जुदी जुदी रीते बतावे छे जेमके सारुं कर्यु, ते सुकृत माने अथवा दुष्कृत माने एम क्रियावादीओ माने छे. | एटले कोइ बोले के सर्व संगनो त्याग करवाथी महाव्रत ग्रहण कर्यु, ते सारं कर्यु. तथा बीजा बोले छेके हे भाइ ! आ सरळ मृगलोचनवाळी स्त्रीने पुत्र उत्पन्न कर्या विना तें त्यागी, ते खोटुं कर्यु. तथा जे दीक्षा लेवा तैयार थयो होय, तेने कहे, के आ कल्याण छे. तेनेज बीजो कहे के आ तो पाखंडीओना जाळमां फसाएलो कलीब के! गृहाथम पाळवाने असमर्थ छे ! विना पुत्रे दीक्षा लीधी | तेथी पापरूप छे तथा आ साधु छे, असाधु 'छे एम पोतानी मतिए कल्पना करी इच्छानुसार बोले छे तथा सिद्धि छे अथवा सिद्धि नथी, अथवा नरक छे अथवा नधी ए प्रमाणे बीजुं पण पोताना आग्रह प्रमाणे पकडी विवाद करे छे ते बतावे छे के आ पूर्वे बनावेलं लोक विगेरेने आश्रयी जुदुं जुदुं माननारा ते विप्रतिपन्न वादीओ छे ते कहे छे. इच्छंति कृत्रिमं सृष्टि-वादिनः सर्व मेव मितिलिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादि पर्यन्तम् ॥ १ ॥ सृष्टिना वादीओ माहेश्वर विगेरे बधुंज मितिलिंग अने कृत्रिम माने छे, अने वधा लोकने सादि पर्यंत माने छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारीश्वरजं केचित् केचित् सोमानिसंभवलोकं । द्रव्यादि षड्विकल्पं, जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ २ ॥ तथा इश्वरथी उत्पन्न थएलुं माने छे, केटलाक मतवाळा सोमाशिथी लोक उत्पन्न थयेलुं माने छे तथा द्रव्यगुण विगेरे For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ॥७३७ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छ विकल्पवाळं जगत् केटलाक माने छे. ईश्वरमेरितं केचित् केचिद् ब्रह्मकृतं जगत् । अव्यक्त प्रभवं सर्व, विश्वमिच्छति कापिलाः ॥ ३ ॥ केटलाक इश्वरी प्रेरणाथी थपलं माने छे, केटलाक ब्रह्माए जगत् करेलुं माने छे, एने कपिल मतवाळा अव्यक्तथी वधुं विश्व थरलं माने छे. यादृच्छिक मिदं सर्व, केचिद् भूत विकारजं । केचिच्चानेकरूपं तु बहुधा संप्रधाविताः ॥ ४ ॥ केला याच्छक (स्वभाविक ) बधुं माने छे, केटळाक भूतोना विकारथी थएलुं माने छे, केटलाक मतत्राळा अनेक रुपवाळं जगत् माने छे, आ प्रमाणे अनेक प्रकारे मतवादीओ पोताना विचार बताववा दोडेला छे. आ प्रमाणे जेमणे स्याद्वाद समुद्र अबगाइन कर्यो नथी तेवा एकांश ग्रहण करी मतिना भेदवाळा बनेला परस्पर दोषित बनावे छे, तेज कछु छे:— लोकक्रियाSSत्मतत्त्वे, विवदन्ते वादिनां विभिन्नार्थं । अविदित पूर्व येषां स्याद्वाद विनिश्चितं तत्त्वं ॥ १ ॥ लोक, क्रिया, आत्मा, तथा तत्त्व संबंधी जुदा जुदा विषयने बताववा तेज वादीओ झगडा करे छे के जेमणे स्याद्वादथी विशेष प्रकारे निश्चय कर्या विना तत्रनुं वर्णन करेल हे; पण जेमणे स्याद्वाद मतनो निश्चय कर्यो छे, तेओने अस्तित्व नास्तित्व विगेरे अर्थनो नयना अभिप्राय प्रमाणे कथंचित् (कोइ अंशे) आश्रय करवाथी तेमने विवादनो अभावज छे, ग्रन्थ वधी जवाना भयथी अहीं बहु कहेवानुं छे, छतां कहेता नथी, तथा तेनुं वर्णन सूत्रकृत विगेरे सूत्रमां विस्तारथी क छे. बधा परस्पर विवाद करता पोताना तत्वनो आग्रह करी तेनुं समर्थन करता पोते नाश पाम्या हे, अने बीजानां नाश करे For Private and Personal Use Only AI-RISARJA सूत्रम ॥७३८॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ७३९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, ते बतावे छे:- केटलाक सुखथी धर्मने इच्छे छे, बीजा दुःखथी धर्म माने छे, केटलाक स्नानथी धर्म माने छे तथा मारोज धर्म मोक्ष आपनार छे, बीजो बोलवा जेवोज नथी, एम बोलनारा अपुष्ट (तुच्छ) धर्मवाळा परमार्थ नहि जाणनारा (भोळा जीवो) ने फसावे छे. हवे तेमनो उत्तर जैनाचार्य आपे छे. लोक छे अथवा नथी विगेरेमां तमे जाणो. अकस्मात् (मागध) देशमां आ शब्द गोवाळणी सुधां पण संस्कृतमां बोले छे, तेथी तेजरुपे लीधो छे एटले कस्माद् ( ते हेतु छे अने अ साथै लेवाथी अकस्माद् ते अहेतु छे) तेमां ते हेतुना अभावथी बनतुं नथी, एम समजनुं के दरेकमां हेतु रहेल छे, जो तेम न मानीने एकांतथीज “ लोक छे, ” एवं मानीए तो ते अस्ति (छे), शब्द साये समान अधिकरणपणे थवाथी जगतमां जे जे छे, ते बधुं लोक थशे अने ते मानतां तेनो प्रतिपक्ष पण 'अलोक ' अस्ति (छे), तेथी लोकज अले थशे अने व्याप्यना सद्भामां व्यापकनो सद्भाव थतां अलोकनो अभाव यशे अने तेना अभावमां तेना प्रति पक्ष लोकनो प्रथमज अभाव थशे. अथवा लोकनुं सर्व गतपणुं सिद्ध थशे. अथवा "लोक अस्ति" पण लोक न भवति [ नथी] लोक पण नामज छे, अने लोक नथी लोकनो अभाव छे. ए प्रमाणे थशे, आ बधुं अनिष्ट छे, अने अस्तिनुं व्यापकपणुं होवाथी लोक साथै अस्ति एकांत लागवाथी घट पट विगेरेमां पण लोकपणानी प्राप्ति शे कारण के व्यायना व्यापकना सद्भाव साथ अंतरपणुं नथी वळी अस्ति लोक आ प्रतिज्ञा पण लोक एम मानवाथी हेतुनुं पण अस्तित्वपणुं छे, तेथी " प्रतिज्ञा अने हेतु " बन्नेमां एकत्व प्राप्ति थशे अने ते एक थतां हेतुनो अभाव थशे अने हेतुना अभावमां कोण केनाथी सिद्ध यशे, अथवा एम मानीए के " अस्तित्वथी अन्य लोक छे, तो प्रथम करेली प्रतिज्ञानी हानि थशे, तेथी ए For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७३९ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. प्रमाणे एकांतथीज लोक अस्तित्व मानतां हेतुनो अभाव बताव्यो, एज प्रमाणे नास्तित्वनी प्रतिज्ञामां पण समजवू, ते बतावे छे, कोइ8 आचा० दिएम कहे के " लोक नथी" आq बोलनारने पूछq के तमे छो के नहि ? अने जो तमे छो तो लोकमां के लोक बहार जो लोकमां सुत्रम । हो, तो लोक नथी एवं केम बोलो छो ? अने लोक बहार एम बोलशो तो खर, विषाण (गधेडान शीगडा) माफक असत्य सिद्ध ॥७४०॥ Bथया, तेथी मारे कोने उत्तर आपको ? आ प्रमाणे दरेक विद्वाने पोतानी मेळे विचारीने एकांत वादीोनुं समाधान करवू. ॥७४०॥ ____एवं'-जेम अस्तित्व नास्तित्व वाद तेमने मानेलो आकस्मिक नियुक्तिक (युक्ति विनानो) छे, एज प्रमाणे ध्रुव अध्रुव विगेरे - वादो पण नियुक्तिज छे, पण अमारा जैन स्याद्वाद वादीना जैनमतमां कथंचित् (कोइ अंशे) ना स्वीकारथी उपर बतावेला दोषनो प्रसंग नथी, कारण के स्वपर सत्ताना उपादान व्युदासथी वस्तुनुं वस्तुपणु उपाद्य छे, एथी स्व द्रव्य क्षेत्र काळ स्वभावथी वस्तुना र अस्तिपणुं छे, अने परद्रव्य क्षेत्र काळ स्वभावथी नास्तिपणुं छे, कडं छे के: सदेव सर्व को नेच्छेत, स्वरूपादिचतुष्टयात । असदेव विपर्यासान् न चेन व्यवतिष्ठते ॥१॥ स्वरूप विगेरे चार (द्रव्य क्षेत्र काळ भाव) थी वधा पदार्थोने सत् तरीके कोण न इच्छे? अने तेथी उलटुं ते बीजाना द्रव्यादि ६ चष्टतुयथी पोते असत् छे, जो तेम न मानीए तो वस्तुनी व्यवस्था रहे नहि. विगेरे जाणवू, कारण के मूत्रना संबंधना लीधे आ प्रयास थोडमां समजाववा माटे कहेल छे, माटे वधारे कहेता नथी, ए प्रमाणे ध्रुव अध्रुव विगेरेमां पण पांच अवयव अथवा दश अवयव अथवा बिजी रीते एकांत पक्ष साथे स्यावाद पक्ष सरखावी विचारोने योजवो. (आ पांच अवयव अने दश अवयत्रनु स्वरुप दशवैकालिक प्रथम अध्ययनमा हरिभद्रमूरि प्रहाराजनी टीकमां बतावेल छे. RSA वनवाशबहन For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७४१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ए प्रमाणे उपर बतावेली नीतिए ते वधा एकांत वादीओनो धर्म तेओए योग्य रीते कह्यो नथी, तेम | शास्त्र प्रणयनवडे सारी रीते प्रज्ञापित पण नथी, हवे समाप्त करे प्र० - पोतानी बुद्धिए तमे आ केम कहो छो ? उ० – नहीं, अथवा वादी पूछे छे के जो ते वादीओनो एकांत पक्ष बरोबर कहेलो नथी, तो केवो धर्म सुप्रज्ञापित थाय छे. तेथी जैनाचार्य (गणधरो ) सूत्र कहे छे: सेजयं भगवया पवेइयं आसुपन्त्रेण जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स तिबेमि सवत्थ समयं पावं, तमेव उवाइकम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामेव । अदुवा रण्णे नेत्र गामेनेव रण्णे धम्ममोयाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा तिन्नि उदाहिया जेसु इमे आयरिया संबुज्झ माणा समुट्टिया, जे निव्वुया, पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया (सू० २०० ) वस्तु स्याद्वादरुप लक्षण वधा व्यवहारने अनुसरनारुं कोइपण वखत न हणानारुं ( सर्वत्र जय पामेलु ) भगवान महावीरे | कहेलुं छे अथवा हवे पछीनु कहेवानुं पण महावीर प्रभुए कहुं छे. ते केवा छेउ केवळज्ञान होवाथी तेओ आशुपज्ञावाला छे अर्थात् तेओ सदा उपयोगवाळा छे. प्र०—न्ने उपयोग साये छे के ? उ० – नहीं, कारण के ज्ञान उपयोगधी जाणता, तथा दर्शन उपयोगथी देखता महावीर प्रभुए कह्या छे. तेवो धर्म एकांतवादीओए को नथी. अथवा गुप्ति ते वाचानी छे. एटले भाषा समिति जाणवी ने भगवान महावीरे वहां के दरेके भाषा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७४१॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 समिति राखबी. (विचारीने बोलवू) अथव। अस्ति नास्ति ध्रुव अध्रुव विगेरे बोलनारा वादीओ वाद करवाने माटे तैयार थयेला आचा० 6 जेओ त्रणसो तेसठनी संख्यावाळा छे. तेवा त्रणसो तेसठनी प्रतिज्ञा हेतु दृष्टांत उपन्यासना द्वारवडे भूलो बतावी तेमनुं गीतार्थ द्रा सुत्रम साधुए समाधान करवू. अथवा वचननी गुप्ति साधुए राखवी तेनु स्वरुप हु कहुं छु. अने हवे पछी कहीश. ते वादीओ जे वाद क॥७४२॥ रवा आवे तेमने आ प्रमाणे कहेवु. जेम तमारा बधामां पण पृथ्वी पाणी अग्नि वायु बनस्पतिनो आरंभ करवो, कराववो, अनुमोदवो 51७४२॥ ४ एम संमति आपी छे. एथी वधी जग्याए आ पाप अनुष्ठान छे. एम अमारो मत छे. अर्थात् तमे ते हिंसाने पाप मानता नथी, पण * जीवोने दाखरुप होवाथी अमे तेमने जैनमत प्रमाणे पाप मानीए छीए. ते कहे छे. ___'तदेव'-आ पाप अनुष्ठान छोडीने हुँ रह्यो छु एज मारो विवेक छे. [जे वीजाने दुःख देवान छोडे छे, तेज पोते पापथी ब चेलो छे. अने तेज धर्म कहेवाने योग्य छ] तेथी हुँ वधाथी अप्रतिसिद्ध आस्रवद्वारोवाळा साथे केवी रीते भाषण करु. (जे जीवोने NI बचाववा चाहे ते हिंसकांनी साथे केवी रीते बाद करी शके?) तेथी वाद करवो दूर रहो. ए प्रमाणे असमनुज्ञ [ असंमति ] नो विवेक करे छे. प्र०.-अन्य तीथिओ पापनी संमतिवाळा अज्ञानी मिथ्या दृष्टि चारित्र रहित अने अतपस्वी छे तेवु केवी रीते मानो छो? कारण के तेओ न खेडाएली भूमि उपर जे वन छे तेमां वास करनारा छे. कंदमुळ खानारा छे. अने झाड विगेरेना आश्रये त रहेनारा छे अहीं जैनाचार्य कहे छे. उ.-अरण्यवासथीज धर्म नथी पण जीव अजीवना संपूर्ण ज्ञानथी तथा तेमनी रक्षानां अनुष्ठान करवाथी धर्म छे अने तेवो ६ धर्म तेमनामां नथी, तेथी तेओ असमनोज्ञ छे (उत्तम साधु नथी) वळी सारा माठानो विवेक जेमा होय जे धर्म छे अने तेवो धर्म Seaबबालपनमा For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा गाममां पण थाय अने अरण्यमां पण थाय पण धर्मनु निमित्त के धर्मनो आधार गाम के अरण्य नथी, जेथी भगवाने रहेवासने सूत्रम् आश्रयी के बीजी रीतनो आश्रय लइने धर्म बताव्यो नथी, तेमनुं कहे, ए छे के प्रथम जीवादि तत्वन ज्ञान मेळवयु अने सम्यग ॥७४३॥ अनुष्ठान करवां के सर्व जीवोने अभयदान मळे ते धर्म छे. ते धर्मने तमे बरोबर जाणो एवं भगवान महावीरे का छे. प्र०-भग-16॥७४३॥ 18/ वान केवा छे ? उ०-मनन ते बधा पदार्थोनुं परिज्ञान छे तेज मति छे अने ते मतिवाळा (केवळज्ञानी) भगवाने कहुं छे. ०-केवो धर्म कह्यो छे ? उ.-याम ते महावतो छ तेमां त्रण बताव्या छे. जीव हिंसा जुठ अने परिग्रह ते त्रणेनो त्याग ते याम छे. ते परिग्रहमां अदत्तादान अने मैथुन समाच्या छे माटे पांचने बदले त्रण संख्या कही छे. अथवा याम ते नय (उमर) | नी अवस्था छे. जेमके आठ वरसथी त्रोस अने त्यारथी साठ सुधी बीजी अने त्यारपछी त्रीजी एमां दिक्षा लेवाने अयोग्य एवा तद्दन नाना आठ वरसनी अंदरना अने छेकज बुढानो समावेश न कर्यो. (जुदा काठ्या) अथवा जेनावडे संप्तार भ्रमण विगेरे दूर थाय ते याम ते ज्ञानदर्शन चारित्र छे. एम यामनी त्रण प्रकारे त्रणनी संख्यानो अर्थ को. (एटले महावत पाळवां त्रण अवस्थामां 12 धर्म करवो. अने रत्नत्रय ज्ञान विगेरे प्राप्त करवां) हा जो आ प्रमाणे छे तो शुं करवं. ते त्रण अवस्थामां अथवा ज्ञान विगेरेमा आर्य देशमा उत्पन्न ययेला अथवा पाप धर्मो दूर करनारा बोध पामेला चारित्र पाळवा तैयार थयेला साधुओ छे. तेओ केवा छे.? ते बतावे छे. जेओ क्रोध विगेरे दूर करीने शांत थयेला छे अने पाप कर्ममा जेो वासना राखता नथी तेज उत्तम साधुओ (मोक्षना अधिकारीओ) छे. प्र०-तेो कइ जग्याए पाप कर्ममा वासना रहित छे.? ते बतावे छे.! CASSAGE ACCORE. For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥७४४॥ उर्ल्ड अहं तिरियं दिसासु सवओ सव्वावंति च णं पाडियक जोवेहि कम्मसमारम्भे णं तं परिन्नाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंड समारंभिज्जा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समा- 18 सूत्रम रभाविजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंड समारम्भतेऽवि समणुजाणेजा जेवऽन्ने एएहिं काएहिं ७४४॥ दंडं समारम्भति तेसिपि वय लज्जामो तं परिन्नाय मेहावी तं वा दंडं अन्नं वा नो दंडंभी दंडं समारमिजासि तिबेमि (सू० २०१) विमोक्षाध्ययनोदेशकः ८-९ ॥ उंचे नाचे के तिरछी दिशामां बधा प्रकारे जे जे दिशाओं छे अने च शब्दथी विदिशा [खुणा] छे, तेमां एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर 81 विगेरेमा जे कर्मोनी समारंभ छे. अर्थात् जीवोने दुःख देवा रुप जे क्रियाओनो समारंभ (संसारा कृत्य) छे. ते बधा कर्म समारंभने ज्ञ परिज्ञा बडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञा बडे त्याग करवा. प्र०-कोण त्याग करे. ? उ०-मर्यादामा रहेलो बुद्धिमान साधु. ५०-केवी रीते त्यागे ? उ०-पोते पोताना आत्माथीज चौद भूतग्राममा रहेला पृथ्वीकाय विगेरे जीवोने दुःख रुप आरंभ न करे. पण वीजा पासे | पण आरंभ न करावे. तेम आरंभ करनानी अनुमोदना न करे. (सूत्रमा छटी विभक्ति छे. तेनो अर्थ त्रीजीमां लइए तो) ते हिंसाना करनाराओथी अमे शरमाइए छीए. एवो उत्तम विचार करीने साधु पोते मर्यादामां रहीने तथा कर्मनो समारंभ मोटा अनर्थ माटे छे, एम जाणीने पोते ते कर्म समारंभ छोडे. तथा जुठ वववस्वानलमा For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७४५॥ www.kobatirth.org विगेरे दंडथी पोते डरे. तेथी दंडभीवाळो साधु जीवोने दुःख रूप दंडनुं कंड पण कार्य न करे अर्थात् कर कराव अनुमोदं ते त्रण करण अने मन वचन काया एत्रण योग छे. लेना वडे त्यागे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे. पहेलो उद्देशो समाप्त. & बीजो उद्देशो, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहेलो उद्देशो कह्यो, हवे बीजो कहे छे तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां पाप रहित संयम पाळवा माटे कुशीलनो | परित्याग बताव्यो आ परित्याग अकल्पनीयना परित्याग विना संपूर्णपणाने न पामे. माटे साधुने अकल्पनीयना परित्यागनो विषय बतावनार आ उद्देशो कहे छे. एवा संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. से भिक्खू परिकमिज वा चिट्टिज्ज वा निसाइज वा तुयहिज्ज वा सुसाणंसि वा सुन्नागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कुमाराययणसि वा हुरत्था वा कहिंचि विहरमाण तं भिक्खु उवसंकमितु गाहावई वूया - आउसंतो समाना! अहं खलु तव अडाए असणं वा पाणं वा खइमं वा सइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पाणाई भूया जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिश्रं अच्छिनं अणिसट्टे अभिहडं आ For Private and Personal Use Only 66 सूत्रम् ॥७४५ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECE ह१ चेएमि आवसहं वा समुस्सिणोमि से भुंजह वसह, आउसंतो समणा ! भिक्खू तं आचा० गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे-आउसंतो? गाहावई नो खलु ते वयणं आढामि सूत्रम नो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्टाए असणं वा ४ वत्थं ४ पाणाई वा ४ ॥७४६॥ ॥७४६॥ सणारम्भ समुहिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज अणिसह अभिहडं आहट्ट चेएसि आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरओ आउसो गाहावई ? एयस्स अकरणयाए (सू० २०२) __सामायिक उच्चरेलो ते साधु सावध अनुष्ठान छोडवाथी मंदर [ मेरु ] पर्वते चडवा समान प्रतिज्ञा करेलो भिक्षाथी जीवन 8 गुजारनार साधु-भिक्षा लेवा के बाजा कार्य माटे पराक्रम (विहार) करे, अथवा ध्यानमा लीन थइने उभो रहे, अथवा भणबुं भणाव, अथवा सांभळq के संभळावq होय त्यारे बेसे, तथा कोइ जग्याए मार्गमां थाकतां आडो पडे (मुइ रहे) प्र०-आ बधुं कइ जग्याए करे ? ते बतावे छे-मशाण एटले ज्यां मुडदां दाटे बाळे ते स्थान, (जेनुं बीजुं नाम पितृवन) छे तेमा सुवार्नु संभवे व नहि, माटे यथायोग्य ज्यां घटे, ते लेचु, ते विचारतां गच्छ वासीओने ते मशाण विगेरे स्थान कल्पतां नथी, कारण के तेवा स्थाHनमा रही प्रमाद थतां व्यंतर विगेरेनो उपद्रव थाय छे, तथा जिनकल्पी मुनि थवानी सत्व भावनाने भावगार स्थविर कल्पी मुनिने पण मशाणमां निवास करवानी संमति आपी नथी, पण प्रतिमाधारी मुनिने तो ज्यां सूर्य आथमे त्यांज रहेवानुं छे, तेवाने आश्रयी 1 अथवा जिनकल्पी मुनिने आश्रयी मसाणवें स्थान मूत्र प्रमाणे समजवं, ए प्रमाणे ज्यां जेनो संभव थाय. त्यां ते योजq. शून्यागार स्ववादावन For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -ॐ आचा० X (उज्जड घरमां) रहे; अथवा, पर्वतनी गुफामां अथवा झाड नीचे अथवा, कुंभारनां स्थानमा अथवा, गामनी बहार कोइ पण जग्याए सूत्रम् मतं साधु कोइ. वखत विहार करे; तेने घरनो मालिक आवीने साधुनी जग्यामां जइने बोले. जे बोले ते बतावे छे. ॥७४७॥ मसाण विगेरे स्थानमा परिक्रमण निगेरे क्रियाने करता साधु पासे कोइ त्यां पडेला उभो रहेल कोइ माणस स्वभावथी भद्रक 8/॥७४७॥ जीव अथवा समकीत बारी श्रावक गृहस्थ होय, ते साधुना आचारमा अजाण होय; ते साधुने उद्देशीने कहे. आ आपेलो आहार X MI खानारा छे. आरंभ छोडेला छे. अनुकंपा लाववा योग्य छे अने एटलुं छतां, तेओ सत्य शुचिवाळा (स्नान रहित) छे. माटे, एमने | | आपेलं अक्षय फळ आपनार छे माटे, हुं तेमने दान आपोश. एम विचारीने साधु पासे आवे अने बोले. हे अयुष्मन् ! हे साधु ! हुं संसारसमुद्र तरवानी इच्छावाळो तमारे माटे भोजन, पाणी खादिम, तथा स्वादिम वस्तु लावू; अथवा वस्त्र, पात्रां, कांबळ, जाहरण, विगेरे बनावीने लावू, अर्थात् आम कहीने ते गृहस्थ शुं करे ? ते कहे छे. पंचेन्द्रिय जेओ श्वास ले छे, ते पाणीओ छे. तथा त्रणे काळमां थया, थाय छे अने थशे. ते भूत छे, तथा जीवता हता, जीवे छे, अने जीवशे; ते जीवो छे. तथा सुख दुःखमा सक्त छे | ते सत्त्वो छे. तेमनो आरंभ करीने लावे; तेमां भोजन विगेरेना आरंभमां पाणीनुं उपमर्दन अवश्य थवानुं छे. आ गृहस्थोनु कहेलं 81 बधुं अथवा थोडुं, कोइ साधु स्वीकारी ले. माटे खुलासो करे छे. आ अविशुद्धि कोटि लीधी छे ते बतावे छे. आहा कम्मुद्देसिभ मीसज्जा वायरा य पाहुडिआ। पूइअ अज्झोयरगो उग्गमकोडी अ छन्भेआ॥१॥ अधाकर्मी उद्देशीक मिथ, अने बादर भाभृतिक पूति अने अध्व पूरक, उमद्कोटी आ छ भेदो ते, अविशुद्धि कोटि छे. - (आ दशकालिक मूत्रनी पांचमा अध्ययननी नियुक्तिनी गाथा छे. तेमां मूचव्यु के, जे कार्यमां जीवोने साक्षात हणे; ते For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 साधु निमित्ते थवाथी अविसुद्धि कोटि छे.) हवे. विशुद्धि कोटि बतावे छे. मूल्यथी लीधेलु, उधारे लीधेलं, छीनवी लीधेलं. जेम || आचा० त कोइ राजा गृहस्थ पासेथी साधुने आपवा माटे छीनवी ले. तथा पारकानुं बदले लीधेलु आव कोइ साधुने दान देवा माटे करे; सत्रम तथा पोतानां घरथी साधुना सामे लावीने आपे; ते विशुद्ध कोटी छे. (आमां साक्षात् जीव हिंसा साधु माटे थती नथी. माटे, वि॥७४८॥ शुद्ध कोटी) आ प्रमाणे साधुने आपवा कोइ बोले; तथा हुँ तमारे माटे उपाय बनावीश; अथवा सुधरावीश. ए, बोले; अने ते ॥७४८॥ दगृहस्थ हाथ जोडीने माथु नमावीने आहार विगेरेनी निमंत्रणा करे अने बोले हे साधु ! आ भोजन वापरो; मारां सुधारेलां घरमां रहो; ते वखते साधु जे मूत्र अर्थनो भणेलो विद्वान होय; तेणे दीनतावाळु मन न करता तेने ना पाडवी; ते माटे गुरु शिष्यने B कहे छे:-हे आयुष्मन् ! हे साधु ! हे भिक्षु! ते गृहस्थ बुद्धिमान होय; मित्र होय; अथवा बीजो कोइ होय तेने साधुए केवो उत्तर आपवो? ते यतावे छे, हे आयुष्मन् ! हे गृहस्थ ! तमारं ए वचन हुं स्वीकारतो नथी. ('खलु' अपिना अर्थमां छे, अने ते समुच्च-16 यना अर्थमां छे.) मारे साधुनो आचार जे पाळवानो छे, तेनुं ज्ञान मने होवाथी हुं स्वीकारुं नहीं. तुं मारे मारे जीवोने दुःख देवा रुप भोजन विगेरे बनावे, अथवा उपाश्रय बनावे; तो मने ते कल्पे नहीं. कारण के, हे आयुष्मन् ! हे गृहपति ! तेवा आरंभ करा-18 तवा रूप अनुष्ठानथी हुँ मुक्त थयेल छु.. माटे जाणी जोइने हुं केवी ते स्वीकारुं ? माटे हुं स्वीकारतो नथी. आ प्रमाणे भोजन विगेरेना संस्कारनो साधुए निषेध 18 को. पण जो, कोइ गृहस्थ प्रथमथी तेवो साधुनो अभिप्राय जाणीने छानुन तेवु भोजन, विगेरे करे अने साधुने आपे; तो पण, 8 साधुए बुद्धि बळथी कोइ पण रीते जाणीने तेनो निषेध करवो ते बतावे छे. वाकवाकAIRS For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७४९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भिक्खु परिकमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गा हाई आगाए हाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहहु चेएइ आवसहं वा समुल्सि - oाइ भिक्खू परिघासेउं तं च भिक्खु जाणिजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा सुच्चा - अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आवसहं वा समुस्लि ors, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिबेमि ( सु० २०३ ) ते साधु मसाण विगेरेमा कोइ स्थाने विचरतां कोइ गृहस्थ मळतां ते हाथ जोडीने प्रकृतिवी भद्र होय; ते मनमा विचारे के हुं आ साधुने गुप्त रीते आरंभ करीने गोचरी विगेरे आपीश. प्र०-शा माटे ? उ०- ते साधुने आहार करवा माटे आपीश; अथवा, साधुओने रहेवा माटे मकान बनावी आपीश. ते साधु माटे बनावेल आहर विगेरे दोषित छे एन साधु जाणी ले. प्र० - केवी रीते जाणे ? पोतानी ताक्ष्ण बुद्धिथी अथवा, तीर्थङ्करे बतावेला उपायोथी अथवा, बीजा माणसां एटले, तेना नोकर चाकर विगेरेने पूछीने जाणो ले के आ गृहस्थ मारे माटे आरंभ करीने आहार विगेरे अथवा, उपाश्रय आपे छे, आबु बोजा पासे साधु सांभळे तो ते वातनी खात्री करीने ते साधु कहे के, आ अमारे माटे बनावेलुं छे तेथी कल्पतुं नथी; माटे, हुं नहीं लड़ें. जो आवुं करनार श्रावक होय; तो तेने हुंकाणमां पिंड निर्युक्तिनुं स्वरुप समजावकुं. बीजो, भद्रक स्वभावनो होय तो तेने निर्दोष भोजनना दाननुं फळ बतावे; तथा गोचरीना सोळ उद्गम विगेरे दोष बतावे; For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७४९ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम 5॥