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सूत्रम ॥६६०॥
॥६६०॥
जीव अनुभवे छे. आ बधुं तीर्थंकरे कहेलुं छे. ते कहे छे.- आ वधू तीर्थकरे प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी कहेलुं छे, माटे प्रवेदित छे. द तथा हवे पछी, कहेवातुं पण तेमनुं कहेलुं छे. 'संति' जीवो विद्यमान छे. एटले, (वास धातुनो अर्थ शब्द, तथा कुत्साना अर्थमां
छे. माटे,) जेओ वास करे छे, ते वास ना (बोलनारा) भाषा लब्धि पामेला बेइद्रिय विगेरे जीवो पण छे. तेज प्रमाणे रसने अनुसार जनारा ते कडवो-तीखो कवायलो विगेरे रसने जाणनारा एटले, मनवाळा संज्ञी-जीवो पण छे. (आ प्रमाणे संसारी
जीवोनो कर्मविपाक विचारीने महाभय जाणवो;) तेमज ऊदक-(पाणी) रुप-एकेंद्रिय जीवो छे. पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्थामां, तथा Pऊदकमां चरनारा ते पोरा, छेदनक, लोट्टणक विगेरे त्रस जीवो छे, तथा माछलां, काचवा विगेरे पण छे. तेमज, स्थळ उपर जन्म
नारा, अने केटलाक जळने आश्रये रहेला महोरग तथा पक्षीओमांना केटलाक, ते पाणीमा पोतानुं जीवन गुजारनारा जाणवा; ९. अने बीजां पक्षीओ आकाशगामी छे. आ प्रमाणे बधा पाणीओ (पोतानाथी बीजां नबळां) प्राणीने आहार विगेरे माटे, अथवा
मत्सर विगेरे माटे दुःख आपे छे. तेथी शुं समजवु? ते कहे छे:-(हे शिष्य !) तुं अवधार ! के, आ चौद रज्जुप्रमाण-लोकमां ३ कर्मविपाकना कारणे जुदी जुदी गतिमां दुःख तथा क्लेशनां फळरूप-महाभय छे. (पण तेमां सुख तो, कहेबामात्र छे.) शामाटे कर्मविपाकथी महाभय छे ? ते कहे छ:
बहुदुक्खा हु जन्तवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेणा वह गच्छंति सरीरेणं पभंगुरेण अहे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्वद एए रोगा बह नच्चा आउरा परियावए नालं पास, अलं तवेएहिं एवं
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