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सूत्रम्
॥६६५॥
आचालडायो माणस रमणता करे? वळी गृहवास बधा द्वंद्व (रागद्वेष विगेरेनां जोडलां) रुप छे, तेमां जेनुं मोह 'कपाट' घटी [ओर्छ थइ
* गयेल छे, ते रति करे? [अर्थात् तेमनो मोह न करे] आ बधानो उपसंहार करे छे, के पूर्वे कहेलुं ज्ञान हमेशां आत्मानी अंदर ॥६६५॥ स्थापी राखजो, ए, सुधर्मास्वामी शिष्यने कहे छे. धृतअध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो.
बीजो ऊद्देशो. प्रथम उद्देशो कयो, हवे, बीजो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशापां सगांनो मोह छोडवा मूचव्यु. ते जो, कर्मनुं विधुनन थाय; तो, सफळ थयु कहेवाय; माटे कर्मनुं विधुनन करवा आ उद्देशो कहेवाय छे. आ संबंधे आवेला उद्देशानुं आ पहेलं मूत्र छे.
आउरं लोगमायाए चइत्ता पुटवसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बभचेरंसि वसु वा अणुवसु वा जाणितु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला (सू० १८१)
लोक ते, मातापिता, पुत्र, कलत्र विगेरे स्नेहना संबधथी वियोग यतां पीडाय छे, अथवा तेमनुं बगडतां पीडाय छे, अथवा - संसारो-जीवोनो समूह कामरागमा पीडातो होय; तेने ज्ञानवडे ग्रहणकरीने (समजीने ) तथा पोतानां मातापिता विगेरेनो संबंध
छोडीने तथा, उपशम मेळवीने ब्रह्मचर्यमां वसीने उत्तम साधु केवो होय ? ते कहे छ:-वसु ते, द्रव्य छे. ते द्रव्यवाळो अर्थात् | 18 कषायरूप-काळाश विगेरे मळने दूर करी पोते वीतराग बने छे, अने तेथी उलटो, अनुवमु सराग ले. अथवा वसु ते, साधु छे.
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