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ल बीना दोषो वडे पराभव रहेल छे. आचा०
सुत्रम् | क्षुततर हिमोष्णानिल शीतदाह दारिय शोकप्रिय विपयोगैः दौर्भाग्य मौान भिजात्पदास्य वैरुप्य रोगादि भिर स्वतंत्रः ॥३॥ ॥६५९॥ भूख तरस ठंड ताप, पवन तथा ठंडो दाह तथा दरिद्रता शोक वहालांना वियोगयी, तथा दुर्भागीपणुं, मूर्खता, नीचजाति, तथा। ॥६५९॥ द दासपणु, कुरुप, तथा गोथी, आ गनुष्यदेह सदा परतंत्र छे.
देवगतिमां पण चारलाख, योनि, २६ लाख कुल कोटि छे, तेमां पण अदेखाइ, विषाद; मत्सर च्यवनभय, शल्य विगेरेथी । पीडायला मनवालाने दुःखनोज प्रसंग छे. सुखनु अभिमान तो, आभास, मात्र छे. को छे के:
देवेषु च्यवन वियोगदुःखितेषु क्रोधेा मदमदनाति तापितेषु आर्याः नस्त दिह विचार्य सं गिरन्तु यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति है देवो, च्यवन, तथा वहालांना वियोगथी दुःखी छे, क्रोध, इर्ष्या, अहंकार, कामदेवथी अति पीडायला छे. तेथी हे आर्य ! B (उत्तम) पुरुषो! अहीं कंइपण सुख वर्णववायोग्य होय; ते विचारीने कहो; (विगेरे समजवू.)
तेथी, आ प्रमाणे चार गतिमां पडेला संसारी जीवो जुदा जुदा रुपे कर्मविपाकने भोगवे छे, तेज मूत्रकार बतावे छे. 'संति' । पाणीओ विद्यमान छे. तेश्रो चक्षुइंद्रियथी विकळ ते द्रव्यअंधा छे, अने सारा-माठा विवेकथी रहित भावअंध पण छे. तेओ नरक
गति विगेरेना द्रव्यअंधकारमा तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, विगेरेना कर्मविपाकथी मळेला भाव अंधकारमा पण रहेला | (शास्त्रकारे) वर्णन्या छे. 'किं च वळी, तेवी, कुष्ठ (कोढ) विगेरेनी अधम अवस्थामां, अथवा एकेंद्रियनी, अथवा अपर्याप्ति अवस्थाने एकवार अनुभवीने पार्छ कर्म ऊदय आवतां तेमन, अवस्थाने वारंवार अनुभवीने ऊंच-नीच तीवमंद दुःख विशेषना स्पर्शीने
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