७५०॥ 18/ तथा यथाशक्ति ते संबंधी धर्मकथा कहे छे:आचा० काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सद्भ्यः ॥१॥ दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेच महान्तं न्यग्रोधं मत्फलं कुरुते ॥२॥ ॥७५०॥ दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रार्पितेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥३॥ योग्य काळ देशमा साधुने कल्पे तेवू श्रद्धा सहित शुद्ध मनथी उद्यमवाळा थइने प्रामुक दान उत्तम साधुओने आपq (१) उत्तम पुरुषो जे गुणमां अधिक छे, तेमने विनय वडे थोडं पण, आपेलुं दान मोटुं फळ आपे छे. जेम-बडनी कणिका नानी छता, वडनुं झाड सांरां फळवाळु बनावे छे. (२) तीक्ष्ण बुद्धिबाळा पात्रमा योग्य दान आपीने दुःख समुद्रने तरे छे. जेम-मगरनां स्थानवाळो मोटो समुद्र होय; तेने वेपारीओ & नानां वहाण वडे तरी जाय छे. (३) आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे, अने हवे पछीनुं पण तेओ कहे छे:भिक्खु च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकारह विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया णमेणलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपु GEOGRAASANSAR SC-SALAIMERUAR For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | वेण संमं पडिलेहए आयतगुत्ते बुझेहिं एवं पवेइयं (सू० २०४) आचा MI ('च' समुच्चयना अर्थमां छे. 'खलु' वाक्यनी शोभा माटे छे.) ते भिक्षाना आचारवाळा साधुने कोइ कहे:-हे साधु ! हुं तमारे || सारसूत्रम् ॥७५१॥ IPI माटे भोजन विगेरे अथवा उपाश्रय विगेरे तैयार करावीश; अथवा सुधरावीश. साधुए तेने संमति न आपी होय; तो पण, ते क-181 ॥७५१॥ रावे; अने मीठां वचन, अथवा बळात्कारथी हुँ साधु पासे ग्रहण करावीश एवं माने; अने बीजो कोइ गृहस्थ साधुना थोडा आचारने जाणतो होय; ते पूछ्या विनाज छान कार्य करे; अने विचारे के, हुं तेमने भोजन विगेरे आपीश. हवे ते न भोगववाथी श्रद्धाना भंग थवाथी अथवा, मधुर सेंकडो वचनना आग्रहथी, अथवा क्रोधना आवेशथी निश्चयथी सुख दुःख पणे अवलोक जाणनारो आ साधु छे. एम जाणीने पश्चाताप पूर्वक राजानी आज्ञा लइने न्यकार भावना पामेलो द्वेषी बनीने ते साधुने मारे पण खरो ते बतावे लाछे. अने एक बतावस्थी घणानो आदेश छे तेथी जेओ आ पूछीने अथवा विना पूछे आहार विगेरे लाववामां घणु द्रव्य खरचीने || साधुने अर्पण करे, अथवा द्रव्य खरची बनावेलु भोजन विगेरे साधुओ न ले; तो तेमने ते गृहस्थ क्रोधी बनीने पीडा करे छे. प्र.-केत्री रीते ? उ०—कहे छे. ते शेठ विगेरे क्रोधी बनीने पोते साधुने मारे छे. अथवा, मारवा माटे बीजाने प्रेरणा करे | छे, अने बोले छे के-आ साधुने दंडा विगेरेथी मारो तथा एना हाथ पग कापीने घायल करो; तथा अनि विगेरेथी बोळो; तथा टा & मना साथळनुं मांस पकायो; तेनां वस्त्रो विगेरे लूटी ल्यो; तथा तेनुं बधुं छीनवी ल्यो. एकदम बधु प्रहार वडे करावो; शीघ्र पंचत्व 12 (मरण) पमाडो; तथा, दुःख देवाना जुदा जुदा विचार करोः जुदी जुदी पीडाथी बाधा करो. आ प्रमाणे हुकम करवाथी ते साधुने बीजाओ अनेक प्रकारे दुःखना स्पर्शो करे; तो पण, धीर बनीने ते फरसोने फरशी शांतिथी सहन करे. तथा बीजा भूख तरस SHA उEAA5 For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५५ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विगेरेना परिषहो आवे; ते पण सहे; पण; परिषद उपसर्ग आवेथी कंटाळीने विकलकता (खेद) पामीने तेनो उद्देशिक विगेरे दोषित आहारनी अभिलाषा न करे; अथवा, सांत्ववाद (मीठां वचन) विगेरे अनुकुळ उपसर्गोथी ललचावतां पण, अशुद्ध आहार न ले. जिनकल्पी मुनि तो आचार पाळे पण, तेनाथी जुदो स्थविरकल्पी साधु पण सामर्थ्य होय; तो, पोतानो निर्दोष संयम पाळे, ते कहे:— जुदा जुदा उपसर्गोथी थती पीडाओने सहे; अथवा, साधुओना आचारना विषय (अनुष्ठान ) जे मूळ गुण उत्तरगुणना भेद संबंधी छे ते समजावे; पण, ते समये नयां वडे द्रव्य विचार समजाववा न बेसे, तेमां पण, मूळ गुणोनी स्थैर्यता माटे उत्तर गुणाने (विशेष प्रकारे समजावे; अने तेमां पिंडेपणानी विशुद्धि समजावे; अने आ स्थळे पिंडेषणा सूत्रोने समजाववां जोइए. बळी, कहे के. यत्स्वयमदुःखितं स्यान्न, न च परदुःखे निमित्त भूतमपि । केवलमुपग्रहकरं, धर्मकृतेतद् भवेद्देयम् ||१|| जेथी, पोते दुःखो न थाय; तेम. बोजानां दुःखमां पोते निमित्तभूत पण न थाय. फक्त धर्म करवा माटे आश्रय आपनाएं निर्दोष भोजन विगेरे होय; तेज साधुओने आपवानुं छे. शुं बधा पुरुषोने आ बधुं कहेतुं ? उ० – ना. आवनार पुरुष संबंधी विचार करीने कहेतुं के आ पुरुष कोण छे ? कोने माने छे? आग्रहवाको के, आग्रह रहित छे ? मध्यस्थ छे ? भद्रक छे ? एम बधुं विचारीने यथाशक्ति कहे अने शक्ति होय; तो, पांच अवयव अथवा, बीजी रीते ए प्रसिद्ध करे के, स्वपक्षनी स्थापना थाय; अने पर पक्षनी योग्य रीते भूलो बतावी तेने सुधारे. एव अनन्य सदृश वचन कहे. पण साधु पोते सामर्थ्य रहित होय; अथवा, सामेनो माणस तत्त्वनी वात संभळावतां बधारे कोपे तेम होय, अथवा, अनुकूळनो प्रत्यनीक होय; तो वाक् गुप्ति (मौन) राखवी ते कहे छे. एटले, साधु बुद्धिमान होय; अने सांभळनार इच्छा For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७५२॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५३॥ www.kobatirth.org राखे, तो, साधुनो निर्दोष संयम बताववो, पण तेम न होय तो, मौन राखीने पोताना आत्मानुं हित विचारतो पिंड विशुद्धि विगेरे आचारना विषयने उद्गम दोष विगेरेथी दोषित छे के नहि ? एम बीजाथी पूछी लइने सम्यक् शुद्धि विचारे. प्र० – केवो बनीने ? उ०- आत्म गुप्त ते, सदा पोताना संयममां उपयोग राखनारो बनीने विचरे, आ में नथी कहाँ ते सुधर्मास्वामि कहे छे. 'बुद्धैः' ते कल्प्य अकल्प्यनी विधि जाणनारा तीर्थङ्कर विगेरेए उपर बतावेलुं कं छे. तथा हवे पछीनुं पण तेमनुं कहेलुं छे. से समणुन्ने असमणुन्नस असमणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिजा नो कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू० २०५) फक्त, गृहस्थ अथवा कुशीलीया पासेथी अकल्प्य एम जाणीने आहार विगेरे न ले, तेमज, उत्तम साधु ढीला साधुने पूर्वे बतावेल आहार विगेरे पोते पण जे शुद्ध लावेलो होय ते न आपे; अथवा, तेवा पतितो बहु आदरमानथी आहार विगेरे आपे; अथवा बीजी रीते ललचावे; तो पण, तेमनी वैयावच्च न करे; त्यारे पोते केवो बने ? अने कोनी वैयावच्च करे ते कहे छे: धम्मायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुन्नस्स असणं वा जाव कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे (सु० २०६ ) तिबेमि ॥८-२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरु कहे छे - हे शिष्यो ! तमे केवळी वर्द्धमान स्वामिए कहेला दान धर्मने जाणो, समनोज्ञ साधु ते योग्य विहार करनारो होय ते अपर समनोज्ञ चारित्रधारी संत्रित होय, समाचारमां रही साथे गोचरी करतो होत्र, तेवाने अशन विगेरे चार प्रकारनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७५३ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५४॥ www.kobatirth.org आहार, वस्त्र पात्र विगेरे चार प्रकारनुं द्रव्य आपे, तथा ते आपवा माटे निमंत्रणा करे, अथवा पेशल वैयावच्च करे अर्थात् अंगमर्दन (चोळ चांप) विगेरे पण करे, पण एथी विरुद्ध आचारवाळा जे गृहस्थों कुतीर्थिओ पासत्थाओ असंविग्र असमनोज्ञ साधुओ होय, तेमने आपे नहि, परंतु समनोज्ञनेज पोते आपे, तथा अतिशे आदर सत्कार करीने तथा ते वस्तु माटे सीदातो होय, अथवा तपेलो होय, तो तेनी योग्य रीते वैयावच्च करे, आथी एम बताव्युं, के गृहस्थ तथा कुशीलीया साधुनी वैयावच्च न करवी, आहार | विगेरे न आपवा. पण आटलं विशेष छे, के गृहस्थ पासे जे कल्पनीय छे ते लेवुं अने अकल्पनीयनोज निषेध छे, पण असमनोज्ञ साधु पाथी तो सर्वथा लेवानो निषेध कर्यो. आमदाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. विमोक्ष अध्ययनमां बीजो उद्देशो समाप्त थयो. -ale श्री जो उद्देशो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो का पछी भोजो उद्देशो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां अकल्पनीय आहार विगेरेनो निषेध कह्यो. तथा तेना निषेधथी अपमान मानीने कोइ कोप करीने मारवा तैयार थाय, तेने दान केवी रीते देवु ते यथावस्थित दान विधिन प्ररूपणा साधुए करवी, तेम आ उद्देशामां पण आहार विगेरे निमित्त माटे घरमा पेठेला साधुनुं अंग ठंड विगेरेथी कंपतुं देखीने गृहस्थने उलदुं समजाय के आ साधु काम चेष्टादिना कारणे धूजे छे, तेवा गृहस्थने यथावस्थित स्वरूप बतावीने गीतार्थ साधुए तेनी खोटी शंका दूर करवी. आ प्रमाणे आवा संबंधे आवेला उद्देशानुं सूत्रानुगममां सूत्र उच्चारखं जोइए ते कहे छे. मज्झिमेणां वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया For Private and Personal Use Only सूत्रम ।।७५४।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समिया धम्मे अरिएहिं पवेइए ते अणवकखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सवाति चणं लोगंसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुवमाणे एस महं अंगथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयन्ने उत्रवायं चवणं च नत्रा (सू० २०७) अहीं त्रण अवस्थाओ छे. जुबानी मध्यम वय, अने वृद्धावस्था छे, तेमां मध्यम वयवाळ परिपक्व (स्थिर) बुद्धिवाको होवाथी धर्मने योग्य छे, ते प्रथम बतावे छे, केटलाक मध्यम वयमां बोधपामेला धर्म चरण माटे तैयार थरला ते समुत्थित जाणवा. जो के युवावस्था के वृद्धावस्थामां दीक्षा लेनारा होय छे, छतां पण, बाहुल्यताथी तथा प्राये मध्यम अवस्थामां भोग तथा कुतूहलनी इच्छा दूर थयेल होवाथी अविघ्नपणे धर्मनो अधिकारी थाय छे. माटे मध्यम वय लीधी छे. प्र०—- केवी रीते बोध पामेला तैयार थया छे ? उ० – कहे छे. अहीं त्रण प्रकारना बोध पामनारा जाणवा. (१) स्वयं बुद्ध (२) प्रत्येक बुद्ध, (३) बुद्धबोधित. ते त्रणमां अहीं बुद्धबोधितनो अधिकार छे, ते कहे छे. 