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आचा०
॥७५९॥
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वस्त्र ठंड रोकवा जोइए; ते न मळवाथी ठंडथी कंपता शरीरवाळाने नजीक गृहस्थ मळतां शुं थाय ? ते कहे छे:- ते गृहस्थ ऐश्वर्यनी गरमीथी अहंकारी छे. कस्तुरीथी लेप कर्यो छे. उत्तम जातिना केसरना जाडा रसथी गात्र लींपेलुं छे. मीन मद आगुरु घन सार धूपित रल्लिकाथी लेपेला शरीरवाळो छे. अने जुवान सुंदरीओना संदोहथी वटायेलो छे. अने शीत स्पर्शनो अनुभव जेने नाश पाम्यो छे तेवो शेठीयो तेवा कंपता मुनिने जोड़ विचारे के आ मुनि मारी सुंदर स्त्रीओ जे देवांगनानी रूप संपदाने इसी काढे छे, तेने जोड़ने सात्विक भावने पामेलो धूजे छे के ठंडना लीवे? आवी रीते शंकामां पडेलो शेठ बोले, के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! पोताना आत्मानी कुलीनताने प्रकट करतो प्रतिषेध द्वारवडे पूछे छे के तमने भुं इन्द्रियोनी उन्मत्तता दुःख दे छे ? आवुं गृहस्थ पूछे तो तेनो अभिप्राय जाणीने साधुए कहेवुं, के आ गृहस्थने पौताना आत्माना अनुभव वडे अंगना (स्त्री)ना अवलोकनना प्रकट करेल भावथी खोटी शंका थइ छे, तो हुं तेनी शंका दूर करूं आ विचारी साधु बोले हे आयुष्मन् ! हे गृहस्थ ! मने इन्द्रियोनी उन्मत्तता नथीज बाघती; पण, तमे मा शरीर जे, कंपतुं जोयुं छे, ते फक्त ठंडनुंज कारण छे' पण ते कामदेवनो विकार नथी. अति ठंडनो स्पर्श सहन करवाने हुं शक्तिवान नथी. आ प्रमाणे साधु बोले त्यारे, ते गृहस्थ भक्ति अने करुणा रसथी भिजायला हृदयवाळो बनीने कहे केः - शीघ्र ठंड उडाडनार सारा बळेला अग्निने केम सेवतो नथी ? मुनि कहे:-मने अनिकाय सेक्व कल्पतो नथी; तथा सळगाववो पण कल्पतो नथी; तथा कोइए सळगावेलो होय तो, त्यां थोडो घणो ताप लेबो पण मने कल्पतो तथी; तेम बीजनां वचनथी पण, एम करनुं मने कल्पतुं नथी अथवा बीजाने अग्नि बाळवानुं कहेतुं पण मने कल्पतुं नथी. ते साधुने आवुं बोलतो | जाणीने ते गृहस्थ कदाच आवुं करे ते कहे छे:
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सूत्रम् ॥७५९ ॥