________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
आचा०
॥६७६॥
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रः - ते वस्त्र विगेरे आदान केवां होय; के ते दूर करवां पडे ?
उ:- (अल्प - अर्थमा नकार छे. जेमके - आ साधु अज्ञान छे. एटले, अल्पज्ञानवाळो छे, ते प्रमाणे अर्थ लेतi) साधु अचेल एटले, अल्प वस्त्र राखनारो संयममा रहेलो छे, तेवा साधु (भिक्षु) ने आवुं विचारखुं न कल्पे के, मारुं वख जीर्ग थड़ गयुं छे. हुं अचेलक थइश. मने शरीरनुं रक्षक वस्त्र नथी; तेथी, ठंड विगेरेथी मारुं रक्षण केम थशे ? तेथी हुं बिना वस्त्रनो थयो हुं. तेथी कोइ श्रावकने त्यां जइ वस्त्र याचीलावु अथवा ते जीर्णवस्त्रने सांधवाने सोय-दोरो याचीश; अथवा ज्यारे सोय-दोरो मळ; त्यारे, जीर्णवखनां काणांने सांधीश; फाटेलांने सीवीशः अथवा दुकां वस्त्रने जोडी मोडुं बनावीशः अथवा लांबानो टुकडो फाडी सरखं अथवा, नानुं बनावीश
एम योग्य बनावीने हु परीश; तथा, शरीर ढांकोश. विगेरे, आर्त्तध्यानथी हणायलो अंतःकरणानी वृत्ति धर्ममां एकचित्त | राखनार आत्मार्थी साधुने वस्त्र जीर्ण थवा छतां, अथवा होय नहीं; तोपण भविष्य संबंधी (चिंता) न थाय.
अथवा आ मूत्र जिनकल्पीओने आश्रयी कहेलुं छे. एम व्याख्या करवी कारण के ते मुनिओ अचेल (वस्त्र रहित) होय छे. तथा तेमना हाथमांथी तेमनी तपोवळनी लब्धिने लोघे पाणीतुं बिंदु पण न गळतुं होवाथी तेओ पाणिपात्र कहेवाय छे,
पाटले, हाथ, अने हाथमांज भोजन लइने करे छे. तेमने पात्रां विगेरेनो सात प्रकारनो नियोग होतो नथी; [कारण के तेवो तेमनो अभिग्रह छे.] तथा, कल्पत्रय पण त्यागेल छे. फक्त, तेमने रजोहरण, तथा मुखत्रत्रिका ( ओघो, अने मुहुपत्ति) मात्र होय छे तेवा अचेल जिन - कल्पीमुनिने उपर कहेल आर्त्तध्यान वस्त्र फाटवा - सांघवा विगेरे संबंधी न होय. (कारण के, धर्मीवस्त्र
For Private and Personal Use Only
सूत्रम ॥६७६॥