'मेघावी' ते मर्यादामां रहेल बुद्धिमान साधु पंडितो (तीर्थङ्कर) विगेरेनुं हित ग्रहण करतुः अहित छोडवुः ए वचन प्रथम सांभळीने पछी विचारीने समताने धारण करे. प्र० - शा माटे ? उ० – कारण के समता एटले मध्यस्थपणुं धारीने आर्य तीर्थंकर विगेरे ए प्रकर्षथी श्रुति चारित्ररुप धर्म कलो छे. अने मध्यम वयमां तेपणे धर्म सांभळीने बोध पामीने चारित्र लेरा तैयार थयेला छे. ते शुं करे ते कहे छे. तेओ दीक्षा लइने मोक्ष तरफ प्रयाण करी काम भोगोने त्यागी तथा जीवोने दुःख न दइने परिग्रहने धारण न करता विचरे. (पहेलुं छेल्लुं For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७५५ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेवाथी बचलां त्रण आवे छे.) तेथी जुठ न बोलता चोरीने त्यागी ब्रह्मचर्य पाळता विचरे एवा साधुओ पोताना देहमां पण ममत्व त्यागे छे, एमज बधा लोकने विषे कोइपण जातनो परिग्रह तेओ राखता नथी. (च समुच्चयना अर्थमां छे. अने ते भिन्न क्रम बतावे छे. णं वाक्यनी शोभा माटे छे.) वळी प्राणीओने दंडे ते दंड छे. अने ते दंड बीजा जीवने परिताप करनार छे. ते दंडने प्राणी तरफ अथवा प्राणी विषे नांखवाथी पाप थाय कर्म बंधाय तेथी ते पाप रुप कर्म ते अहार प्रकारनुं छे. तेने पोते उत्तम साधु आचरतो नथी. तथा वाह्य अभ्यन्तर ग्रन्थ छे तेने त्यागवाथी तेवा साधुने तीर्थङ्कर गणधर विगेरेए अग्रंथ (निर्ग्रन्थ) कह्यो छे. प्र० - आवो कोण थाय ? उ० – 'ओजः ते अद्वितीय एटले रागद्वेप रहित होय छे, तथा द्युतित्राको एटले संयम अथवा मोक्ष | छे तेना खेदने जाणनारो छे. अने ते निपुण होवार्थी देवलोकमां पण उपपात च्यवन छे. एम जाणीने विचारे छे के वध संसारी स्थान अनित्य छे. एवी बुद्धिधी पोते पाप कर्मने वर्जनारो थाय छे. केटलाक पुरुषो तो मध्यम वयमां पण चारित्र लीवेला परिषह तथा इन्द्रियोथी ग्लानता पामे छे. ते बतावे छे. आहारोवचया देहा परीसहप भंगुरा पासह एगे सविदिएहिं परिगिलायमाणेहिं (सु० २०८) आहारथी उपचय थाय ते आहारोपचय छे. प्र०—ते कोण छे ? उ० – देहो छे. ते देहो आहारना अभावमां झांखाश लावे छे अथवा ते नाश पामे छे. ते प्रमाणे परिहो आवेथी भंगुर छे. तेथी आहारथी देहो पुष्ट थया छतां पण परिषहो आवतां अथवा वायु विगेरेना अटकावथी ग्लानी पामे छे. एटले गुरु शिष्य ने कहे छे. हे शिष्यो तमे जुओ के केटलाक बधी इन्द्रयो झांखी पडतां कलीबताने पामे छे. ते बतावे छे. भूखथी For Private and Personal Use Only सूत्रम ।। ७५६।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥७५७॥ आचा०18 पीडाएलो देखतो नथी, सांभळतो नथी, मुंघतो नथी, विगेरे जाणवं. तेमां आहार विना केवळी पण शरीर ग्लान भाव पामे छे. तो ते सिवायना बीजा जे स्वभावधीज भंगुर शरीरवाळा छे तेन कहेवू ? ॥७५७॥15 प्र-केवळी विनाना साधुओ अकृतार्थ छे, अने क्षुधा वेदनीयनो सद्भाव छे. तेथी तेओ आहार करे छे अने दया विगेरे महावतो पाळे छे ए मानवु ठीक छे पण, केवळी तो नियमथी मोक्षमा जनार छे. त्यारे शा माटे शरीरने धारे छे ? अने ते धारण | करवा शुं काम खाय छे ? उ-तेने पण, चार अघाति कर्मनो सद्भाव छे. तेथी एकांतथी कृतार्थता नथी, अने तेनी खातर शरीर धारे छे ! अने आहा हार विना तेनुं धारण न थाय; तथा तेमने क्षुधावेदनीय कर्मनो सद्भाव छे माटे खाय छे. ते कहे छे:-वेदनीयना सद्भावथी तेना करेला ११ परिसहो पण, केवळी ने ओछा के वधा परिषहो उदयमां आवे छे तेथी केवळी पण खाय के.ए सिद्ध थयुं अने तेथीज आहार विना इन्द्रियोनी ग्लानता छे एम बताव्यु.आ प्रमाणे तत्त्वने जाणनारो परिसहथी पीडातो होय,छतां पण शुं करे ते कहे छे: ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालन्ने बलन्ने मायन्ने खणन्ने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुट्टाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता नियाई (सू० २०९) ___ ओज-ते एकलो रागद्वेष रहित बनीने भूख तरसनो परिषह आवे छते पण, दया (कृपा) पाळे (धारण करे) पण परिपहथी। पीडाता दया छोडी न दे. प्र०-क्यो पुरुष दयाने पाळे छे ? उ०-जे लघुकर्मा होय ते. जेनावडे सम्यक् रीते नारकी विगेरे SAXSS4A For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतिमां रखाय ते) संनिधान कर्म छे, तेना स्वरूपने जणावनार शास्त्र छे, तेनी निपुण खेदज्ञ छे, अथवा संनिधान कर्म छे, तेनुं शस्त्र संयम छे, तेना खेदने जाणनारो छे. अर्थात् संम्यक् संयमनो जाणनारो छे अने जे संयमनी विधि जाणनारो छे, ते भिक्षु काळज्ञ ते उचित अनुचित अवसरनो जाण छे आ वधां सूत्रोनो अर्थ 'लोक विजय' नामना बीजा अध्ययना पांचमा उद्देशामां बतावेल होवाथी त्यांथी जाणी लेवुं; तथा बलज्ञ, मात्रज्ञ क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, बधी बाबतमां निपुण साधु परिग्रहनो ममत्व त्यागी ने कालमां उत्थायी तथा अप्रतिज्ञ ( कदाग्रह रहित ) बनीने उभयथी (द्रव्य भावथी) ममत्ताने छेदनारो बनीने ते साधु संयम अनुष्ठानमां निश्चयथी वर्त्ते; तेने संयमअनुष्ठानमां वर्त्ततां शुं थाय? ते कहे छे:-- तं भिक्खु सीयफासपरिवेत्र माणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूया आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा- उब्वाहंति ? आउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उबाहंति, सीय फासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पड़ अगाणकार्य उज्जालित्तए वा (पजालित्तए वा) कार्य आयावित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परोअगणिकाय उज्जालित्ता पजालित्ता कार्य आयाविजवा, पायविज वा, तं च भिक्खू - पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए तिबेमि [सू० २१०] ॥ ८-३ ॥ अंतमांत आहारथी तेज रहित बनेला निष्किंचन तथा भिक्षाथी निर्वाह करनारा साधुने गरम अवस्थानी युवानी जतां योग्य For Private and Personal Use Only सुत्रम ॥७५८॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्त्र ठंड रोकवा जोइए; ते न मळवाथी ठंडथी कंपता शरीरवाळाने नजीक गृहस्थ मळतां शुं थाय ? ते कहे छे:- ते गृहस्थ ऐश्वर्यनी गरमीथी अहंकारी छे. कस्तुरीथी लेप कर्यो छे. उत्तम जातिना केसरना जाडा रसथी गात्र लींपेलुं छे. मीन मद आगुरु घन सार धूपित रल्लिकाथी लेपेला शरीरवाळो छे. अने जुवान सुंदरीओना संदोहथी वटायेलो छे. अने शीत स्पर्शनो अनुभव जेने नाश पाम्यो छे तेवो शेठीयो तेवा कंपता मुनिने जोड़ विचारे के आ मुनि मारी सुंदर स्त्रीओ जे देवांगनानी रूप संपदाने इसी काढे छे, तेने जोड़ने सात्विक भावने पामेलो धूजे छे के ठंडना लीवे? आवी रीते शंकामां पडेलो शेठ बोले, के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! पोताना आत्मानी कुलीनताने प्रकट करतो प्रतिषेध द्वारवडे पूछे छे के तमने भुं इन्द्रियोनी उन्मत्तता दुःख दे छे ? आवुं गृहस्थ पूछे तो तेनो अभिप्राय जाणीने साधुए कहेवुं, के आ गृहस्थने पौताना आत्माना अनुभव वडे अंगना (स्त्री)ना अवलोकनना प्रकट करेल भावथी खोटी शंका थइ छे, तो हुं तेनी शंका दूर करूं आ विचारी साधु बोले हे आयुष्मन् ! हे गृहस्थ ! मने इन्द्रियोनी उन्मत्तता नथीज बाघती; पण, तमे मा शरीर जे, कंपतुं जोयुं छे, ते फक्त ठंडनुंज कारण छे' पण ते कामदेवनो विकार नथी. अति ठंडनो स्पर्श सहन करवाने हुं शक्तिवान नथी. आ प्रमाणे साधु बोले त्यारे, ते गृहस्थ भक्ति अने करुणा रसथी भिजायला हृदयवाळो बनीने कहे केः - शीघ्र ठंड उडाडनार सारा बळेला अग्निने केम सेवतो नथी ? मुनि कहे:-मने अनिकाय सेक्व कल्पतो नथी; तथा सळगाववो पण कल्पतो नथी; तथा कोइए सळगावेलो होय तो, त्यां थोडो घणो ताप लेबो पण मने कल्पतो तथी; तेम बीजनां वचनथी पण, एम करनुं मने कल्पतुं नथी अथवा बीजाने अग्नि बाळवानुं कहेतुं पण मने कल्पतुं नथी. ते साधुने आवुं बोलतो | जाणीने ते गृहस्थ कदाच आवुं करे ते कहे छे: For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७५९ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६०॥ www.kobatirth.org गृहस्थ आमुनि पासे सांभळीने (पोतानी भक्तिथी) अनि सळगावीने भडको करीने साधुनी कायाने थोडी अथवा घणी तपावे, ते अग्नि सळगावचो मुनि देखे, ते पोतानी सुबुद्धिथी अथवा तीर्थङ्करना वचनोथी अथवा बीजा पासे तत्व समजीने ते गृहस्थ समजावे के आ अनि सेववो मने कल्पतो नथी, पण तमे साधु उपर भक्ति अने अनुकम्पाथी पुण्यनो समूह उपार्जन कर्यो छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोथो उद्देशो त्री जो कथा पछी चोथो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां गोचरी गयेला साधुने ठंडथी शरीर कंपतां गृहस्थने खोटी शंका थाय, तो साधुए दूर करवी, पण जो गृहस्थना अभावमा जुवान खोने साधुना उपर काम चेष्टानी खोटी शंका थाय, अने कुचालनी इच्छाथी स्पर्श करवा आवे, तो गळे फांसो खाइने अथवा गार्ध पृष्ठ विगेरे आपघातनुं मरण पण स्वीकार; ( पण खोड काम करवु नहिं ) आनुं उपसर्गनुं कारण न होय तो आपघात न करवो, ते बताववा आ उद्देशो कहे भा संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे. जे भिक्खु तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायच उत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ - चउत्थं वत्थं जाइसामि, से असणिजाई वत्थाई जाइजा अपरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा, नो धोइजा नो For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७६०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६१ ॥ www.kobatirth.org धोता त्थाई धारिज्जा, अपलिओत्रमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु सामग्गियं ( सू० २११ ) अह प्रतिमा धारी अथवा जिनकल्पी जे अछिद्र हाथ (लब्धि) वाळो मुनि जाणवो; कारणके, तेनेज पात्र निर्योग युक्त पात्र, तथा कल्पत्र (वनी) आवी ओघ उपधि होय छे, तेने औपग्रहिक (संथारीडं विगेरे) उपाधि होती नथी; तेमां ठंडमां शिशिर विगेरे ऋतुमा क्षौमि (सून) वे कपडा (२||) हाथ लांबा पहोळां होय छे, अने श्रीजुं उननुं होय छे, तेवा मुनिने ठंड विशेष होय तो पण, ते साधु बीजुं कपड़े इच्छतो नथी ते बतावे छे. जे भिक्षु त्रण कपडांथी निर्वाह करनारो छे, ते ठंडमां एक कपड़े ओढे छे. जो उन्ड वधारे लागे, अने सहन न थाय तो, बीजुं ओढे, ते बन्नेथी पण, घणी उन्डना लीधे न सहाय तो, त्रीजुं उननुं कपड़े पण ते बन्ने उपर ओढे छे. उनना कपडाने बहारना भागमां सर्वथा राखवं; अंदर तो, मूत्रनुज राखवं. ए त्रण वस्त्रो केवां छे ? ते बतावे छे. 'पात्र चतुर्थैः' पडता आहारने न पडवा दे ते पात्र छे, अने ते पात्र ना लेवाथी पात्रनो निर्योग सात प्रकारनो पण लीधो जावो कारण के तेन विना पात्र लेवाय नहीं. ते आ प्रमाणे छे: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arra free For Private and Personal Use Only पत्तं पत्ताबन्धो, पायट्टवणं च पायकेसरिआ । पडलाइ रत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो ॥ १ ॥ [१] पात्र [२] पात्रानुं बन्ध [३] पात्रानु स्थापन (४) पात्र केशरिका (पंजणी) (५) पडला (६) रज खाण [७] गुच्छो आ सात पात्रानो निर्योग छे. आ प्रमाणे सात प्रकारनो पात्र निर्योग तथा कल्प त्रण, तथा रजोहरण [ ओघो] मुखवत्रिका (मुहपत्ति) सूत्रम ॥