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आचा०
॥७५८॥
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गतिमां रखाय ते) संनिधान कर्म छे, तेना स्वरूपने जणावनार शास्त्र छे, तेनी निपुण खेदज्ञ छे, अथवा संनिधान कर्म छे, तेनुं शस्त्र संयम छे, तेना खेदने जाणनारो छे. अर्थात् संम्यक् संयमनो जाणनारो छे अने जे संयमनी विधि जाणनारो छे, ते भिक्षु काळज्ञ ते उचित अनुचित अवसरनो जाण छे आ वधां सूत्रोनो अर्थ 'लोक विजय' नामना बीजा अध्ययना पांचमा उद्देशामां बतावेल होवाथी त्यांथी जाणी लेवुं; तथा बलज्ञ, मात्रज्ञ क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, बधी बाबतमां निपुण साधु परिग्रहनो ममत्व त्यागी ने कालमां उत्थायी तथा अप्रतिज्ञ ( कदाग्रह रहित ) बनीने उभयथी (द्रव्य भावथी) ममत्ताने छेदनारो बनीने ते साधु संयम अनुष्ठानमां निश्चयथी वर्त्ते; तेने संयमअनुष्ठानमां वर्त्ततां शुं थाय? ते कहे छे:--
तं भिक्खु सीयफासपरिवेत्र माणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूया आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा- उब्वाहंति ? आउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उबाहंति, सीय फासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पड़ अगाणकार्य उज्जालित्तए वा (पजालित्तए वा) कार्य आयावित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसिं वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परोअगणिकाय उज्जालित्ता पजालित्ता कार्य आयाविजवा, पायविज वा, तं च भिक्खू - पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणाए तिबेमि [सू० २१०] ॥ ८-३ ॥ अंतमांत आहारथी तेज रहित बनेला निष्किंचन तथा भिक्षाथी निर्वाह करनारा साधुने गरम अवस्थानी युवानी जतां योग्य
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सुत्रम
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