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सूत्रम्
॥७०५॥
आचा० जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वीरो अहियासए, ओए समिय॥७०५॥
दंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडोणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्टिएसु वा अणुटिएसु वा सुस्सूममाणंसु पवेयए संतिं विरई उवसमं निवाणं सोयं अजवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणाणं सवेसि भृयाणं सव्वेसि सत्ताणं सव्वेसि जोवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा (सू. १९४)
ने पंडित मेधावी निष्ठित अर्थवाळो वीर साधु सदा सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश प्रमाणे वर्तनारी गौरवत्रिकथी अप्रतिबद्ध निर्मम निद किचन निराश एकाकी विहारपणे [जीनकल्पी जेबो] गाम गाम विचरतो क्षुद्र तीर्यच नर, देवे करेला उपसर्ग परिसहोथी दुःखना IM स्पर्शो भोगवतो छतां निर्जरानो अर्थी बनीने सारी रीते सहन करे.
-कई जग्याए तेने तेवा परिसह उपसर्गो दुःख दे ? ते कहे छे. आहार विगेरे माटे घरमा जतां (उंच नीच मध्यम जातिनां घरो होय माटे बहु वचन मूत्रमा छे) तथा घरोना वचमां जतां तथा (बुद्धि विगेरे गुणोने खाइ जाय ते गाम) गाममां गामांतरमां तथा कर विनानां नगरोमां अथवा अंतराळे जतां थाय छे, तथा ज्यां लोकोने रहेवानां स्थान ते जनपद छे, ते अवति
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