७६१ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥७६२॥ ए पांच मेळवतां बार प्रकारनो उपधि छे. आ बार प्रकारनी उपधि धारण करनारने आवो विचार न थाय, के मने आ ठन्डी आचा रुतुमा त्रण वस्त्रोथी ठन्ड दूर थती नथी, माटे चोथु वस्त्र हुँ याची लावं. आम अध्यवसायनो निषेध करवाथी याचवू तो दूरथीज काढी नाख्यु. जो त्रण कल्प न होय, अने ठन्डी रुतु आवी पहोंची, तो आ जिन कल्पी विगेरे मुनि यथा एपणीय [निर्दोष] वस्त्रोनी ॥७६२॥ याचन करे. उत्कर्षण अपकर्षण रहित अपरि कर्मवाळां याचे तेमां [१] उद्दिछ, [२] पहे, (३) अंतर, [४] उज्झियधम्मा ए चार वखनी एषणा छे, तेमां पाछली बेनो अग्रह , बाकीनी बे लेवाय छे, तेमां कोइपण एकनो अभिग्रह होय छे. याचना करता शुद्ध वस्त्रो मळे, तो ले अने जेवां लीयां तेवांज पहेरे, पण, तेने उत्कर्षण के धोवू विगेरे परिकर्म न करे तेज बतावे छे. अचित्त जळ Pवडे पण न धुए स्थविर कल्पीने तो वर्षाद आव्या पहेला अथवा मंदवाडमां अचित्त पाणीथी यतनाथी धोवानी अनुज्ञा (संमति) छे, 3. पण जिनकल्पीने तेम धोवु न कल्पे, तेम प्रथम धोइने पछी रंगेलां कपडां होय ते पण न पहेरे, तथा बीजा गामे जतां वस्त्र संता-18 है ड्या विना चाले, अर्थात् अंत प्रांत (तदन सादा जीर्ण जेवां) वस्त्र धारे; के तेने चोरावाना डरथी ढांकी राखवां न पडे तेथीज जिनकल्पी मुनि अवम चेलिक छे; तेने चेल (वस्त्र) प्रमाणथी तथा मूळथी अवम [ओछी कमतनुं] होय; तेथी अवम चेलिक छे; (खु' अवधारणना अर्थमां छे,) आ प्रमाणे वस्त्रधारी जिनकल्पी मुनिने विकल्पवाळी अथवा बार प्रकारनी ओघ उपधिवाळी सामग्री होय छे. पण बीजी उपधि न होय; भने ठन्ड दूर थतां ते वस्त्रो पण त्यजी देवानां छे, ते बतावे छे. अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइकते खल हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिह For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit आचा० ॥७६३॥ विजा अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले (सू० २१२) सूत्रम् जो, ते वस्त्रो बीजा शीयाळा सुधी चाले तेवां होय, तो बन्ने वखते पडिलेहणा करी धारण करे; अथवा, पासे राखे पण जो जीर्ण जेवां थइ गयां होय तेवू जाणे तो, ते त्यजी दे ते आ सूत्र बडे बतावे छे. पछी ते साधु एम जाणे के, निश्चे हवे हेमंत P७६३॥ ऋतु [शीयाळो] गयो; अने उनाळो आव्यो छे. टंड पण दूर थइ छे, अने आ वस्त्रो पण जीर्ण थइ गयां छे. एवं जाणीने ते वस्त्रो है त्याग करे. जो बधां जीर्ण थयेलां न होय; तो जे जे जीर्ण होय ते परठवी दे, अने त्यागीने निःसंग थइने विचरे. पण जो शिशिर (पोष माघ) वीत्या पछी कोइ क्षेत्र काळ के पुरुषने आश्रयी शीत (उन्डी) वधारे लागती होय तो शुं करवू ? ते कहे छे:-शीत जतां वस्त्रो त्यागवां अथवा क्षेत्रादिना गुणथी हिम पडनारो वायरो ठन्डो वाय तो, आत्मानी तुलना तथा ठन्दनी परीक्षा करवा सान्तर उत्तर वस्त्रवाळो थाय. अर्थात् तेमांथी कांइक तो ओढे; कांइक वाजुए राखे पण, ठन्डनी शंकाथी त्यजी न दे. अथवा अवम चेल [ओछां वस्त्रवाळो] ते एक कल्पना त्यागवाथी वे वस्त्र धारण करे, अने धीरे धीरे ठन्ड जतां बीजं वस्त्र पण दूर करे, तेथी एक साडो (चादर) थी शरीर ढांकनारो बने, अथना तद्दन शीतनो अभाव थाय तो ते पण त्यजी दे, अने पोते अचेल (वस्त्र रहित) बने एटले तेनी पासे मात्र मुहपत्ति अने रजोहरण (ओघो) ए बेज मात्र उपधि रहे. म०-ए एक वस्त्र पण शा माटे त्यजी दे? ते कहे छे. लावियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ (सू० २१३) For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६४॥ www.kobatirth.org लघुनो भाव लाघव जेने होय ते लाघविक छे, तेवी लाघविक (लघुता) ने पोते धारण करवा एक पण वख त्यजी दे, अथवा शरीर अने उपकरणना कर्ममां लाघव पणाने पामीने वस्त्र त्याग करे, तेवा त्यागीने शुं थाय ? ते कहे छे. ते वखनो परित्याग करनार साधुने तपनी प्राप्ति थाय छे. कारण के कायाने क्लेश आपको ते पण बाह्य तपनो भेद छे. कां छे के: " पंचहि ठाणेहि समणाणं निग्गंथाणं अचेल गत्ते पसत्थे भवति तंजहा, ! अप्पा पडिलेहा १ सासिए वे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्ये ४ विउले इन्दियनिग्गहे ५ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांच कारणे साधु निर्गथने अचेलकपणुं प्रशंसवा योग्य छे. [१] अल्पपडिलेहणा (२) विश्वासवाळं रूप ( ३ ) तपनी अनुमति [४] प्रशस्त छाघव, [५] अतिशे इन्द्रियनो निग्रह आ जिनेश्वरे कं छे ते बतावे छे: जमेयं भगवया पवेइयं तमेत्र अभिसमिच्चा । सबओ सबत्ताए समत्तमेव सममि जाणिजा [सू० २१४] आ वधुं वीर वर्द्धमान स्वामीए कहेलं छे एम जाणीने वधा प्रकारोथी सर्व आत्माथी सम्यक्त्व अथवा समत्वपणुं धारे, अर्थात् सचेल अचेल अवस्थानी तुलनाने पोते जाणे, अने आ सेवन परिज्ञाथी पालन करे; पण जे साधुनी शक्ति तेवी न होय, तो ते प्रभुनो मार्ग बरोबर न जाणी शके, तो ते साधु हवे जे बतावे छे, तेवा अध्यवसायवाळो थाय ते कहे छे. असणं भिक्खुस्स एवं भवइ- पुट्टो खलु अहमंसि नालमहमंसि सोयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सवसमन्नागाय पन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणा हु तं सेयं जमेगे For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७६४॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाय तणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि [सू० २१५] ८-४ ॥ विमोक्षाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ (णं वाक्यनी शोभा माटे छे) जे भिक्षुने मंद संहनना कारणे आवो अध्यवसाय थाय, के हुं रोग आतंकथी अथवा उन्ड विगेरेना कारणे अथवा स्त्री विगेरेना उपसर्गथी मारुं आ शरीर त्यागनुं ते श्रेय छे, पण उन्ड विगेरेनुं दुःख के भाव उन्ड ते स्त्री विगेरेनो उपसर्ग सहन करवा हुं शक्तिवान नथी; तेथी, मारे भक्तपरिज्ञा इंगित मरण अथवा पादप उपगमन उत्सर्गथी मरण करवा योग्य छे. पण, मारे आ अवसरे ते करवं बनी शके तेतुं नथी. कारण के, तेमां अमुक समय सुधी काळ क्षेप करवो जोइए. ते उपसर्ग माराथी सहन थाय तेम नथी; अथवा, रोगथी वेदना घणो काळ सहेबाने हुं शक्तिमान नथी. तो मारे हमणा अपवादनुं वेहानस अथवा गार्द्धपृष्ठ मरण स्वीकार योग्य छे. पण, जे उपसर्गथी पीडायलोहोय ते पाप सेवनुं तेने योग्य नथी तेव्रं बताववा कहे छे: 'स' ते साधुने वसु-द्रव्य (संयम) छे, ते संयमवाळो होय ते वसुमान् छे तेने अनुक्रमे सिद्धांतनुं ज्ञान प्राप्त थवा छतां, कोइ खीना कटाक्षनो उपसर्ग संभव थतां पण ते न सेववाथी 'आवृतो' (आ समंतात् व्यवस्थित चारे बाजुथी मर्यादामां रहेलो ते) | आवृत छे, अथवा नायु विगेरेथी थयेल ठन्डो स्पर्श जे दुःख आपनार छे, तेनी चिकित्सा न करवाथी वसुमान् सिद्धांतथी प्राप्त करेल ज्ञानवाळा आत्मा वडे व्यवस्थित छे, तेवो उपसर्ग आवतां वायु विगेरेनी ठन्डी वेदनाने सहन न करी शकवाथी शुं करे ? ते कहे छे. ('हु' अव्यय हेतुना अर्थमां छे.) जेथी, घणो काळ वायु विगेरेनी ठन्डी वेदनाने सहन न करी शकवाथी अथवा, जे कारणथी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७६५॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kabatirth.org युवा स्त्री उपसर्ग करवा आवेली छे, ते विष भक्षणथी के, फांसो खाइने मरवान बताच्या छतां पण न मुके; तेथी, ते तपस्वीए घणो 5 काळ जुदा जुदा उपायो वडे करेली तपस्याना धनवाळा साधुने मरवू तेज श्रेय छे, जेमके कोइ साधुने तेना सगाए स्त्रीवाळा ओर सूत्रम डामा प्रवेश कराव्यो, अने प्रेमवाळी पत्नीए घणीवोर मार्थना कर्या छतां साधुए धैर्य राख्यु. पण अंते नीकळवानो बीजो उपाय ॥७६६॥ न जोवाथी फांसो खाधो, तेम फांसो खावा माटे उंचे लटक, अथवा विष भक्षण करवू, अथवा उंचेथी पडवू, तेज प्रमाणे घणो ७६६॥ 18 काळ ठन्ड विगेरे सहन न थवाथी सुदर्शन माफक प्राण त्यागवा. शंका-फांसो खावो विगेरे बाळ मरण छे, अने ते अनर्थ माटे 181 छे, त्यारे तेनो केवी रीते तमे उपदेश कर्यो ? कारण के सिद्धांतमां का छे केः " इच्चेएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं चणं अणवयग्गं चाउरतं संसारकंतारं भुजो भुज्जो परियट्टइत्ति" उ.-आ दोष अमारा अर्हत (जिनेश्वर) ना मतमा नथी, कारण के कंइपण एकांतथी निषेध कर्यो छे, के स्वीकार्य छे, तेवु नधी फक्त एक मैथुनमा जुदुं छे; अने सिवाय दरेकमां द्रव्य क्षेत्र काळ भावने आश्रयीने जे प्रथम निषेध को हतो, तेन स्वीकाराय । छे, उत्सर्ग मार्ग पण कोइ वखत अगुण (नुकशान ) माटे छे अने अपवाद पण गुणने माटे काळ [ समय ] जाणनारा साधुने थाय छे, तेज बतावे छे. दीर्घ काळ संयम पाळीने संलेखना विधि ए काळना पर्यायवडे भक्तपरिज्ञा विगेरेनुं मरण गुणने माटे है छे, अने स्त्री विगेरेना उपसर्गमा वेहानस गाईपृष्ठ विगेरेथी मरण थाय तेमां काळ पर्यायज छे. अर्थात् जेवी रीते भक्त परिक्षा विगेरेनु मरण गुणवाळु छे, तेम आ काळ पर्यायना मरण जेवु वेहानस विगेरे मरण लाभदायी छे. घणा काळ पर्यायमां जेटलं SSSSSSSS For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० कर्म आसाधु खपावे छे, तेटलुंज आया समयमां थोडा काळमां कर्म क्षय करी नाखे छे ते बतावे छे. 'सोऽपि' वेहानस विगेरेथी मर-18 सूत्रम् नारो पण फक्त भक्त परिज्ञा विगेरे करनारो नहि पण आ साधु वेहानस विगेरे मरणमां ('रिश्रति कारएति') विशेष प्रकारे अन्त-12 ॥७६७॥ क्रिया करनारो ते व्यन्तिकारक छे तेवाने तेवा समयमा वेहानसादि मरण उत्सर्गज मार्ग छे. कारणके, आयु अकाळ मरण जे ॥७६७॥ 3 अपवाद रुप छे, तेना वडे मरेला अनन्ता सिद्धो पूर्वे थया अने थशे. उपसंहार करवा कहे छे के, आ उपर बतावेलु है वेहानस विगेरे मरण मोह दूर थयेला साधुओनी कर्त्तव्यताथी आयतन [आश्रय छे अने अपाय दूर करतुं होवाथी हित छे. जन्मांतरमां पण सुख आपनार होवाथी सुख छे. तथा काळ आवेलो होवाथी क्षम (युक्त) छे. तथा, कर्म क्षय करनार होवाथी 3 निःश्रेयस छे. तथा, पुण्यनो अनुगम उपार्जन करवाथी आनुगमिक छे, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे:-- चोथो उद्देशो समाप्त. SRORSCORRESS पांचमो उद्देशो ___ चोथो उद्देशो कहीने हवे पांचमो कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे गया उद्देशामा गार्धपृष्ट विगेरे बाळमरण बताच्यु पण 2 आ उद्देशामां तो तेथी उलटुं भक्तपरिज्ञानामनुं मरण ग्लान भाव पामेला साधुए स्वीकार ते कहे छे. तेथी आ संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. ॐॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६८॥ www.kobatirth.org जे भिक्खु दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ तइयं वत्थं जाइसामि, से अहेसाई वत्थाइ जाइजा जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं, अह पुण एवं जाणिजा - उवाइकंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवण्णे, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिहविज्जा, अहापरिजुन्नाई परिचित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्च सबओ सबत्ताए सम्मतमेव समभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो अबलो अहमसि नालमहमंसि गिहंतरसंक्रमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभि असणं वा ४ हद्दु दलइज्जा, से पुवामेव आलोइज्जा आउसंतो ? नो खलु में कप्पइ अभिहर्ड असणं ४ भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे ( सू० २१६ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मां त्रण कल्पमा रहेल स्थविरकल्पी अथवा जिनकल्पी मुनि होय, पण वे कल्प (वस्त्र) धारण करनार अवश्ये जिनकल्पी होय, अथवा परिहार विशुद्धिक अथवा यथालंदिक के प्रतिमाधारी तेमांनो कोइ पण होय, आ सूत्रमां बतावेल जे जिनकल्पी विगेरे. बे वस्त्र धारण करनारो होय, आमां वस्त्र शब्द सामान्यथी लीयो छे, माटे एक मूत्रनुं बीजं उननुं एम वे वस्त्र धारण करी संय For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७६८ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० है ममा रहेल छे, केवां वे कल्प वस्त्र छ ? उ०-पात्र वीजें धारण करेलो, साधु छे. ते वर्षा पूर्वना सूत्र प्रमाणे जाणवू, ते ठन्डथी है पीडाया सुधी- जाणवु, ते प्रमाणे अहीं कहे के हुं वायु विगेरेना रोगथी पीडायेल निवळ होवाथी एक घरथी बीजे घेर जवा सुत्रम् ॥७६९॥ 18 असमर्थ छु तेथी भीक्षा माटे जवा हुं अशक्त छु आबु बोलनार साधु पासे कोइ गृहस्थ उभो होय, ते साधुन बोलवू सांभळीने BI IP॥७६९॥ अथवा बोल्या विना पण तेने अशक्त देखीने पर (बीजो) गृहस्थ विगेरे अनुकम्पा तथा भक्तिना रसथी कमळ हृदयवाळो बनीने अभिहृत ते जीवोने दुःख दइ बनावेलुं अशन पान खादिम स्वादिम लावीने ते साधुने आपे, ते समये ग्लान साधुए मृत्रार्थने अनु सारे जीवितने नहि वांछता मरवू बहेतर ! एम विचारीने तेणे शुं करवू ते कहे छे, पूर्व बतावेला जिन कल्पी विगेरे चारेमांथी कोइ ६ पण एक साधुए प्रथम विचारवं, के उद्गम विगेरे क्या दोषथी आ दूषित छे ? तेमां अभ्याहृत जाणीने जेनो निषेध करवो, ते आठ प्रमाणे हे आयुष्मन् ! हे गृहपते ! आ मारा सामे आणेलं अशन खावाने, गणी पीवाने अथवा तेवू बीजं आधाकर्म विगेरे दोषथी दुष्ट अमने कल्पतुं नथी, आ प्रमाणे ते दान आपता गृहस्थने समजावे, बीजो प्रतिमां "तं भिक्खु कोइ गाहावई उवसंकमित्तु बूया, आउसंतो समणा ! अहन्नं तव अट्टाए असणं वा ४ अभिहडं दलामि, से पूच्चामेव जाणेजा-आउसन्तो गाहावई ! जन्नं तुम मम अट्टाए असणं वा ४ अभिहई चेतेसि णोय खलु मे कप्पइ एयप्पगारं असणं वा ४ भोत्तए वा पायए वा अग्ने वा तहप्पगारेत्ति" आमां पण तेज पाठ छे के कोइ गृहस्थ साधु पासे आवीने कहेके हुँ तमारे माटे चार प्रकारनो आहारमाथी कोइ पण सामे दलावीने आपु! ते साधु प्रथमथी जाणे तो कहे के गृहस्थ ! तुं मारे माटे कंइ पण सामे लावीने आपे तो मने खावा पीवाने कल्पे ॐॐॐॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७०॥ www.kobatirth.org नहि, तेम तेतुं बीजं पण न कल्पे. आ प्रमाणे निषेध करेलो पण श्रावक सम्यगदृष्टि प्रकृति भद्रक अथवा मिथ्यादृष्टिमांथी कोइ पण दयाळु एवं चितवे, के आ छान साधु भिक्षा लेवा जवाने अशक्त छे, तेम बीजाने लावत्रा पण कही शके नहि, माटे तेणे निषेध कर्या छतां पण हुं कोई बहाने लावीने आपीश ए प्रमाणे विचारीने आहार विगेरे एम लावीने आपे, तो ते समये साधुए ते आहारने अनेषणीय (अयोग्य) छे, एम विचारीने ते गृहस्थने निषेध करवो. वळी जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिक्खं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, अहं वावि खलु अपडिन्नतो पन्नित्तस्स अगिलाणा गिलाणस्स अभिकख साहम्मियस्स कुज्जा बेग्रावडियं करणाए आ परिनं अणुक्खिस्सामि आहडं च साइजिस्सामि १, अहद्दु परिन्नं आणक्खिस्सामि आहर्ड नो साइजिस्सामि २, आहट्टु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहर्ड च सा इजिस्तामि ३, आहट्टु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, एवं से अहा कि हियमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७०॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७१ ॥ www.kobatirth.org तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुह खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि (सू० ३१७) ॥८- ५॥ विमोक्षाध्ययने पंचम उद्देशकः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( वाक्यनी शोभा माटे छे ) जे भिक्षु परिहार विशुद्धि चारित्रवाळो अथवा यथांलंदिक होय, तेने हवे पछी कहेवातो प्रकल्प ( आचार ) छे, ते आ प्रमाणे ( खलु वाक्यनी शोभा माटे, च समुच्चयना अर्थमां छे ) हुं बीजाए करेली वैयावच्चनी अभिलाषा राखीश, हुं केवो हुं ? प्रतिज्ञप्त वैयावच्च करवाने बीजाए कहेलो हुं अर्थात् तेओ कहे छे, के अमे तमारी वैयावच्च यथा उचित करीए, ते बीजा केवा छे ! म: अतिज्ञप्त न कहेला हुं केवो छु ? उ:- विकृष्ट तपत्रडे कर्तव्यतामां अशक्त हुं अथवा वायु विगेरे रोकावाथी ग्लान बीजा कहेनारा केवा छे ? अग्लान छे, उचित कर्तव्य करवाने शक्तिवान छे, तेमां परिहार विशुद्धि चारित्रवाळा तप करनारनी अनुपारिहारिक ( वैयावच्च करनार ) सेवा करे छे, ते वैयावच्च करनार कल्पमा रह्यो होय, अथवा बीजो पण होय, हवे जो ते | सेवा करनार पण ग्लान ( मांदा) होय, तो ते बीजानी वैयावच्च न करे, ए प्रमाणे यथालंदिक साधुनुं पण जाणवुं, पण एटलं विशेष के स्थविरकल्पी साधु पण तेनी सेवा करी शके छे, ते बतावे छे. निर्जराने हृदयमा विचारीने सरखा कल्पवाळा साधर्मिक अथवा एक कल्पमां रहेला बीजा साधुओथी करायेली वैयावच्चने हुं इच्छीश जेनो आ आचारछे, ते तेवा आचारने पाळतोभक्त परिज्ञावडे पण जीवितने छोडे, पण आचारनुं खंडन न करे आ भावार्थछे; For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७७१॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेज प्रमाणे अन्य साधर्मिक वडे करायेलं वैयावच्च अनुमति आपेलुं छे. हवे बीजानी वैयावच्च पोते करे ते बतावे छे (च समुच्चयना अर्थमां अने अपि पुनःना अर्थमां छे अने ते पूर्वना कहेवाथी कई विशेष बताववा माटे छे. खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे) अने हुं अप्रतिज्ञप्त कहेवायेलो छु अने जे बीजो प्रतिज्ञप्त वैयावच्च न करवाने माटे कहेवायेलो छे ते ग्लान साधुनी हुं अग्लान (सानो) छु माटे निर्जराने उद्देशीने तेवा कल्पधारी साधार्मिक साधुनी वैयावच्च करूं ; प्र०—शा माटे ? तेना उपकार [शांति] ने माटे तेथी आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने पण भक्त परिझाए प्राणोने छोडे पण प्रतिज्ञानुं खंडन न करे, [आ सूत्रनो परमार्थ छे] हवे प्रतिज्ञा विशेषना द्वारवडे चोभंगी कहे छे. कोइ एक आवी प्रतिज्ञा करे छे के बीजा ग्लान साधर्मिक साधुने आहार विगेरे लावी आपीश, तथा हुं वैयावच्च पण योग्य रीते करीश, तथा अपर [बीजा] साधर्मिके आणेण आहार विगेरेने वापरीश, आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने वैयावच्च करे (१) तथा बीजो साधु आवी प्रतिज्ञा करे के हुं बीजा माटे गोचरी विगेरे शोधीश, पण बीजानो आहार विगेरे लावेलो खाइश नहि, (२) त्रीजो आवी प्रतिज्ञा करे के हुं बीजाने निमिते आहार विगेरे शोधीश नहि पण बीजानो लावेलो खाइश, [३] चोथो आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करे, हुं बीजाने निमिते आहार विगेरे शोधीश नहि, तेम बीजानुं लावेलुं खाइश पण नहि [४] आ प्रमाणे जुदी जुदी प्रतिज्ञाओ करीने कोइ जग्याए ग्लायमान ( मांदो) पण थाय तो पण जीवितने त्याग करे, पण प्रतिज्ञानो भंग न करे. हवे आ विषयने संपूर्ण करवा कहे छे. आ प्रमाणे कहेली विधि ए तत्वने जाणनारो ते साधु शरीर विगेरेनो मोह छोडनारो बनीने यथाकीर्तित धर्मनेज बरोबर जाणीने आसेवन परिज्ञावडे पालतो तथा लाघविकने इच्छतो विगेरे चोथा उद्देशामां जे कथुं, ते अहिं बधुं जाणी लेवुं, तथा गोते कषायना उपशमथी शांत छे, अथवा अनादि For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७२॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७३॥ www.kobatirth.org संसारमा पर्यटन करवाथी श्रांत छे, ते सावध अनुष्ठानथी विरत छे, शोभन लेश्या ते जेणे अंतःकरणनी निर्मळडत्ति तेजोलेश्या विगेरे धारण करवाथी तेसुसमाहत लेश्यावाळो छे, आवो बनीने पूर्वे कडेली प्रतिज्ञा लइने पाळवामां समर्थ छे, ते तप अथवा रोग ना कारणे ग्लान भावने पामेलो होय, छतां पण ते पोतानी प्रतिज्ञानो लोप न करतो शरीर त्यागवा भक्त प्रत्याख्यान करे, अने ते भक्त परिज्ञामां पण काळ पर्यायवडे अनागत् परिज्ञा (चार वर्षनी संलेखनानो समय नथी, तेमां पण काल पर्याय छे, जेणे शिष्योने भणावी गणावी तैयार कर्या होय, अने तप वडे संलिखित देहवाळो होय तेनो जे काळ पर्याय मृत्युनो अवसर प्रशंसवा योग्य छे, तेवो आ ग्लान थयेला कल्पधारीने पण एरोज अवसर छे. कारण के बन्नेमां कर्मनी निर्जरा समान छे, ते कल्पधारी भिक्षु ग्लानपणाथी अणशननां विधानमां व्यन्तिकारक कर्म क्षय करनारो छे बाकीनुं वधुं पूर्व माफक जाणवु पांचमो उद्देशो समाप्त. p Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छट्टो उद्देशो पांचमी को पछी छट्टो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां बतान्युं के ग्लान साधुए भक्त प्रत्याख्यान कर, अने आ उद्देशामां बतावशे के घृतिसंहनन विगेरेथी वळवाळो साधु एकत्व भावनाने भावीने इंगित मरण करे आ संबंधें आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. जे भिक्खु एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७७३॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1186611 www.kobatirth.org सामि, से अहे णिज्जं वत्थं जाइजा अंहापरिरंगहियं वत्थं धारिजा जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नं वत्थं परिविज्जा २ ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे जात्र समत्तमेव समभिजाणिया (सु० २१८ ) जनकल्पी विगेरे जे साधुने एवो अभिग्रह होय के मारे एक वस्त्र धारण करवु अने बीजुं पात्र राखवुं तेवा उत्तम साधुने मनमां एम न आवे, के बीजुं वस्त्र याचं. ते पोताने जरुर पडतां फक्त ठन्डी ऋतुमां एकज निर्दोष वस्त्र याची लावे, अने विधि प्रमणे लावी पहेरे, पण ज्यारे उनाळो आवे, त्यारे जुनुं वस्त्र जीर्ण थवाथी तेने परठवी दे, पण बीजा शोयाळामां चाले तेनुं होय तो पोते ते एक साटक (चादर) ने धारण करे, अने जीर्ण वस्त्र परब्बी दीधुं होय, तो पोते वस्त्र रहित थइनें विचरे, ते स्थिर मतिवाळा साधुआ लाघवपणुं आगम अनुसारे होवाथी सम्यक्त्व अथवा सर्व प्राणी उपर समभावपणुं के रागद्वेष रहित पशुं जाण | तथा ते साधुने लघुता होवाथी तेने एकत्व भावनानो अध्यवसाय थाय ते बतावे छे. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - एगे अहमंमि न मे अत्थि कोइ न याहमत्रि, कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं सममिजाणिजा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जात्र समभिजाणिया (सू० २१९ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७४॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७५ ॥ www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( वाक्यनी शोभा माटे छे) जे साधुने आवो विचार थाय के “हुं एकलो लुं, संसारमां भ्रमण करतां परमार्थ दृष्टिए जोतां मने उपकार करनार बीजो कोइ नथी, अने हुं पण बीजा कोइना दुःखने दूर करवामां सहायक नथी, कारण के पोताना करेला कर्मनुं फळ भोगववामां सर्व जीवोने इश्वर [समर्थ] पशुं छे " आ प्रमाणे आ साधु पोताना आत्माने अन्तरदृष्टिए सम्यग् रीते एकलो जाणे, अने आ आत्माने नरक विगेरेनां दुःखोथी बचाववा शरण आपना योग्य बीजो नथी, एवं मानतो होय ते पोताने जे जे रोग विगेरे दुःख देनाएं कारणो आवे, त्यारे बीजाना शरणनी उपेक्षा करतो "में कर्यु छे माटे मारेज भोगवकुं" आवो निश्चळ विचार करीने सम्यग् रीते भोगवे छे. प्र० - ते केवी रीते एम समताथी सहन करे ? उ० - लाघविय विगेरे चोथा उद्देशा २१५ सू०मां बतान्युं ते " समत्वप जाणवुं " त्यांसुधी जाणवुं, के आ साधुने कर्मनी लघुता थवाथी आ लोक परलोक बन्नेमां हित सुख निश्रेयस माटे थाय छे अने परंपराए मोक्ष फळ आपनार छे—तेथी तेणे एकत्वभावना भाववी आ अध्ययनना बीजा उद्देशामां उद्गम उत्पादन एषणा बतावी ते आ प्रमाणे "आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा ४" विगेरे सू० २०२मां बतान्युं ते प्रमाणे पांचमां उद्देशामां ग्रहण एषणा बतावी, "सीया य से एवं वयं तस्सवि परो अभिहडं असणं वा ४ आह दलएजा इत्यादि [मुत्र २१६मां वचमां आ पाठ हे ] आ सुत्रवडे ग्रास एषणा बतात्री तेने हवे पछीना सूत्रमां विशेषथी बताववा सूत्र कहे छे. सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा ४ आहारे माणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७७५॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७६॥ www.kobatirth.org हणुयं संचारिजा आसाएमाणे, दाहिणाओ वामं हणुयं नो संचारिजा आसाएमाणे, से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सबओ सबत्ताए समत्तमेव अ (सम) भिजाणीया ( सू० २२० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्व बतावेलो साधु अथवा साध्वी अशन विगेरे आहार उद्गम उत्पादन एषणाथी शुद्ध अने प्रत्युत्पन्न ते ग्रहण एषणा शुद्ध एटले १६ गृहस्थ दान देनारना तथा सोळ लेनारना तथा दश बन्नेना भेगा मळी कुल ४२ दोषथी रहित आहार लावीने गोचरी करतां जे पांच दोष अंगार धूम विगेरे छे तेने वर्जीने आहार करे, ते अंगार अने धूम रागद्वेषना कारणे थाय छे, ते सरस नीरस आहार आवे तो रागद्वेष थाय छे, अने कारणनो अभाव थतां कार्यनो पण अभाव छे, एम. जाणीने रसनी उपलब्धि [स्वाद ] नुं निमित्त त्यजवानुं बतावे छे. ते साधु आहार करतां डावी बाजुथी जमणी बाजु स्वाद लेवा माटे भोजन विगेरे न लइ जाय तेज प्रमाणे स्वाद लेवा जमणी बाजुथी डावी बाजु न लइ जाय कारणके संसारना स्वादथी रसनी प्राप्तिमां रागद्वेषनुं निमित्त छे, अने तेथीज अंगार, तथा धूम दोष लागे छे, जेथी उत्तम साधु साध्वीए जे कइ स्वादिष्ट होय तेनो स्वाद न करवो बीजी प्रतिमां “आढायमाणे" पाठ छे, तेनो अर्थ आ छे, के "आहारमां आदरवाळो मूर्च्छावाळो गृद्ध बनीने आहारने आम तेम न फेरवे" (च) मांडवी जमणीमां न फेरवनुं, तेम बीजे पण स्वाद वो नहि ते बतावे छे. 'स' ते साधु चारे | मकारना आहारने वापतो रागद्वेष छोडीने खाय, तेज प्रमाणे कोइ निमित्तथी डावी जमणी बाजु आहार फेरववो पडे तो पण पोते For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७६॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाद कर्या विना फेरवे. मः शा माटे ! उ:- आहारनी लाघवताने स्वीकारतो आस्वाद न करे, आ प्रमाणे आस्वादना निषेधथी अंतमांत आहारनो स्वीकार पण कहेलो समजवो. आ प्रमाणे स्वाद न करवाथी ते साधुने कर्मनी बहोळी निर्जरा थाय छे, ते बधुं पूर्व माफक छे, समपणु समत्वने पामे अथवा सम्यक्त्व निश्चळ थाय ए वधुं पूर्व माफक समजवु. तेवा उत्तम साधु अथवा साध्वीने अंत प्रांत आहार खावाथी मांस लोही ओछा थवाथी जर्जरीत हाडकां थथाथी संयम अनुष्ठान शरीरथी बरोबर न थवाथी खेद थाय तेवी कायचेष्टावाळाने शरीर त्यागवानी बुद्धि थाय, ते बतावे छे. जस्स णं भिक्खु एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इमंमि समए इमं सरोरगं अणुपुवेण परिवत्तिए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवट्टिजा, अणुपुत्रेणं आहारं संहिता, कसाए पणुए किच्चा समाहियजे फलगावयट्टो उद्वाय भिक्खु अभिनिवुडच्चे (सू० ५२१ ) एकत्वभावना भावनार जे साधुने आहार उपकरणमां लाघवपणुं प्राप्त थयुं होय, तेने आवो अभिप्राय थाय छे, (से शब्दनो अर्थ तत् छे अने ते वाक्यना उपन्यास माटे छे, च समुच्चयना अर्थमां छे, खलु अवधारणना अर्थमां छे ) के हुं आ संयमना अबसरमां लुखा आहारथी अथवा रोग उत्पन्न थवाथी पीडाइने ग्लानि पामी अशक्त थयो लुं, लूखा आहारथी के तपथी शरीर अशक्त थवाथी अनुपूर्वए योग्य रीते आवश्यक क्रिया के प्रतिलेखना विगेरे क्रिया करवामां अशक्त बनी गयो छं. अने शरीर दरेक क्षणे नवळं पडतं होवाथी एक वे उपवास के आंबील तप वडे आहारनो संक्षेप करे. अर्थात् साजा शरीरमां बार वर्ष सुधी अनुक्रमे थोडा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ) ॥७७७॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IN www.kobatirth.org घणा तपे संलेखना थती होय, ते अहीं ग्रहण न करे, पण ग्लान साधुने तेटलो काळ स्थिति न रहे, माटे तेवी टुंका काळनी आचा० * अनुपूर्वी वाळी द्रव्य संलेखना माटे आहारने रोके, आवी द्रव्य संलेखना करीने बीजुं शुं करे ? ते कहे छे: । बेत्रण चार पांच उपवास विगेरेनो अनुक्रमे तप करीने आहारनो संक्षेप करे, अने कषायोने ओछा करीने शरीरनो मोह ॥७७८॥ 18 छोडे. कषायो हमेशां ओछा करवा जोइए. पण आ संलेखनामां तो अवश्ये विशेष प्रकारे ओछा करवा. एथी तेमने विशेषथी IP७७८॥ ४ ओछा करी सम्यक्प्रकारे स्थापन कयु छे. शरीर (अर्चा) जेणे तेवो मुनि “ समाहित अर्च" छे. (नियमित कायना व्यापारवाळो ४ छे,) अथवा अर्ध्या ते लेश्या छे, ते लेश्याने सम्यक् रीते स्थापी छे माटे अति विशुद्ध अध्यवसाय वालो पोते बन्यो छे, अथवा अर्ध्या ते क्रोधादि अध्यवसाय रुप ज्वाळाने शांत करवाथी समाहित अर्ध्या वाळो छे, तेवा साधुए कर्म क्षय रुप फळ ( तेने क प्रत्यय लगाडवाथी फलक ययुं ) ने संसार भ्रमण रुप आपदामां अर्थ ( प्रयोजन वाळो छे माटे ते फळक आपद्भर्थी कदेवाय छे. अथवा फलक (पाटीया)ने बने बाजुथी वांसला विगेरेथी सरखं करवा छोले तेम अहीं बाह्य अभ्यंतर अवकृष्ट थवाथी [ आर्ष नचन प्रमाणे विग्रह करतां ] 'फलगावयही' छे, अथवा दुर्वचन [ महेणां ] रुप बांसलाथी छोलवा छतां कषायना अभावथी फलक 8. माफक रहे छे, तेवा स्वभावथी पोते 'फलकावस्थायी' छ, अर्थात् पोते 'वासी चन्दन कल्प' जेवो छ, [आ प्रमाणे मागधी सूत्रना अर्थ कर्या, कर्म क्षय रुप फळनो अर्थी, ते संसार भ्रमणनी आपदामांथी छुटवानो अर्थी, तथा क्रोधादिना ओछा थवाथी पाटीया जेवो मध्यस्थ रागद्वेष रहित बताव्यो] आवो उत्तम साधु प्रतिदिन साकार भक्त प्रत्याख्यान वाळो छे अने घणो बळवान रोग आवतां शीघ्र मरण नो उद्यम करनार बनी अभि निवृत्त अर्चवाळो एटले शरीर संताप रहित बने, धैर्य तथा संघयण विगे For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा, रेथी युक्त होय, ते महा पुरुषोए आचरेला इङ्गित मरण ने स्वीकारे. ५० केवी रोते ? ते कहे छे. सूत्रम् अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा तणाई जाइत्ता से ॥७७९॥ तमायाए एगंतमवकमिजा, एगतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुतिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय २ पमजिथ २ तणाई संथरिजा, तणाई संथरित्ता इत्थ विसमए इत्तरियं कुजा, तं सच्चं सच्चवाई ओएतिन्ने छिन्न कहं कहे आईयटे अणाईए चिच्चाण भेउरं कायं संविहूय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिविस्सं मणयाए भेरव मणुचिन्ने तत्थावि तस्स काल परियाए जाव अणुगामियं तिबेमि (सू० २२२) ॥८-६॥ विमोक्षाध्ययने षष्ठ उद्देशकः बुद्धि विगेरे गुणोनो ग्रास करे अथवा अढार करो ज्यां लेवाय ते गाम छे, (बधी जग्या एका शब्दनो अर्थ गुजरातीमां अ-122 थवा लेवो) ज्या कर न होय ते न कर (नगर) छे, धूळना ढगलाथी कोट बनाव्यो होय ते खेट (खेड) छे, नाना कोटथी वीटा-13 द्रायेलं ते कर्बट छे, २॥ गाउने आंतरे गाम होय ते मडंब छे, पत्तन (पाटाण) वे प्रकारे छे. जल पत्तन ते कानन द्वीप विगेरे छे, For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७८०॥ www.kobatirth.org स्थळ पत्तन ते मथुरा छे, द्रोण मुख ते जळ के स्थळ मार्गे नीकळवा तथा पेसवाना रस्ता होय जेमके भरुच खंभात [बंदर ] छे सोना चांदी विगेरेनी खाणने अकर छे, तापस त्रिगेरेनो मठ ते आश्रम [आश्रय] छे, यात्रा निमित्ते मळेलां माणसोनो ज्या जमाव थतो होय ते संनिवेश छे, घणा वाणीया [वेपारी] नुं रहेठाण ते " नैगम” छे, राजाने रहेवानुं नगर ते राज्यधानी छे. आमांथी कोइपण जग्याए जने घासनी याचना करे. प्र०—शा माटे ? उ० – पोताने संथारो करवा माटे मुकुं निर्जीव घास दर्भ वीरण विगेरेने कोइ गाम विगेरेमां जड़ने तेना मालिकनी आज्ञा लइने पोलुं सडेलुं लीलुं छोडीने सुकुं घास ले, ते लइने घास एकांत स्थळ पहाडनी गुफा विगेरेमां जइ महा स्थंडिल शोधे ते कहे छे, जेमां कीडी विगेरेनां इन्डां न होय, जेमां वे इन्द्रिय जीवो न होय, तथा नीवार श्यामाक विगेरे बीजो न होय, तथा लीलुं घास दरो विगेरे न होय, तथा उपर के अंदर ठारनुं पाणी पडेलुं न होय [अर्थात् छांटा पडेला न होय,] तथा वरसादनु के नीचेनुं पाणी तेमां पडेल न होय, तेज प्रमाणे कीडीया, पांच वर्णनी सेवाळ, तुर्तनी पाणीथी पलाळेली माटी करोळीयानां जाळां रहित निर्दोष जग्या होय, तेवा महा स्थंडिलमां वासने पाथरे. प्र० केवी रीते ? ते कड़े छे. ते जग्याने आंखथी बरोबर जोड़नेपछी रजोहरणथी बरोबर पूंजीने [दरेकमां बबे वार लेवानुं कारण बरोबर जुए ] संथारो पाथरीने झाडा पेशाबनी जमिन बरोबर जोइने पूर्व दिशाना मोढे संथारा उपर बेसी इथेळी अने ललाटमां रजोहरण फसावीने सिद्ध भगवन्तने नमस्कार करीने पञ्चपरमेष्ठिने याद करी (अपि शब्दनो अन्यत्र अर्थ छे) समयमां मुकरर करेला स्थानना इङ्गित मरण करे, (इत्वर शब्दनो अर्थ पादपोपगमननी अपेक्षा माटे छे तेथी) पादपोपगमन अणसण अथवा करे, (पण इत्वरनो अर्थ साकार अमुक काळ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७८०॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुधीनुएवो अर्थ न लेवो) कारण के जिन कल्पी विगेरे सुनिने बीजा काळमां पण साकार पत्याख्याननो संभव नथी, तो पत्या- मासत्रम ख्यान जेवा अंतिम वखते साकारनो संभव क्याथी होय? कारण के इतर ते अमुक काळन पञ्चक्खाण रोगी श्रषक करे, के जो आ ॥७८१ रोगथी पांच दीवसमां मुकाइश, तो पछी भोजन करीश, ते शिवाय नहीं करुं विगेरे इत्वर पच्चक्खाण छे, पण इङ्गित मरण तामा७८१॥ धैर्य संहनन विगेरेना बळवाळो पोतानी मेळेज पासु फेरववानी विगेरे क्रिया करनारो आखी जींदगी मुधी चारे आहारनो त्याग - करे छे. कयु छे के:-- पच्चक्खइ आहारं, चउन्विहं णियमओ गुरुसमीवे; इङ्गियदेसंमि तहा, चिटुंपि हु नियमो कुणइ ॥१॥ उवत्तइ परिअत्तइ, काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ सव्वमिह अप्पणचित्रण, अन्नजोगेण घितिवलिओ ॥२॥ चारे प्रकारना आहारनु गुरु पासे नियमथी प्रत्याख्यान करे,अने इङ्गित(मुकरर करेलां)भागमा चेष्टा पण नियमथी करे छे,[१] । I पासुं बदले, बाजुए जाय अथवा ठल्लो मातरं करे, ते पण जाते करे, ते धैर्य तथा बळवाळो पोताना सिवाय बोजा पासे न करावे. प्र.--इङ्गित मरण के छ ? अने कोण करे ? ते कहे छे. संत पुरुषोनुं हित करे तेथी ते इंगित मरण सत्य छे. अने सुगति मार्गे लइ जवामां ते अविसंवादपणे होवाथी तथा सर्वज्ञना उपदेशथी ते इंगित मरण सत्य तथ्य छे. तथा पोते पण सत्य बोलनार से होवाथी सत्यवादी छे, कारण के आखी जोंदगी सुधी यथोक्त अनुष्ठान करवानी प्रतिज्ञा लीधेली ते भार उपाडवा समर्थ होवाथी अने तेमज पाळवाथी सत्यवादी छे, तथा ' ओज' पोते रागद्वेष रहित छे. तथा संसार सागरने तर्यो छे, अने भूतकाळ माफक I भविष्यमां पण तरवा माटे तेवो उपचार करवाथी अवतीर्ण छे, तथा जेणे राग विगेरेनी विकथा कोइ पण रीते न करवानुं नक्की For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मखम ॥७८२॥ 181 करवाथी छिन कथंकथ छे, अथवा आ इंगित मरणनी प्रतिज्ञा केवी रीते पार उतारीश ? एवी कथा जेणे छेदी नांखी, माटे छिन्न आचा० कथंकथ छे. कारण के दुष्कर अनुष्ठान करनारो तेज कथंकथी छे. पण ते महा पुरुषपणे होवाथी ते व्याकुळताने पामतो नथी, तेज प्रमाणे आ साधुए बधी रीते अतिशयथी जीवादि पदार्थो जाणी लीपाथी ते अतीत अर्थ छे, अथवा आदत्त अर्थ छे. ॥७८२॥ अथवा बधी रीते अर्थो अतिक्रांत कर्या छ, अर्थात् जेने प्रयोजन हवे कशुं बाकी नथी. ते उपरत व्यापारवाळो छे. तेज प्रमाणे बधी रीते 'इत' ते अतीत, अने तेवो नहीं माटे अनातीत छे, अथवा अनादत्त संसार करनारो ते. संसार अर्णव पारगामी वन्यो छे. आवो निःस्पृही साधु इङ्गित मरण स्वीकारे छे, ते साधु विधिए प्रति क्षणे क्षय पामता भिदुर शरीरनो मोह छोडीने जे औदारिक शरीर कर्म संबंधी आवेलुं छे, तेने वोसिरावे छे. अने जे परिसह उपसर्गो जुदा जुदा आवे, तेनुं मंथन करे, सम्यय रीते सहन करी आ सर्वज्ञ प्रणीत आगममा विश्वास राखीने अविसंवादना अध्यवसायपणाथी भयानक अनुष्ठान जे कलीव पुरुपोथी न विचाराय, तेवू इंगित मरण पोते स्वीकार्यु छे, जो के रोगना कारणे आ तेणे स्वीकार्यु छे छतां पण तेनो लाभ काल पर्याय आगत जेटलोज छे, ते बतावे छे, रोग पीडाना कारणे मरण स्वीकार्यु छतां तेनो लाभ लांबा काळ जेटलोज छे. एटले 5/काळ पर्यायमांज लाभ थाय. तेम अहीं पण थाय छे. ते काळज्ञ साधुने आज काल पर्याय छे, कर्मनो क्षय बन्नेमां समानन छे. का छे के:-"सेवि तत्थ वियांत कारए" तेनो अर्थ पूर्व माफक छे, अने समजाय तेम छे के अहीं पण पुष्कळ निर्जरा छे. ( आ उद्देशामां रोगी साधु इङ्गित के पादोपगमन अणसण करे तो तेटला थोडा काळमां समभावे घणुं दुःख सहेवाथी गच्छमां रही जे कर्म खपावे तेटलुज आ थोडा काळमां खपावे.) छट्टो उद्देशो समाप्त. 5555 For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् आचार सातमो उद्देशो ॥७८३॥ छट्टो कहीने हवे सातमो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां एकत्व भावना भावनार घृति संहनन विगेरेथी। युक्त साधुनुं इंगित मरण बताव्युं, अने अहीं तेज एकत्व भावना प्रतिमाओवडे बतावे छे, एथी अहीं ते प्रतिमाओ बतावे छे, तथा ॥७८३॥ वधारे विशिष्ट संघयणवाळो पादपोपगमन अणशण पण करे, आ संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ प्रथम सूत्र छे. जे भिक्खु अचेले परिसिए तस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफास अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए (सू० २२३ ) जे साधु प्रतिमा धारण करेलो अने विशेष अभिग्रहथी अचेल (वस्त्ररहित) पणे सयममा रहेलो होय, ते भिक्षुने आवो अभिमाय थाय छे, के हुँ घृति संहनन विगेरे युक्त होवाथी वैराग्य भावनाथी भावित अंतःकरणवाळो छु. अने आगम चक्षुवडे ( चारे गतिनुं ज्ञान होवाथी ) नारकतिर्यचनुं दुःख जाणु छु. अने मार्नु छु के मारे मोक्ष जेवं मोटु फळ लेवान होवाथी तृणनो स्पर्श दि कंइ दुःख देतो नी, तेज प्रमाणे ठन्ड, ताप, डांस, मच्छरनो स्पर्श सहन करवा शक्तिमान छु, तथा एक जातना के जुदी जुदी For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम ॥७८४॥ ॥७८४॥ जातिना अनुकूळ के प्रतिकूल विरूपरूपवाळा फरशो सहन करवाने हुं शक्तिवान छु,पण लज्जाने लीधे गुह्य प्रदेशने ढांकवानी जरुर होवाथी ते छोडवा हुं चाहतो नथी. अने आ स्वभावथीन अथवा साधनना विकृत रुपपणाथी ते साधुने शरम लागे, तो तेने चोळपट्टो पहेरवो कल्पे छे, अने ते पहोळाइमां एक हाथने चार आंगळनो होय, अने लंबाइमां केडना प्रमाणमां होय, तेवो गणतरीनो एक राखे पण, जो तेवां कारणो न होय, तो अचेलपणेज विहार करे, अने अचेलपणेज ठन्ड विगेरे स्पर्श सारी रीते सहन करे, ए बताववा कहे छे. अदुवा तत्थ परकमंतं भुजोअचेलं तणफासा फुसन्ति सोयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसगफासा फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लावियं आगममाणे जाव समभिजाणिया (सू० २२४) । ए७ कारण तेने होय, तो ते साधु वस्त्र धारण करे, अथवा पोते लज्जा न पामतो होय, तो अचेल रही संयम पाळे, अने वस्त्ररहित संयम पाळतां तेने तृणना फरशो फरशे, तथा ठंड ताप डांस मच्छरना फरसो दुःख दे तेवा एक जातना के जुदो जुदी जातना भोगववा छतां पोते अचेल रही कर्मनु लाघवपणुं माने, अने तेमांज समत्व माने, वळी प्रतिमाधारी साधुज विशेष अभिग्रह धारण करे, ते आ प्रमाणे के हुं बोजा पतिमाधारी मुनिओने किंचित् आपीश, अथवा तेमनी पासेथी लेइश एवो कोइ पण जातनो अभिग्रह धारण करे, तेनी चोभंगी कहे छे, For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥७८५॥ ७८५॥ SHANGAAAAAAAAAAC जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहद्द दलइ. स्सामि आरडं च साइजिस्सामि १ जस्स णं भिक्स्खुस एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेप्ति भिक्खूणं असणं वा ४ आह१ दलइस्सामि आहडं चनो साइस्सामि २ जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवइ अहं च खल्लु असणं वा ४ आहटु नो दलइस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३ जस्स णं मिक्खूस्स एवं भवइ अहंच खलु अन्नेसि भिक्खूणं असणं वा ४ आह१ नो दलइस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, अहं च खलु तेण अहाइरित्तेण अहेसाणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए, अहं वावि तेण अहाइरित्तेण अहेसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा ४ अभि कंख साहम्मितहिं कोरमाणं वेयावडियं साइजिसामिलाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया ( सू० २२५) आ बर्षा पूर्वे मू० २१७मां आवी गयुं छे, तेथी संस्कृत वडे कहे छे, जे भिक्षुने आवो अभिग्रह होय, के हुँ बीजा साधुओ माटे SACHAR For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा www.kobatirth.org 15 आहार लावीने आपोश, तथा तेमन लावेलु खाइश (१) बीजा साधुने आवो अभिग्रह होय के बीजा साधुओने आहार लावीने 21 आपीश पण बीजानो लावेलो खाइश नहि. (२) कोइने आवो अभिग्रह होय के बीजाने माटे आहार लावीने आपीश नहि, पणमत्रम 1 तेमने लावेलो खाइश [३] बीजाने माटे लावीने आपीश नहि तेम लावेलो खाइश पण नहि. आचारमांनो कोइ पण अभिग्रह धारण ॥७८६॥ करे, अथवा प्रथमना त्रणमांनो एक पद वडेज कोइ अभिग्रह करे ते बतावे छे, जे साधुने आवो अभिग्रह होय, के हुँ बीजा ए ॥७८६॥ आहार करतां वधेला आहारवें भोजन करीश, कारण के ते प्रतिमा धारीओने तेवुज एषणीय [खावा योग्य] छे, ते आ प्रमाणे. ल पांच प्राभृतिकामां आग्रह छे, बेनो अभिग्रह छे, तेमज पोताने माटे लीधेला आहारमाथी साधर्मिक साधुनी वैयावच्च निर्जराने उद्दे शीने करे, जो, के तेमणे प्रतिमा धारण करेली होवाथी एक जग्याए भेगा थइने न खाय, पण तेमनो अभिग्रह एक सरखो होवाथी सांभोगिक छे, अने तेथी तेवा उत्तम साधुना उपकरण लाक्वा माटे हवे वैयावच्च करूं. आवो अभिग्रह कोइ ले, तथा बीजुं बतावे छे. [वा शब्दथी बीजो पक्ष बतावे छे अपि शब्द पुनाना अर्थमां छे] अथवा हुं तेमणे लीधेली गोचरीमाथी ४ निर्जराने उद्देशीने साधर्मिकाए करेली वैयावच्चने स्वीकारीश अथवा जे बीजानी वैयावञ्च करे तेनी हुं अनुमोदना करीश के हे साधो ! तमे बहु सारु यु छे ! एव॒ वचन बोलीश, तथा काया वडे तथा प्रसन्न मनवाळा भाववडे अनुमोदना करीश, आ वधुं शा माटे करे ? कर्मनी लघुता माटे. आ प्रमाणे कोइ पण अभिग्रह धारण करेलो अचेल के सचेल साधु शरीर पीडा होय अथवा न होय, पण पोतान * आयु थोडं रहेलं जाणीने उद्यत मरण स्वीकारे, ते बतावे छे: जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरोरगं अणु For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७८७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir godi परिवत्तिए, से अणुपुव्वेणं आहारं संवहिजा २ कसाए पयणुए किच्चा समाहियचे फलगावही उद्वाय भिक्खु अभिनिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा जाव राय हाणि वा तणाई जाइजा जाव संथरिजा, इत्थवि समए कायं च जोगं च ईरियं च पच्चक्खाइजा, तं सच्च सच्चावाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आइयडे अणाईए चित्राणं भेउरं कायं संवियि विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्तभणाए भैरवमणुचिन्ने तत्ववि तर काल परियाए सेवि तत्थ वियन्तिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आगामियं तिबेमि (सू० २२६ ) ॥ ८-७ ॥ (णं वाक्यनी शोभा माटे छे;) ते भिक्षुने आवो अभिप्राय थाय छे, के हुं ग्लान थयो छु, एम जाणीने सू० २२२मां बताव्या प्रमाणे घास लावीने एकांत निर्दोष जन्यामां पाथरे अने त्यां बेसीने शुं करे ? ते कहे छे, आ अवसरमां पण बीजे स्थळे नहि पण तेज जग्याए संथारामां बेसीने सिद्धनी समक्ष पोतानी येळेज पांच महाव्रतनो फरी आरोप करे [फरी चालवा गणी जाय] त्यारपछी चार आहारनुं पञ्चकखाण करे, पछी पादपोपगमन अणसण माटे शरीरने स्थिर करे, अने तेनो वेपार ते संकोच, लांबा कर के आंख मींचवी उघाडवी ते पण रोके, तथा इरण ते इर्या ते सुक्ष्म, काय वचन संबन्धी तथा मन संबन्धी पण अपशस्तनुं पञ्चकखाण For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७८७ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||७८८॥ www.kobatirth.org करे, अने ते पादपोपगमन अणसण सत्य सत्यवादी विगेरे बधुं गया उद्देशा प्रमाणे जाणवुं, [इति तथा ब्रवीमि शब्दो पण जाणीता छे.] सातमो उद्देशो समाप्त. ॥ इतिश्री आचाराङ्गसूत्रे चतुर्थो भागः समाप्तः ॥ श्रोरस्तु ॥ कफ समाप्त. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७८८ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 999966 www.kobatirth.org 9999999 ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रे चतुर्थो भागः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु । AOCOSSESSSSSSSS For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only