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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आची सूत्रम ॥६४२॥ ॥६४२॥ द्रव्यधुत वे प्रकारे छे, आगमथी अने नो आगमथी तेमां आगमथी धुतनो ज्ञाता (जाणनारी) होय, पण तेमां उपयोग न होय अने नो आगमथी तो ज्ञ शरीर भव्य शरीर सिवाय द्रव्यधुत ते कपड विगेरेनी धूळ दूर करवानुं छे. (द्रव्य ते कपडां विगेरेने अने धृत ते मेल दुर करवानुं छे) । आदि शब्दथी वृक्ष विगेरे फळ माटे धोवानुं छे (मूकां पांदडां विगेरे दूर थवाथी फळ तैयार थाय छे, अथवा विना जरुरनी & वनस्पति वचमांथी निंदी काढे छे) अने भाव धूत तो आठे कर्मने दूर करवा [मोक्ष माटे] उपाय कराय ते छे, [आ अडधी गाथानो अर्थ छे.] फरी आज विषयने खुलासाथी कहे छे. ___अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माइं, भावधुयं तं वियाणाहि ॥२५२॥ | उपसर्गाने अतिशे (सारी रीते) सहन करीने कर्म धोवां, एटले देवताना के मनुष्योना के तिर्यंचोना दुःख मुखरुप जे उपसो आवे तेमां समभाव राखीने जे संसार वृक्षना बीज समान मोहनीय विगेरे कर्मोने दूर करे, ते भाव धुत छ; एवं तुं जाण अथवा क्रिया अने कारकनो भेद नथी, तेथी कर्म धुनन तेज भावधूत छे, एम जाण नामनिक्षेप कह्यो हवे त्रीजा मूत्रालापाक निप्पन्न निक्षेपामां मूत्रानुगममां अस्खलितादि गुणयुक्त मूत्र कहेवु ते आ छे: ओवूज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमामो जाइओ सबओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिस, से किट्टइ तेसिं समुटियाणं निक्खित्तद लावल लखकर For Private and Personal Use Only
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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